लघुकथा :: संगीता चौरसिया

तपस्या

  • संगीता चौरसिया, खगड़िया

रविन्द्र पांच भाई बहनों में तीसरे नंबर पर था। उससे छोटी दो बहनें थीं जिसमें से एक की शादी उससे पहले हो गई थी। उपर के दो भाई बहन बाल बच्चेेदार थे। चूंकि रविन्द्र का मन पढ़ाई में नहीं लगता था जिसके कारण पिता ने उसे परचून की एक दुकान खोल दी। उधर बड़े भाई स्वास्थ विभाग में नौकरी कर रहे थे। अब पिताजी ने उसकी शादी के लिए लड़की देखना शुरू कर दिया लेकिन लड़की जंच नहीं रही थी। अंत में पिता की मौन सहमति पर उसने किसी को बताए बगैर अपनी पसंद की लड़की से शादी कर ली जो परिवार को नागवार गुजरा। काफी मान मनौव्वल के बाद ज़िन्दगी की गाड़ी पटरी पर लौटी। वक्त गुजरते गए पर जख्म भरने की बजाय और गहरे होते गए। आए दिन घर में कलह होने लगी। क्योंकि दस साल गुजर गए लेकिन रविन्द्र की कोई संतान नहीं हुई थी जिस कारण उसकी मां को अपने वंश को आगे बढ़ाने की चिंता खाए जा रही थी। उसने अपने तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी।दवाई-दारु, झाड़-फूंक, तंत्र-मंत, देवी- देवता सब करवा कर देख लिया पर कोई फ़ायदा नहीं। लोगों के ताने और दूसरी शादी के प्रस्ताव से परेशान होकर दोनों पति- पत्नी घर छोड़कर चले गए। वहीं मेहनत मजदूरी कर अपना पेट पालते और इलाज करवातें। उसकी तपस्या रंग लाई। शादी के 20 साल बाद उसकी पत्नी दो बच्चों की मां बनी। लेकिन नियति का खेल भी अजीब है कि इस खुशी में शरीक होने के लिए उसके माता पिता अब इस दुनिया में नहीं रहे ।

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