विशिष्ट कवि : अभिजीत

रोटी की बात मत करो

रोटी की बात मत करो
रोटी पर सवाल मत करो
बात करनी हो तो करो सिर्फ मेरी
मेरे आगे रोटी क्या है
मात्र गूंधे हुए आटे का सिका हुआ एक टुकड़ा
पर मैं वो हूँ जिसमें समाया है सब कुछ
देखो मेरी ओर देखो और बताओ
तुम्हें किसकी है ज्यादा जरूरत
रोटी की या मेरी ?

देखो भूल रहे हो तुम रोटी का रंग-रूप, उसका आकार
देखते रहो मेरी तरफ
मिट रही है तुम्हारी भूख
‘मिट रही कि नहीं’
मिट रही है ना…’
बस देखते रहो मेरी तरफ
सुनते रहे मेरी बात
भूलते रहो हर सवाल
क्योकि मैं , मैं हूँ
और यह मैं कोई सवाल नहीं ,
अपितु हर सवाल का एक मात्र जवाब है

जब सवाल हो किसान
जवाब है ‘मैं’
जब सवाल हो पानी
जवाब है ‘मैं’
जब सवाल हो महँगाई
जवाब एक मात्र ‘मैं’
जब सवाल हो देश
तब सिर्फ ‘मैं’, ‘मैं’, और ‘मैं ‘

‘साहब भूख’
‘साहब नौकरी’
‘साहब रोटी’
बड़े मूरख हो तुम
मैं बात कर रहा हूँ देश की
तुम्हें अभी भी चाहिए रोटी
देशद्रोही कहीं के ….
मारो – मारो- मारो ।

रोटी का सवाल बगावत का बिगुल है
इतिहास गवाह है
जिसने भी पूछा है रोटी के बारे में सवाल
मारा गया है
या तो भूख से
या फिर उनके हाथों जिनका काम था रोटी देना

 

धरती गोल है

धरती गोल है
मगर दुनिया चार सौ बीस
उत्तरी ध्रुव से लेकर दक्षिणी ध्रुव तक
पूरी की पूरी
गंगा जी में नाक तक डूबे यजमान की तरह
पर घाट पर बैठा पंडा भी कौन सा सच्चा है
चोर है चोर
बिल्कुल सरकार की तरह
जो बढ़ाता है वेतन एक रुपया
और जोड़ देता है महंगाई में पांच रुपए
यह कह कि जरूरी है विकास की ख़ातिर
थोड़ा सा कष्ट सहना
‘मेरा विकास’
“तुम्हारा कष्ट”
देश जाए खड्डे में
जैसे सड़क चली गई है
जैसे मैं चला जाता हूँ
घुरूप्प्प् से
जब बारिश के मौसम में
तालाब बन जाता है घर
मैं बन जाता हूँ मेढ़क
पर मैं टर्राटा नहीं
सांप भी होते हैं न तालाब के आस-पास
जिन्दा रहने के लिए जरूरी है चुप रहा
ख़ास कर तब
जब आदमी होता है
सीधा
शरीफ़
और समझदार
पर मैं चुप नहीं रहूँगा
चौराहे के बीचों बीच करूँगा सब को नंगा
फारूँगा अपने कपड़े
कोसूँगा तुम्हें
खुद को
व्यवस्था को
एक सिरे से
एक सुर में
ये सब होगा उस दिन
जब मैं पागल हो जाऊँगा
पर पागलों की सुनता कौन है
कोई भी तो नहीं ।

एक कवि का घोषणापत्र

मैं कवि हूँ
कवितायें लिखता हूँ
पर सच ये है कि मैं बनना चाहता था प्रेमी
किसी के प्रेम में पड़ करना चाहता था इंतज़ार
बस एक झलक देखने की खातिर
सुबह से शाम तक खड़े रहना चाहता था
किसी की खिड़की के ठीक सामने के चौराहे पर
लेकिन मैं प्रेम कर न सका
नतीज़तन जज्बातों को कागजों पर लिख छुपाने लगा अपना दर्द

मैं बनना चाहता था क्रांतिकारी
सर पे कफ़न बाँध हाँथों में लाल झंडा लिए
मिटाना चाहता था हर उस शक़्स को
जिसके जुल्मों-सितम की गवाही देता था अख़बार
पर अफसोस ऐन मौके पर
मेरी आँखों के सामने नाच गया पूरा परिवार
जिम्मेदारियों के बोझ से दबी बंदूक उठा ना पाया
नतीज़तन उठानी पड़ी कलम
अब अपना गुस्सा कागज़ों पर निकलता हूँ
सोचता हूँ क्रांति इन्हीं कागज़ों के बूते आयेगी
परंतु मैं अब तक असफल हूँ
असफल हूँ इसलिए कवि हूँ
वरना कुछ और लिख रहा होता
कविता तो बिल्कुल भी नहीं

झिलमिलाती रोशनी

तुम्हारी हवेलियों से आती ये झिलमिलाती रौशनी
खिंचती हैं
मोहित करती हैं
अजब सा आकर्षण है
पर ज्यों-ज्यों आता हूँ पास
आँखे बंद होने लगती है
देख नहीं पाता
दरअसल ये चकाचौंध, ये रौशनी तुम्हारी हवेली की नहीं
जिस्मों से निकलते रूह की है
देखो, पास आते ही कैसे जकड़ लिया है मुझे
चला आ रहा है कोई और तुम्हारी हवेली को रौशन करने
पर याद रखना एक दिन जल उठेंगे सारे मुर्दे एक साथ
राख में मिल जायेगी हवेली
विद्रोह की एक चिंगारी से

मैं खा रहा हूं

मैं खा रहा हूँ
रोज खाता हूँ
दिन में तीन बार, थाली भर कर
और बीच-बीच में कचर बचर कुछ भी खा लेता हूँ
इसलिए मैं नहीं जानता क्या होती है भूख
क्योंकि मैं तो भूखा रहा ही नहीं कभी
ना ही कभी इंतज़ार किया भूख के लगने का
इतने सालों में ये रोजाना की आदत हो गई
उठो
खाओ
पेट भरा हो तो भी
भले ही एक रोटी कम ।
पर मैं महसूस करना चाहता हूँ भूख को
कल्लू से पूछा तो उसने कहा
“अतरियां दुखने लगती है
ऐसा लगता है मानो
पेट में घुस कर कोई खींच रहा हो हौदा पीछे
समझ लो पेट और पीठ हो जाती है एक
जब कोई हो महीनों से भूखा
आदमी मरता नहीं ऐसे में जल्दी
पर जिन्दा भी कहाँ रह पाता है
ऐसे में जब ज्यादा लगी हो भूख
तब खाना खाने से पहले
खाना देख कर ही भर जाता है पेट….
पता नहीं कल्लू सच कह रहा या डरा रहा मुझको
पर उसने महीनों गुजारे थे शहर कि फुथपाथ पे
हो सकता है उनमें से कुछ दिन वो भूखा भी रहा हो
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परिचय : अभिजीत सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया में में कार्यरत हैं.
एक काव्य संग्रह प्रकाशित

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