नीलिमा शर्मा की लघुकथाएं
अपना सुख
“पापा आपके घर क्या बर्तन नही थे जो माँ शादी में बर्तन फर्नीचर लेकर आई थी ‘
बेटे ने हाथ से अखबार लेते हुए गुप्ता जी से सवाल किया
“बेटे सब कुछ था घर में , लेकिन उन दिनों बेटी को विवाह में सब कुछ देने का रिवाज़ था
तो !! आप मना नही कर सकते थे क्या ? ”
“ बेटा हमारे ज़माने में सब कुछ माँ बाबा निर्धारित करते थे , हम तो झलक भर लड़की की देखते थे और
हाँ मम्मी आप देख लो कहकर अपनी मोहर लगा देते थे “
पापा ने बात को परिहास में बदलते हुए कहा
“लेकिन पापा हम अपने घर में ऐसा नही होने देंगे हम शिरीन के मायके से कुछ दहेज़ नही लेंगे “
“बिलकुल नही होने देंगे ऐसा हमारी बहू क्यों मायके से कुछ लाये ?
हमारी गलती तुम न दोहराना, तुम दोनों कमाना अपना घर बनाना ”
क्यों पापा आप लेकर दोगे ना हमें ”
“कार तो सगाई से पहले ही ले देना अपनी कार से जायेंगे “
“क्यों तुम्हारी सेविंग्स हैं अपने लिय कार खुद खरीद लो “
“ नही पापा!! अपनी सारी सेविंग से तो मैंने यूरोप का हनीमून पॅकेज ले लिया हैं , आप हमारे आने तक हमारा फ्लैट तैयार करा देना ,आखिर एकलौता बेटा हूँ आपका ..सब कुछ आपका मेरा ही तो हैं
नही बेटा , हमारे ज़माने में सब कुछ माँ बाप की मर्ज़ी का होता था अब सब कुछ बेटे की मर्ज़ी का होने लगा तो हम कहाँ जाए .हमारा तो कुछ हुआ ही नही ना………… मैं तुम्हारी शादी में तुम्हारी माँ को नया सामान गिफ्ट दूंगा उसने उम्र भर अपना मन मारा और अब तुम्हारा सिंपल विवाह करके मैं उसके मन की दबी इछाये पूरी करूंगा
तुम अपनी होने वाली पत्नी संग अपना फ्यूचर निश्चित करो और मैं अपनी पत्नी संग अपना भाविष्य ……………..
निर्भया अब दुर्गा
“ए भागवान! इधर आ के सुन ज़रा!” पति की ऊँची आवाज़ सुन बिमला दौड़ी हुयी आई।
“सुन तुझसे कितनी बार कहा है बिटिया को मोहल्ले के लड़कों के संग मत देखने दिया कर, तुझे समझ नही आती। “गुस्से से भरा अतर सिंह पत्नी पर फट पड़ा।
“अरे, तो कौन सा जवान मर्दों के संग खेल रही है? सब इसके साथ के ही तो है । तुम बेकार चिंता करे हो, सब बच्चे ही तो हैं नाबालिग हैं।” पत्नी ने निश्चिन्त भाव से समझाना चाहा।
“मोहल्ले के छोटे लडको संग भी ना खेलने दियो। ना जाने कौन ससुरा सुरसा-सा मुंह बना इनको खा जाए।”
“अरे समाज, पुलिस कानून भी कुछ है कि नही।” पत्नी ने हौसला देने का प्रयास कर कहा।
“अब तो कानून भी सजा नही देगा| बड़ी उम्र वाले तो फिर भी डरेंगे, सजा हो सकती है, समाज में बेईज्ज़ती होगी। लेकिन इन नाबालिग शैतानो को तो ना कानून खास सजा देगा, ना समाज पहचानेगा। कपड़ा मुँह पे बाँध कोर्ट ले जाएँगे; फेर तीन साल पीछे मशीन दे के किसी नुक्कड़ पे बिठा देंगे कि जा बेटा कपड़े सी….”
पिछले कई दिनों से समाचार की सुर्खियों में छाई खबर का भय अतरसिंह के स्वर से साफ़ झलक रहा था।
“अब से मैं किसी भी छोरी को घर से बाहर देख लिया तो तेरी खैर ना है।” बड़बड़ाते अतरसिंह ने टी वी बंद किया और चप्पल पहन घर के दरवाज़े की साँकल चढ़ा दी।
“हे भगवान! इनका ब्याह करा दे जल्दी। अपने घर को जावें, मेरे जी का जंजाल खतम हो।” बिमला ने बेचारगी से अपनी किशोर उम्र की तीनों छोरियों को देखा जिनके पंख उडने से पहले ही कतरे जा रहे थे। पति को डरा देख उसकी भी हिम्मत जबाव दे गई थी। तभी बड़ी बेटी बोली, “माँ , म्हारे को लठ्ठ चलाना आवे। और मन्ने और भी बहुत कुछ सीख रखा । ऐसे छोरों से तो आपै निपट लूँगी, कपाल फोड़ आऊँगी उसका।”
माँ ने बेटी का माथा चूम लिया।
फार्मूला कामयाब
गुप्ता जी अपने बजते फ़ोन को सब तरफ तलाश रहे थे तकिये के नीचे बजते फ़ोन को उठाकर देखा तो समधियाने का नम्बर था |
जी आदेश जी आदेश कीजिये ”
जी ,जी ”
“इस वक़्त विमुद्रीकरण के समय में ” माथे पर पसीने की बूँदे चुहचुहा उठी
“जी आजाइए , चाय एक साथ पीयेंगे ”
गुप्ता जी की बात सुनकर बेटा बहु पत्नी सब वही आगये , वैशाली भी मिताली संग वहां आ पहुंची |
” आखिर क्या कहा आदेश जी ने ??जो आप इतना घबरा रहे हैं ” पत्नी ने पानी का गिलास पकडाते हुए सवाल किया
“आदेश ने कहा हैं एक मांग और हैं उनकी , जिस पर वो सामने बैठ कर बात करेंगे ”
“अब कोई मांग कैसे पूरी करेंगे , हाथ में पैसा नही हैं कहते हुए पत्नी की गला रुंध गया सबके मन आशंकित हो उठे
सबके चेहरे पर उदासी की लकीरे छाई थी | एक माह बाद वैशाली की शादी थी गुप्ता जी परेशान थे कहाँ से लाये पैसा ? विमुद्रीकरण की वज़ह से अब ना बैंक से पैसा निकाला जा सकता जा सकता था ना घर में रखे पैसो को बैंक में बदला जा सकता हैं | बड़े पेमेंट तो चेक से कर देंगे लेकिन फुटकर भुगतानों के लिए कैश की जरुरत थी |
थोड़ी ही देर में आदेश गर्ग अपनी पत्नी और दोनों बेटो संग उनके ड्राइंग रूम में चाय पी रहे थे |
“गुप्ता जी शादी को सिर्फ एक माह बचा हैं लेकिन हमारे बेटो ने हमारे सामने एक ऐसी मांग रख दी जिसे सिर्फ और सिर्फ आप पूरी कर सकते हैं … विवाह से पहले ही आप उसे पूरी कर दीजिये ” आदेश जी ने धीमे लेकिन मधुर स्वर से अपनी बात कही
“आदेश भाई साहेब इस वक़्त !! आपकी हर मांग सर माथे पर रख लेता लेकिन आप जानते ही हैं सरकार ने नोट बंद कर दिए ……………….”गुप्ता जी ने हाथ जोड़कर कहा
“वो सब हम नही जानते ना मानते …आप मांग पूरी करने का वादा करे पहले ”
तभी वैशाली का भाई बोल उठा ….
“चाचा जी यह तो सरासर गलत हैं आप हमारी परिस्तिथियों को जाने बिना कैसे कोई मांग रख सकते हैं …जबकि रिश्ते से पहले आपने कहा था आप अपनी बेटी की ख़ुशी के लिय जो करना चाहे कीजिये हम अपनी तरफ से सब कुछ कर रहे हैं ”
” हाँ तो कीजिये ना अब की बार मेरे बेटे की ख़ुशी के लिए कर दीजिये आप इस मांग को पूरा कीजिये और हाँ वादा हैं मेरा कि वुस मांग को मान लेने की बाद विवाह सिर्फ नजदीकी लोगो की मौजूदगी में होगा साधारण खर्च के साथ …”
सबके चेहरे उतर गये थे , वैशाली की आँखों में आँसू लबालब भर गये थे
यह सब खर्च कम करा कर ना जाने क्या मांग करना चाहते हैं उनके समधी ….
सबकी नजरे आदेश जी की तरफ थी
“लेकिन इस बार मेरे बड़े बेटे नही छोटे बेटे की मांग पूरी कीजिये .उसे अपनी छोटी बेटी की माँग भरने का अधिकार दे दीजिये …….तिरछी मुस्कान के साथ आदेश की पत्नी बोली ”
एक पल को गुप्ता परिवार समझ नही पाया और जब समझ पाए तो सबकी आँखों में ख़ुशी के आंसू थे | मिताली के फ़ोन पर एक वत्स अप्प सन्देश उभरा …………
मीतु अब तुम मेरी हो आज से अभी से
मौद्रिक संकट से बाहर आने का फार्मूला कामयाब रहा तुम्हारा
फिक्र
“मरजानी!!! खसमा नु खानी !!!
किथ्थे गयी सी !!”
माँ ने चिल्लाते हुए उसकी चोटी पकड़ ली थी और पीठ पर जोर से एक चपत लगाई
“बेबे !! ओ निक्की घरे गयी सी !!” नोट्स लेन दस के तान गयी सी काके नु ”
” काके तू दास्या नि बीबी नु ”
पीठ पर पड़े जोरदार प्रहार से मिन्नी बिलबिला उठी और बेबस होकर बाल छुद्वाती हुयी माँ और काके की तरफ देखने लगी
” कदों दस के गयी सी !! तू तान उस मोटरसाइकिल आले नाल गप्पा मारदी सी जदों मैं तेरे कोलो मैग्गी मंगी सी ”
काके ने गोल गोल आँखे करके जवाब दिया
“मैं कद्दो गप्पा मारियाँ . झूठ न बोल उनने तान सरदार मिल्खा सिंह का घर पुचेया सी मैं दस दित्ता बस ” .
“तू क्यों दसस्या??मेनू कहन्दी मैं दस देनदा ” काके ने माँ की तरफ देखते हुए कहा
“चुन्नी पाके तेरो कोलो बार नि निकला जांदा ………ते वीर नु कहन्दी ओह गल करदा ..आज तो बाद जे तू किसे निक्की /मिक्की दे घरे गयी बिना वीर दे ते मैं तेन्नु इससे जमीन इच दब देना .पियो तेरा बार रहंदा .कल्ली मैं किवे सँभा तेन्नु !! माँ ने उसे कमरे की तरफ धकेलते हुए कहा
“एक सादा ज़माना सी कल्ले पन्ज पिन्दा दी गेड़ी मार लेनदे सी …….किसे दी की मजाल जो कुछ कह वी देवे
रुआंसी सी माँ ने नीचे बैठ कर सामने राखी अखबार को चूल्हे में लगा दिया जिसपर मोहन गंज में हुए बलात्कार की नंगी तस्वीरे छपी थी .उत्तर प्रदेश हो या बिहार या पंजाब ……………..सबको अपनी बेटियों की फ़िक्र होने लगी…
एक्सपर्ट
”आज फिर से वही आलू मटर।”
“बोर हो गया मैं ऐसी सब्जियों से…..कभी पिज़्जा बनाया आपने, कभी पास्ता भी बनाओ, शर्म आती है सब बच्चों के सामने अपना लंच बॉक्स खोलते। जब देखो परांठे और सब्जी।
भुनभुना कर जूते पहनते शाश्वत ने एक हाथ से लंच बॉक्स को सरका दिया
“शामक की माँ तो उसे हमेशा नयी-नयी सब्जियाँ बना के देती है। रोजाना उसका लंच बॉक्स नए व्यंजन से भरा होता है। ”
“जाओ, आज मैं स्कूल नहीं ले जाऊँगा कुछ भी ,मुझे २०रुपए दो कैंटीन से कुछ खा लूंगा।”
शाश्वत की ऐसी बेरुखी/तल्खी तोड़ गई सुधा को भीतर तलक।
आखिर माँ है न। गृहशोभा से देखकर उसने जैसे-तै से पास्ता बनाया लंच के लिए और जबस्कूल से थके बेटे के सामने परोसा तो उसकी चमकती आँखें देख कर मन बाग-बाग हो उठा –
””बेटा आज रिपोर्ट कार्ड मिला होगा दिखाओ तो।”
बेटे का अच्छा मूड़ देखकर सुधा ने कहा
””लो माँ पर अब शुरू मत हो जाना कि बाकि बच्चों के नंबर कितने आए, अब मैं मैं हूँ। किसी से मेरी तुलना न किया करो। हर कोई पढ़ाई में एक्सपर्ट थोड़े ही होता है।”
सुधा अवाक् थी। पर मन कह रहा था- ””बेटा हर माँ भी तो हर तरह के खाने बनाने में एक्सपर्ट नहीं होती।”
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परिचय: कई पत्र-पत्रिकाओं में लघुकथा, कहानियां एवं कविताएं प्रकाशित,
सांझा लघुकथा-संग्रह मुट्ठी भर अक्षर का संपादन
बहुत अच्छी और प्रेरक संदेश लिये हुए भी !
बढ़िया। शुभकामनाएं।
स्तरीय रचनाएँ पढ़ने को मिली। बेहतरीन वेब पत्रिका ।
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