लघुकथा :: शिखा तिवारी

*दरोगा*

“साहब हमार रपट लिख लो, हम गरीब बुढि़या एगो गाय पाल के आपन गुजर करती हैं।
अऊर उ महेसरा हमार जगह गाय सब कब्जा कर लेत है।”
“कहाँ से आई हो अम्मा! आओ पहले पानी पियो।”
अपने सूख चुके होंठ पर जीभ फिरा कर वृद्धा ने पानी पिया और बैठकर साँसें व्यवस्थित करने लगी।
“साहब ऊ जो महेसरा बईठा है चाय का गुमटी लगा के, उ हमार भतीजा है।”
“जाइए भाई कोई उस चाय वाले को बुलाइए।”
“साहब हमका फिर मारी हिंया न बुलाएं।”
वृद्धा कुछ सहम सी गयी।
“नहीं अम्मा हम यहाँ बैठे ही हैं कि किसी के साथ गलत न हो सके। आप आराम से वहाँ अपनी रपट लिखाएं।”
“सर महेश्वर तो भीतर ही नहीं आ रहा। कहता है अब कभी न परेशान करेगा अम्मा को।”
“बस बस सरकार इतनै चहिए था हमको।”
कहते हुए वृद्धा उठ खडी़ हुई।
“रुको अम्मा, तफ्सील से लिखवा दोगी तो कभी कोई परेशान नहीं करेगा। आओ मैं ही लिखता हूँ।”
वृद्धा उमड़ आए पानी को पोंछकर सर्किल आॅफि़सर के पास जाकर जो पूछा गया बताकर अंगूठा लगाने लगी।
“अब पूरे गाँव में कोई साहस न करेगा अम्मा तुम निश्चिन्त रहना।”
वृद्धा की आँख फिर भर आयी थी। भरे गले से उसने कहा।
“राम करें तू दरोगा बन जा बेटवा। जे देखा उहै हमार मालिक बनै चाहत है। तू तो दरोगा बनबा जल्दी।”
“अरे अम्मा ये  सी ओ साहब  हैं।”
किसी ने समझाया।
“जल्दिये दरोगा बाबू बन जा बेटवा।”
दुआ देते हुए वो बाहर निकल गयी।

*भय*

लाॅक डाउन के बाद वो अकेली पड़ गई थी।  यूँ तो सबके बाहर रहने पर वो रहती भी अकेली थी। मगर इस दौरान आने जाने की पाबन्दियों के चलते मात्र फो़न ही रास्ता रह गया था। जिससे सबके हाल ले सके।
बच्चे हर काॅल पर हिदायत देते रहते। और पति… पति की नौकरी ही सेवा कर्म की थी। जितनी हिदायत देते उससे कहीं उनको समझाना होता।
अब तो रोज़ की बातों में यही बातें मुख्य होतीं। कि
“ड्यूटी पर जाने से पहले मास्क लगा लेना”
“जो सैनेटाईज़र भेजा है पास में रखना।”
“क्या कहा? थाने पर आज आया? हुँह!  इतने दिन बाद… वो भी एक बोतल पूरे थाने के लिए?”
“आप ये सब मत सोचो, बस सावधान रहना।”
उधर से बस एक ही बात कही जा सकती मुश्किल से कि
“मेरा मन नहीं लग रहा है यार। अब रिटायरमेन्ट ले लूंगा।”
वो भी भावुक हो जाती।
“देखो बस कहते हो, मैं तो कहती हूँ चले आओ, दोनों मिलकर कमाएंगे। अब तो बच्चों की पढा़ई भी…।”
“अरे यार मैं मजाक कर रहा हूँ। एकदम फि़ट हूँ। लाॅक डाउन हटते ही आऊंगा। अच्छा निकलता हूँ। जै गजानन!”
“जै गजानन…”
इन बातों के अलावा कुछ रहा ही नहीं बात करने को।
फिर वो देर तक व्यस्त हो जाती सोशल नेटवर्किंग पर समाचार चैनलों पर। और बुरी तरह अवसादग्रस्त हो जाती।
घुटन से बचने के लिए वो शाम को निकली कुछ फल सब्जी पास की दुकान से लाने। बचते बचाते घर लौटी। अजीब सी कैफि़यत थी पूरे दिन की। उसे हरारत सा महसूस हुआ। मारे खौ़फ़ के उसने गर्म पानी गर्म चाय का सेवन शुरू कर दिया।
फोन पर मैसेज आया।
“माँ हमें विशेष सुविधा से घर पहुँचाया जा रहा है। रात तक आ जाएंगे।”
मैसेज देखकर उसका हलक सूख गया। गर्म पानी, गर्म चाय……। मतलब मैं संक्रमित हो गयी हूँ।
घबराहट में कुछ न सूझा। बच्चे आए तो वो भी संक्रमित हो जाएंगे। इसका उपाय गर्मी ही है।
उसने खुद को आग लगा ली।

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