लघुकथा :: अभय भारती

 जरा सोचिए
साधो आज फिर पिट कर आया। बालो ने उसकी बुरी तरह पिटाई कर दी थी। एक-एक हड्डी तक चटका दी थी। नस-नस को तोड़ कर रख दिया था। गलती यह थी कि उसने मुखिया से बालो की   शिकायत कर दी थी। बस इसी से खफा होकर उसकी धुनाई कर दी थी।वह खाट पर पड़ा बुरी तरह तड़प रहा था। अंग-अंग ऐसे दुख रहा था,मानो कोई फोड़ा टीस मार रहा हो।
 वह खाट पर पड़ा कराह ही रहा था कि सामने रह रहे गिरधारी चाचा आ पहुंचे। आते ही वे बुरी तरह फट पड़े : —” तुझे कितनी बार समझाया था कि ऐसे बदमाश के मुँह मत लगा करो। उसके फेरे में मत पड़ो। मगर तुम तो किसी की कुछ सुनते ही नहीं। अब भुगतो मजा। तुमने बालो की शिकायत कर बेकार ही मुसीबत अपने सर ले ली।” कहते ही उसने नाक -मुँह सिकोड़ते साधो के चेहरे पर अपनी निगाह टिका दी।
फिर दम साधकर बोले : -” मैं तो कहता हूँ तुम इस सब झंझट में पड़ो ही नहीं। बस अपने काम से मतलब रखो।
क्या तुम नहीं जानते कि चिंगारी पर पांव रखने से पांव जल जाते हैं।”
बहुत देर तक चुप्पी साधे साधो गिरधारी चाचा की नसीहत सुनता रहा,जब सहन नहीं हुआ तो वह एकाएक भड़क उठा। लगभग चीखते हुए बोला : –” आप भी क्या बात करते हैं चाचाजी? अगर हर रास्ते पर काँटे बिछे हो। हर जगह चिंगारी जली हो तो क्या हम चलना बंद कर दें। घर में ही बंद रहें। कब तक ऐसा करते रहेंगे? जरा सोचिए!
सुनते ही गिरधारी चाचा की बोलती बंद हो गयी और फिर मुँह लटकाये उल्टे पाँव अपने घर लौट आये।
प्रेषक :- अभय कुमार भारती

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