स्पर्श के संस्मरण ये सब तुम्हारे
थिर
था
प्रतिबिम्ब
छुआ दी
तुमने
तर्जनी की पोर
देर तक
काँपता रहा
तालाब
ऊष्मा
रख दी
गले पर
अटकी
रह गई
साँसें
कुतर डाले
कंधे पर
उगे पँख
अवश
हो गई
देह माटी।।
प्रेम में डूबा परेवा जोड़ा
मेरी खिड़की से
दिखता है
कदम्ब का पेड़
बैठा डाल पर
परेवा का
जोड़ा
रोम रोम में
पुलक भरा है
कबूतरी के
उनींदी सम्मोहित
निढाल है
कबूतर के कांधे
संवार रहा है
एक एक रोयाँ
चोंच से कबूतर
मदहोश
हुई जाती है
कबूतरी
दीन दुनिया से
बेखबर
प्रेम में डूबा
परेवा जोड़ा।
हरसिंगार बन झरती है तुम्हारी हँसी
पान
खाए
मुँह से
झरता है
हरसिंगार
कानों में
फँसा है
अस्फुट कथ्य
बेरी बेरी
भ्रम हुवा
सुरबहार का
गीले बदन
उत्तप्त होता
उत्तरीय
गुदगुदाती हैं
मछलियाँ
जल में
उखड़ने
लगते हैं
पाँव
आश्वस्ति
थी
पुकार
अब तो
फिर फिर
आती है
अपनी
ही
आवाज़।
बीज अँखुवाया है जैसे प्रेम
चाय में
डूबा हुआ
बिस्कुट है
सूरज
साँझ का
झुटपुटा है
द्वंद्व
मन का
रात है
ख्वाबों की
खिड़की
सुबह
शीशा
आतिशी
बीज
अँखुवाया है
जैसे प्रेम।