विशिष्ट कवि :: डॉ. अभिषेक कुमार

सफरनामा 
कभी कभी
मैं जब अपनी प्यास के सफरनामे की
पड़ताल करने बैठता हूँ
तो मुझे महसूस होता है
की इस सफरनामे में मैंने
हरिद्वार के पवित्र गंगाजल से लेकर
रशियन वोदका तक का सफर तय कर लिया है ,
लेकिन कंठ को / अंतर्मन को
तृप्ति का आभास दिलाने में
सदा ही विफल रहा हूँ
जन्म की पवित्रता
और अपवित्रता के बीच झूलते हुए मैंने
सदा ही अपनी तृप्ति के उपचार में
अतिशयोक्तियों को गले लगाकर
अपने बदन को ही जख्मी करने का कार्य किया है ,
जख्मों से रिश्ते श्राव को
मैंने अक्सर सीसे की ग्लास से छलकते महसूस किया है ,
हाथ से छूटकर सीसे की ग्लास का फर्श पर गिरना
और एक खनक से टूटकर बिखर जाने से भी बड़े यथार्थ से
मैं तब – तब रू-ब-रू हुआ हूँ
जब – जब फर्श पर बिखरे सीसे को सहेजने की कोशिश में
अपने हाथों को जख्मी किया हूँ
तिकोने – तिकोने अनगिनत शीशे के टुकड़ों
को मैंने वर्तमान को बेधत कर
लहूलुहान करते हुए महसूस किया है ,
तिकोने – तिकोने अनगिनत शीशे के टुकड़ों
के द्वारा अतीत में दिए गए जख्मों की तपिश को
मैं ना जाने कितनी बार भोगा हूँ ,
कभी बाहियात प्रश्नों की शक्ल में
तो कभी ठोकर लगकर रिसते खून की शक्ल में ,
भविष्य की अगर बात करूँ तो
दीवार  से जुड़े सेल्फ में काँच के दरवाजे के भीतर से
अभी भी काँच की ग्लास झांकते हुए मुस्कुरा रही है
एक और परम सत्य है
प्यास के इस सफरनामे की पड़ताल का ,
की जब भी इसकी पड़ताल करने बैठता हूँ ,
तब – तब वीणा की सुमधुर झंकार से
खुद को उद्धेलित होते पाता हूँ ,
और वीणा की खींची तारों के ऊपर
लयबद्ध होकर थिरकती अंगुलियों की गतिशीलता संग
अपने हृदय की धड़कनों को
कभी तेज तो कभी मद्धिम होते महसूस करता हूँ
और अंत में परम शून्य की ओर खुद को
अग्रसर होते देखता हूँ ,
फिर वही पवित्र गंगाजल
और अपवित्र रशियन वोदका के बीच
अपनी प्यास की तृप्ति को ढूंढता मैं ,
स्वयं में स्वयं को विसर्जित करने के सफर की शुरुआत करता हूँ ,
हर बार की तरह
सफर को वहीं से शुरू करता हूँ
जहाँ ये प्यास का सफरनामा समाप्त होता है ,
पर हर सफर की दिशा पहले की दिशा से ठीक विपरीत ही होती है ,
इस यथार्थ के साथ कि
ध्रुव का एकल अस्तित्व संभव नहीं
इतिहास खीजते हुए हँसता है 
इतिहास खीजते हुए हँसता है
हाहा , हाहा , हाहा , हाहा
और हंसे भी क्योँ नहीं ,
आखिर बात ही कुछ ऐसी है
जो हँसी आनी ही है
इतिहास एकलौता है
जो रिश्वतें देता है ,
रिश्वतें खाता है ,
खुद की चोरी करवाता है ,
खुद के पन्नों को बिकवाता है
और खुद के पन्नों को खरीदता भी है
इतिहास की हँसी में
खीज बिल्कुल स्पष्ट दिखती है
और यह खीज वास्तव में
बदलते वक्त के प्रति उत्पन्न खीज है ,
आखिर वक्त ही है
जो इतिहास से कुछ पन्नों को
फाड़कर फेंक देता है
तो कभी इतिहास में कुछ पन्नों को
जोड़ देता है ,
इतिहास खीजता है ,
लेकिन इतिहासकार को कुछ नहीं कहता
इतिहास हमेशा से
इतिहासकार को माफ करते रहा है
और इतिहासकार
निर्लज्ज होकर
कहीं माइक के सामने
खड़े होकर गला फार रहा है
तो कहीं ए. सी. में गद्देदार सोफे पर पसरकर
सिगरेट फूंक रहा है
और सिगरेट की राख
ऐश ट्रे में झार रहा है
इतिहास खीजते हुए हँसता है
हाहा , हाहा , हाहा , हाहा ,
और इस हँसी की गूंज
से सियासत भी मुस्कुराती है
हौले – हौले से ।
चरम सुख ( ऑर्गेज्म ) 
कभी लिखा था मैंने ,

किसी कविता में ,

” स्त्री पूरी प्रकृति है

पूरी प्रकृति स्त्री है

और पुरुष …

प्रकृति की गतिशीलता के लिए आवश्यक ऊर्जा “

प्रकृति रजस्वला भी होती है ,

सृजन के लिए नए आयाम और प्रतिमान भी गढ़ती है

और चरम सुख ( ऑर्गेज्म ) भी प्राप्त करती है

प्रकृति के चरम सुख को दिखाने के लिए तमाम उदाहरण बिखरे है चारो ओर

किसको बताऊँ , किसको छिपाऊँ

कभी जाकर देख लेना मिलों बंजर धरती के बीच

सीना ताने खड़ी कंटीली झाड़ीयों को ,

कभी जाकर देख लेना

पत्थर के सीना को फार निकलती हरि दूब को ,

कभी जाकर बैठ जाना किसी नदी के किनारे

और सुनना स्रोतस्विनी की कल – कल नाद को ,

कभी किसी पहाड़ी के सामने खड़े होकर जोर से चिल्लाना

और सुनना लौटते प्रतिध्वनि को

………… आदि ………. आदि ……….. आदि

और हाँ प्रकृति को चरम सुख के लिए

ना तो सेक्स की आवश्यकता है

और ना ही प्रकृति कभी किसी के सामने

यह प्रदर्शित करती है कि

वह स्वच्छन्दतावादी नारीवाद की मुखर पैरोकार है

और हाँ प्रकृति अपने चरम सुख के लिए

फूहड़ता भरे यौनिकता की वकालत नहीं करती

चरम सुख के लिए प्रकृति के

रग – रग में बसा है ….

प्रेम , स्नेह , करुणा , दया और क्षमा

और हाँ प्रकृति के अन्तस् की ज्वाला

जब फूटती है

तो केवल ध्वंस ही नहीं मचाती

वरण पहाड़ और पठार जैसा नवसृजन भी करती है

 प्रेम 

एक प्रेम ही है

जो हरा सकता है नफरत को ,

जो मिटा सकता है

संबंधों के बीच की वैमनस्यता को

एक प्रेम ही है

जो मिटा सकता है

सम्प्रदाय जनित असहिष्णुता ,

जो बो सकता है

असहमति में भी सहमति का बीज

एक प्रेम ही है

जो तोड़ सकता है

उन्माद के मकड़जालों को ,

जो मिटा सकता है

शोषण की अंतहीन दास्ताँ को

एक प्रेम ही है

जो खोद सकता है

मजहबी दीवारों की नींव  ,

जो रोशन कर सकता है

उन पथराई आंखों को भी

जहाँ सदियों से अंधेरा है

एक प्रेम ही है

जो इंसान को इंसान से क्या

जंगली जीवों से भी

स्नेह के बंधन में बांध देता है ,

जो इस उपभोगवादी युग मे भी

मानव के अंदर , कुछ अंशों में ही सही

मानवता को अब भी जिंदा रखे है

परंतु यह प्रेम

आज के आधुनिक समाज में

जिस्म के आकर्षण से भरा

तेजी से अपसंस्कृति के रूप में

फैल रहे वासनामुल्क प्रेम नहीं ,

बल्कि समग्र जीवनाशक्ति से भरा

मानव प्रेम है ,

जिसे अपने हृदय में जगाने के लिए

देना होता है अपने स्वार्थों की

असंख्य कुर्बानियां ,

इसलिए तो प्रेम इस दुनिया में

सबसे बड़ा प्रतिरोध है

हमारा धैर्य 

जो उदित है

उसका अस्त होगा ,

जो अस्त है

वो उदित होगा ,

उदित और अस्त की इस व्याख्या ने

हमारे सीने में भर दिया है धैर्य

और इसी धैर्य के सहारे

हम हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं ,

दशकों से , युगों से , सदियों से , शताब्दियों से ,

लेकिन आज भी धरती पर कालिमा व्यापात है ,

और ये कालिमा लील रही है

सभ्यता – संस्कृति , मानवता – इंसानियत

और कायम कर रही है

आशावादी हृदय में गहन अंधकार

एक अकेला सूरज बेचारा कितना लड़ेगा

वो रोज आता है , लड़ता है ,

जख्मी होता है और फिर वापस लौट जाता है ,

जब मैं उससे पूछता हूँ

तुम अकेले कब तक लड़ते रहोगे

तो वो मुझ पर गरजते हुए कहता है ,

जब तक तुम अपने हृदय में

एक नन्हा दीपक नहीं जलाओगे

मैं रोज सूरज की बातें सोचता हूँ ,

और अंत में इस निर्णय तक पहुंचता हूँ

की सूरज तो आ ही रहा है ,

शायद वो कल जीत जाए

और अंधेरा छट जाएगा ,

इसी सोच में मैं धैर्य धारण किया हूँ ,

दशकों से , युगों से , सदियों से , शताब्दियों से

जन चेतना के सूर्य में शायद खत्म हो चुकी है

नाभिकीय संलयन की अभिक्रिया ,

इसलिए आकाशीय सूर्य के सहारे हम बैठे हैं

सीने में धैर्य धरकर ,

ना मेरा धैर्य टूटता है

ना धरती की कालिमा छटती है ,

और ये कालिमा रोज हमारे

सभ्यता – संस्कृति , मानवता – इंसानियत को

अपने बर्बर प्रहार से जख्मी करती है ,

आखिर हमारा धैर्य ही तो

हमें जख्मी कर रहा है हर रोज

 कभी कभी 

कभी कभी

साहित्य पढ़ने – लिखने की इन आदतों से

मन मे व्यर्थताबोध उत्पन्न हो जाता है

सोचता हूँ , क्या मिलेगा

साहित्य में इस कदर डूबने से ,

क्या साहित्य दे पायेगा

दो वक्त की रोटी या

तन पर एक मुकम्मल वस्त्र

अथवा सर पर एक अदद छत

शायद नहीं ,

और साहित्य ना ही

पहचान दे सकता है

समाज में एक सफल व्यक्ति के रूप में ,

क्योँकि इस समाज में

एक सफल व्यक्ति के रूप में

पहचान बनाने के लिए आवश्यक है ,

कम से कम , थ्री बीएचके का एक फ्लैट

बाउंड्री किया हुआ ,

एक चमचमाती कार ,

दो चार नौकर – चाकर ,

गले मे सोने की एक मोटी जंजीर ,

हाथ मे सोने का मोटा कड़ा ,

पत्नी के गले में डायमंड युक्त नेकलेस ,

हाथों में प्लेटिनम की अंगूठी ,

सप्ताह में तीन – चार दिन ब्यूटी पार्लर का चक्कर ,

डायनिंग हॉल में नक्काशी किया हुआ टेबल और कुर्सी ,

दीवार में छप्पन इंच की टंगी एलईडी टीवी ,

किचन में डबल डोर का फ्रिज कम रेफ्रिजरेटर ,

बैडरूम में कूलर , ऐसी की सुविधा ,

हाथ में लेटेस्ट एंड्राइड मोबाईल ,

शहर के सबसे बड़े बिल्डिंग वाले स्कूल में

बच्चों की पढ़ाई ,

इत्यादि , इत्यादि …… इत्यादि

अर्थात हम इस समाज में

एक सफल व्यक्ति के रूप में

तभी गिने जाएंगे जब हम दिखावा को अपनाएंगे

क्या साहित्य हमें दे पाएगा यह सब

शायद नहीं ,

तो फिर क्यों उलझा हूँ इस साहित्य में ,

शायद इसलिए कि

अपनी चेतना के स्तर को थोड़ा ऊपर कर सकूँ ,

भले ही वो समाज की आंखों को नहीं दिखेगा

मगर इतिहास के पन्नों में

कहीं ना कहीं दर्ज जरूर हो जाएगा

और साहित्य ,सफल व्यक्ति के रूप में

पहचान दे या ना दे

लेकिन एक चेतनशील व्यक्ति की श्रेणी में जरूर खड़ा करेगा ,

ईसलिये इस व्यर्थताबोध कि स्तिथि में भी

एक साहित्य साधक हृदय

ढूंढ लेता है एक मुकम्मल “अर्थ”

और यह “अर्थ” निश्चित ही भारी है

अर्थप्रधान युग के इस “अर्थ के अनर्थ” से

प्रेरणा और प्रतिमान 

तुम मेरी प्रेरणा को

अपने प्रतिमान से

बेसक बौने समझते हो

और मैं लकीर का फकीर नहीं

जो अपनी प्रेरणा को हीन मान लूं

तुम्हारे प्रतिमान के सामने

दंभ की पीड़ा से जकड़े हुए आत्मा

क्या तुमने महसूस किया है कभी

मुक्ताकाश की फैली लंबी भुजाओं को

जो खुद में समेटे हुए है

आदित्य , शशि और अनंत रश्मि पुंजों को ,

शायद नहीं ,

क्योँकि तुम अगर महसूस किए होते

मुक्ताकाश की विशालता तो

बेसक ही तुम बंधकर नहीं रह जाते

बांधों के बीच बहने वाली एक तालाब के समान

और नहीं खो रहे होते

निज मुक्त प्रवाहमयी अस्मिता

बारिस के दिनों में

कुछ नीर उधार ले

तुम खुद को नहीं मान सकते नदी

और तुम्हारे घाटों पर नहीं लग सकता कुम्भ

हे दंभी प्रजाति के विलुप्तप्राय जीव

जब तक तुम पिंजरे से बाहर नहीं निकलोगे

तब तक तुम महसूस नहीं कर पाओगे

मुक्ताकाश की विशालता ,

नदी होने की महत्ता और तालाब की लघुता

हे दंभी प्रजाति के विलुप्तप्राय जीव

तुम प्रतिमान की बातें कर

लकीर के फ़क़ीर बनकर

पिंजरे के अंदर दम तो तोड़ सकते हो ,

क्योँकि तुम्हारे लिए तो

प्रतिमान लोहे का पिंजरा ही है

और सलाखों से बंद जगह तुम्हारे लिए

स्वामित्व की भूमि ,

लेकिन क्या तुम जानते हो

प्रेरणा का जन्म

जीवन – स्पंदन से होता है

और जीवन – स्पंदन को महसूस करने के लिए

आवश्यक है शरीर के अंदर एक मुक्त मन का होना ,

और मुक्त मन की विशालता के आगे

मुक्ताकाश भी अपनी लघुता के साथ खड़ा होता है ,

और प्राचीन प्रतिमान मरण से एक क्षण दूर होता है

इतिहास गवाह है

प्रेरणा की रोशनी

प्रतिमान के अंधेरे पर हमेशा भारी पड़ती है

करना एक कवि से प्यार 

पतझर का मौसम बिता

उसे एक कवि से प्यार हो गया

कवि की कविता में

वसंत आ गया ,

कलियां चटकने लगी ,

रंग – बिरंगी तितलियाँ उड़ने लगी ,

भंवरे गुनगुनाने लगे …

कवि अब सही अर्थों में क्रांतिकारी बन गया  ,

तमाम आशंकाओं और दुविधाओं को पीछे धकेल

कवि ने थाम लिया मोहब्बत का ध्वज ,

गाए प्रेम के गीत ,

लगाए मोहब्बत के तराने युक्त नारे ,

चूमा होठ , पोछा आँखों से आँसूं …

मिल बाँटकर खाया सुखी रोटी के साथ प्याज , नमक और मिर्च ,

कवि ने पहचान लिया स्पर्श की ताकत

” प्रेम से बढ़कर कोई रिहैबिलेशन थेरेपी नहीं मानव जाति के लिए  “

और ना ही प्रेम से बढ़कर कोई प्रतिरोध

कभी करके देखना एक कवि से प्यार ,

एक कवि का प्यार वासना युक्त लिजलिजा नहीं होता ,

एक कवि से प्यार करने का मतलब है

दैहिक नश्वरता को पराजित कर

शाब्दिक अमरता में जीना

मैं पुरुष हूँ   

मैं पुरुष हूँ

एक जिम्मेदार बेटा

एक जिम्मेदार भाई

एक जिम्मेदार पति

एक जिम्मेदार पिता

एक जिम्मेदार मित्र

और इन सबसे बढ़कर

एक जिम्मेदार इंसान भी हूँ मैं ।

मैं पुरुष हूँ

मेरे संबंधों की पड़ताल में

मेरी जिम्मेदारियों की गहन छानबीन होती है

और अंत में निष्कर्ष यही निकलता है कि

मैं अपने कर्तव्यों का

कितनी भी निष्ठा और ईमानदारी से पारायण कर लूँ

लेकिन संबंधों के दरम्यान

मुझसे कोई संतुष्ट नहीं होता है ।

मैं पुरुष हूँ

मैं भी एक मानव ही हूँ

लिहाजा कुछ मानवीय दुर्बलताएं हो सकती है मुझमें

इससे मुझे कभी भी इंकार नहीं

कुछ छल और छद्मता जैसे गुण भी हो सकते हैं

इससे भी कभी मुझे इंकार नहीं

समाज की सांगठनिक ढांचा और मनोविज्ञान के कारण

मेरे अंदर कुछ दम्भ भी आ गया है

इससे भी मुझे इनकार नहीं

लेकिन मानवीय दुर्बलताएं , छल , छद्मता और दम्भ

क्या लैंगिक विशेषण है या पुरुषों का विशेषाधिकार ?

क्या स्त्रियों में ये गुण नहीं होता

या की स्त्रियां ही प्रेम और वफ़ा कर सकती हैं पुरुष नहीं ?

क्या केवल स्त्रियों को ही शारीरिक सुख प्राप्ति के लिए

उनकी मर्जी का होना आवश्यक है

पुरुषों की मर्जी – नामर्जी की कोई बात – विमर्श क्यों नहीं होता ?

क्या वासनाएं केवल पुरुषों के अंदर व्याप्त है ?

मैं पुरुष हूँ

क्या पुरुष होना गुनाह है

या पुरुष का प्रेम करना गुनाह है ?

पुरुष का प्रेम में जीना गुनाह है ?

या की पुरूषों को विरह वेदना नहीं होती

पुरूषों के सीने में हृदय नहीं होता

या की पुरुषों को दर्द ही नहीं होता ?

मैं पुरुष हूँ

एक बात कहूँ यकीन करोगे

पुरुषों की जिम्मेदारियों का फलक इतना भिन्न है कि

तुम कभी अपने विमर्श की धुन में

इस फलक की पैमाइश करने में सक्षम ही नहीं हो पाए हो

इसलिए तुम प्रकृति ( स्त्री ) और ऊर्जा ( पुरुष ) के संबंधों को कभी समझ ही नहीं पाते हो ।

मैं पुरुष हूँ

और आग्रहपूर्वक कहता हूँ

मत रखो पुरषों को केवल ” स्त्रिखोर ” की श्रेणी में

पुरुष भी सर्वश्व अर्पण करता है संबंधों के दरम्यान

और जायज – नाजायज समझौते भी करता है

जैसे तुम करते हो .. ।

मैं पुरुष हूँ

कोई बंजर नहीं

मैं पुरुष हूँ

तुम्हारे सृजन का आवश्यक और अभिन्न अंग

द्वंद

ना काव्य की भाषा जनता हूँ ,

ना प्रतीक और बिंब को पहचानता हूँ ,

ना जानता हूँ उपमान – अलंकारों का चयन ,

ना जानता हूँ छंदों का सृजन

मैं लिखता हूँ , हां मैं लिखता हूँ

उन बातों को जिन्हें देखते हैं मेरे नयन ,

जो वेधता है मेरा हृदय ,

जो झकझोड़ता है मेरी भावनाओं को ,

जिसे देख जागृत होती है मेरी संवेदनाएं

शोषण की अंतहीन दास्तां ,

पीड़ितों का चीत्कार ,

दर्द से तड़पती स्त्रियों की करुण पुकार ,

राजनीतिज्ञों के कुकर्मों से आमजनों में मचा हाहाकार

बालकों का रुदन ,

बूढ़ी पड़ती आंखों की क्रंदन ,

प्रकृति का विहंगम आलंबन ,

व्यक्तिगत वेदना और चुभन

स्नेहिल प्रेम भरा प्रियतम का मिलन ,

कंटीली विरह की चुभन ,

नयनों की भाषाएं ,

तृष्णा को संपुष्ट करती आशाएं

कितने चीज बिखरे हैं चारों ओर

जी चाहता है कि

पल झपकते ही इन सारी चीजों को

अपना बना लूँ ,

शब्दों में बांधकर पन्नों में सजा लूँ

कोशिश भी यही है

इन चीजों को अपने जज्बातों में जब्त करने की ,

साहित्य में विकसित होती

चापलूसी , चाटुकारिता और चरणवंदना की

मक्कारियत से भरी नवसंस्कृति से परे रहकर

सतत सृजन रत रहने की चाहत लिए

चला जा रहा हूँ अपने पथ ,

अपनी मंजिल की ओर ,

अवकाश नहीं है मुझे , मेरे चिंतनशील मस्तिष्क को

की मैं सोचूं तुम्हें ,

इसलिए स्वीकार कर लो अपनी नियति को ,

क्योँ की भाग्य बदला जा सकता है , नियति नहीं ,

और द्वंद तो सदा से मेरे जीवन का एक हिस्सा रहा है ।

…………………………………………..

परिचय : डॉ. अभिषेक कुमार

सम्प्रति : नेत्र विशेषज्ञ

प्रकाशित कृतियाँ : दो काव्य – संग्रह ” रस्सा खोल तथा झुकती पलकों की चीख ” , एक बाल काव्य – संग्रह ” मेरी सौ बाल कविताएँ ” , एक व्यंग्य – आलोचनात्मक गद्य आलेख ” साहित्यिक मठाधीशों का काला चिट्ठा ” , कोरोना काल में अर्जित अनुभवों और अनुभूतियों पर आधारित ” कोरोना डायरी – इंडिया फाइट्स अगेंस्ट कोविड – 19 ” , नागार्जुन पर शोध पुस्तक ” पीडोफिलिक नागार्जुन :: विवादों एवं साजिशों के बीच ” , दो भागों में एक काव्य – संग्रह ” कुछ कही – कुछ अनकही ” तथा एक लघुकथा संग्रह ” मुक्ताकाश ” प्रकाशित ।

पत्राचार पता :

ग्राम + पोस्ट – सदानंदपुर, बलिया, बेगूसराय ( बिहार )

दूरभाष : 9304664551

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