विशिष्ट कवि :: डॉ. अभिषेक कुमार

1.
एक औरत
दरवाजे से बाहर झांकी
औरत को झांकने लगी हजारों निगाहें
जो टिकी थी दरवाजे पर ही
उन निगाहों में कुछ पहरेदार थे
कुछ आवारा , लुच्चे – लफेंगे
कुछ जमूरे और मदारी का खेल देखने वाले थे
कुछ धर्म और संस्कृति के ठेकेदार
तो कुछ प्रगतिशीलता के चश्मे पहने
अश्लीलता और फूहड़ता के पैरोकार
बहुत कम निगाहें थी जो उस औरत को
हौशला और हिम्मत देने के लिए
उसके स्वागत में खड़ी थी ।
2.
एक औरत
घूंघट उठाई
तड़तड़ा उठी बिजलियाँ
औरत ने उस असीम ऊर्जा पुंज से
ग्रहण की ऊर्जा
और कदम आगे बढ़ाया
उन निर्मम और निर्जन रास्ते की ओर
जिससे गुजरकर ही उसे मिलती मंजिल
बिजली जिनके ऊपर गिरी थी
वो वहीं राख हो गए
और अब हवा की हल्की बयार भी उन्हें
बिखेरने के लिए पर्याप्त है ।
3.
एक औरत
करीने से संवारती है अपने लंबे बाल
सारे दर्द को पी
अधरों पर सजाए रखती है मुस्कान
दिखाती है खुद को थोड़ा बेपरवाह
वक्त के थपेड़ों को झेल कर भी
किसी के सामने नहीं भरती है आह
थामती है हाथ में कलम
और कागज पर जोड़ती है शब्दों की कड़ियाँ
शब्दों की कड़ियाँ स्पंदित होकर
बनने लगती है सरगम की ध्वनियाँ
सुर और साज का साथ पाते ही
चहुँ ओर फैलने लगती है ये ध्वनियाँ
कुछ लोगों को ये ध्वनियाँ लगती है बेहद कर्कश
उनके सिर में दर्द शुरू होता है
वो जोर से चिल्लाते हैं
और अपनी कानों को बंद कर लेते हैं
कुछ लोगों को लगता है जैसे
लागातर बज रही हो मंदिर में घण्टियाँ ।
4
एक औरत
मुक्त मन से
खुले हाथों से
सौपना चाहती है खजाने की चाबी
बिना किसी विभेद के
अपने हमउम्रों को
अपने से बाद आने वाली पीढ़ियों को
और अपने से ऊपर की पीढ़ियों के समक्ष
प्रदर्शित करना चाहती है अपनी व्यवहार कुशलता
दूसरों को दिखाना चाहती है
क्रांति , तर्क और दृढ़ता से निर्मित अपने चमचमाते गहने
औरत को नहीं है गहने खोने का कोई डर
और ना ही किसी दूसरी औरत के द्वारा
उन गहनों की डिजाइन नकल किये जाने से उत्पन्न पीड़ा ।
5
एक औरत
तोड़ने पर तुली है
हमारे समय में
व्हिस्की , वोदका , सिगरेट और सेक्स के बीच
रचे जाने वाले स्त्री विमर्श के तिलस्म को
यह औरत है हमारे समय की ही एक औरत
खुद के पैरों , हाथों और कंधों पर भरोसा करने वाली एक औरत
मीरा और महादेवी सी
पवित्र प्रेम में खुद को समर्पित की हुई एक औरत
घर – परिवार और उत्तरदायित्व के साथ – साथ
स्त्री अस्मिता के लिए संघर्षरत एक औरत
मौन – चंचलता , सुख – दुख , आंसू – हँसी
प्रेम – विरह को अभिव्यक्ति का
आकाश सौंपती हमारे समय की एक औरत ।
तुम्हारी तस्वीरें 
1.
तुम्हारी तस्वीरें जब भी देखता हूँ
मैं हृदय में महसूस करता हूँ
एक नादान भंवरे की उस आकुलता को
जो उसके हृदय में
शरद की भोर के साथ जूही की एक टटकी कली को देखकर होता है
मगर मेरी आकुलता केवल एक आकुलता ही बनकर रह जाती है
क्योँकि तुम मेरी नजरों में जूही की वह कली हो
जिसे खिलकर देवी के चरणों पर अर्पित होना है
इसलिए मैं तुम्हें छूने की कोशिश करने की भी सोच नहीं सकता
क्या पता शायद लाख सफाई के बाद भी
मेरे हाथों में वह पवित्रता नहीं आ पाए
जो तुम्हारी पवित्रता को खंडित होने से बचाये रखे ।
2.
सच कहूँ , यकीन करोगी
तुम्हारी तस्वीरों में मैं क्या देखता हूँ
” मैं तुम्हारी तस्वीरों में
एक वैसी पांडुलिपि देखता हूँ
जो अब तक अप्रकाशित है “
मैं उस पांडुलिपि को पढ़ता हूँ
और उसे संसोधित कर अपनी भाषा में अनुवादित करता हूँ
भले ही कल को जब यह एक किताब के रूप में प्रकाशित हो
और लोग इसे मेरी मौलिक कृति कह
मेरी सृजनशीलता को वाहवाही से नवाजे
पर उस समय भी मेरा अंतर्मन अगर किसी का शुक्रगुजार रहेगा
तो वह तुम ही हो
मेरी सृजनशीलता की ताकत
मेरी अंतहीन प्यास की तृप्ति की वैसी चाहत
जो शायद इस जन्म में मुकम्मल होने से रही ।
3.
तुम्हारी तस्वीरों को जब – जब देखता हूँ
मैं यहाँ कहाँ रह पाता हूँ
मैं पहुँच जाता हूँ कल्पना – प्यारी के उस गाँव में
जहाँ सर्वत्र बिखरी है छंद , मुक्त छंद और छंदमुक्तता कि छाँव
उस छाँव तले बैठ सुस्ताता हूँ
संदर्भों के घरौंदे बनाता हूँ
और उन घरौंदे पर चितेरे शब्दों की तूलिका से
अनुच्छेदों और परिच्छेदों की चित्रकारी करता हूँ
ताकि भविष्य में जब कभी भी
तुम मेरे साथ उस गाँव की सैर करने आओ
तो वहाँ एक घरौंदा मेरा भी हो
जिसके छाँव तले तुम बैठ सको
और मेरी चित्रकारी की प्रशंसा करते हुए मुझसे पूछ सको
की यह घरौंदा तुम किसके लिए सजाकर रखे हो अबतक
तो मैं बिना झिजक यह कह पाऊँ की
वादों – संवादों के संबंध से पड़े
अपने संबंधों की पड़ताल के लिए
मेरे उत्तर को सुन तुम मुस्कुराओ
और शायद पास पड़ी तूलिका को उठाकर
घरौंदे पर अपना नाम लिख कर
मेरी सदियों की प्रतीक्षा को सार्थक बना दो ।
4.
हजारों किलोमीटर दूर बैठी तुम
जब मुझे भेजती हो अपनी तस्वीर
तो तुम्हारी तस्वीर को देखकर
मेरा अन्तस् ठीक उसी प्रकार झंकृत हो उठता है
जिस प्रकार वीणा की तार
 सिद्धस्त अंगुलियों के स्पर्श से झंकृत हो उठती है
और मैं अपने अन्तस् के झंकार को
स्वर दे सरगम बनाने की कोशिश में जुट जाता हूँ ,
जब मैं अपनी कोशिशों से तुमको रु-ब-रु करवाता हूँ
और तुम कहती हो कि अपना सरगम मुझे सुनाओ
तो मैं डर जाता हूँ कि शायद मेरा अंतर्मन
तुम्हारे सामने दिगम्बर ना हो जाए
इसलिए मैं बहाने बना टालने की कोशिश करता हूँ
क्योँकि मैं तुमसे प्रेम करने
और अपने प्रेम को अभिव्यक्ति देने की अहर्ता
बरसों पहले जो खो चुका हूँ ।
कभी एक कविता लिखी थी मैंने
उसी कविता की यह पंक्ति है
” प्रेम नहीं प्रतिदान मांगता , प्रेम समर्पण है
उस प्रेम को क्या नाम दूँ जिसमें केवल तन का अर्पण है “
तुम्हारी तस्वीरें जब भी देखता हूँ
तो मैं उस पल का कर्जदार हो जाता हूँ
जिस पल में यह पंक्ति मेरी कलम के माध्यम से बाहर निकल
कागज पर छलक पड़ी थी ।
मैं एक वेश्या हूँ 
मैं आदिम मानव को भी 
 देख चुकी हूँ 
झेल भी चुकी हूँ 
भले ही उस समय 
भाषा अभिव्यक्ति नहीं बनी थी 
लेकिन शारीरिक जरूरतें तो थी ,
उस समय भले ही 
स्त्री प्रधान समाज था 
लेकिन आदिम नर उस समय भी 
षोडशी के रसपान को 
ठीक उसी तरह मचलता था 
जैसे आज का आधुनिक मानव ,
उस समय भी कुछ स्त्रियां असहाय थी 
जिससे अपने तन की प्यास 
कोई भी मर्द बुझा सकता था 
 
मैं सभ्यता को 
विकसित होते देख चुकी हूँ ,
आग और पहिये की क्रांति की तपिश 
और गतिशीलता को महसूस कर चुकी हूँ ,
मैंने महसूस की है 
मर्द के जिस्म की तपिश को सभ्यता के साथ 
विकसित होते हुए 
और खुद को सामाजिक पायदान में
नीचे खिसकते हुए ,
सभ्यता के विकास के क्रम में भी 
मैं केवल एक भोग्या थी 
और आज भी केवल एक भोग्या हूँ ,
अंतर केवल इतना भर है कि 
मैं उस समय अंधेरी गुफा के 
एक अंधेरे कोने में पड़ी रहती थी 
और आज बाहर से चमकते 
महलनुमा घरों के एक अंधेरे और 
सीलन भरे कमरे में पड़ी रहती हूँ ,
 
मैं कई बार अपने रूपों को 
बदलते देख चुकी हूं 
कभी नगरबधु 
कभी देवदासी ,
कभी रंडी – वेश्या 
कभी कॉल गर्ल 
के रूपों में खुद को ढलते देख चुकी हूँ  
मैं राजतंत्र की निरंकुशता को देखी हूँ ,
सिद्धार्थ को बुद्ध बनते तो देखी ही और
महावीर के अपरिग्रह को भी समझी 
मुगलों के हरम की यंत्रणा को सही ,
अंग्रेजों की परतंत्रता को भी झेली है ,
और वर्तमान के लोकतंत्र की भी साक्षी हूँ ,
 
वर्तमान का लोकतंत्र और संविधान 
जब बात करता है 
हरेक नागरिकों को समान अधिकार प्रदान करने की ,
तो मुझे लगता है 
यह बात महज एक छलावा है ,
क्योँकि मेरी राहों में 
तब भी दहकता लावा था 
और आज भी दहकता लावा है ,
मेरे लिए तथाकथित लोकतंत्र में 
ना कहीं इशारा है , ना कोई वादा है ,
मेरा दुख , तकलीफ और दर्द 
कभी मुद्दा नहीं बन पाया ,
और ना ही मुझे कानून ने अपनाया ,
क्योँकि मैं एक वेश्या हूँ 
इस सभ्य समाज के लिए एक कलंकिनी 
यह बात अलग है कि 
मेरे जिस्मों को नोचने और रौंदने वाला भी 
इसी सभ्य समाज का एक सभ्य मर्द ही होता है 
 
एक बात और याद रखना सभ्य मानवों 
मैं भले ही वेश्या हूँ 
लेकिन मैं नारी शक्ति की एक सशक्त प्रतिनिधि भी हूँ 
और मेरे घर की मिट्टी के बिना 
अरिमर्दन करने वाली 
माँ दुर्गा की प्रतिमा भी पूर्ण नहीं हो पाती ..।
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परिचय : डॉ. अभिषेक कुमार की लघुकथा और कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुका है
संपर्क : ग्राम +पोस्ट – सदानंदपुर
थाना – बलिया, जिला – बेगूसराय ( बिहार )

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