लघुकथाएं :: सुरेखा कादियान ‘सृजना’

सुरेखा कादियान ‘सृजना’ की दो लघुकथाएं

सृजना

“राज आँटी एक चाय ले के आना” वैष्णवी ने स्टाफ रूम में आते ही चाय के लिए बोला और थकी सी सर पकड़कर बैठ गई।

“अरे वैष्णवी जी ऐसे सारा दिन बच्चों को पढ़ाने में लगी रहेंगी तो सर ही दुखेगा। कम से कम अपने फ्री पीरियड्स में तो आराम से बैठ जाया कीजिये। सुबह से क्लासेज में हैं आप। इन नालायक बच्चों ने तो जितना पढ़ना है उतना ही पढ़ेंगे, जाने आप क्यूँ नहीं समझती। अरे अपनी तबियत का भी ध्यान रखना चाहिए। मूर्खता ही है आपकी ये।” मिसेज शर्मा बोले ही जा रही थी।

“क्या सच में मैं मूर्खता कर रही हूँ..  आज तो सच में ऐसा ही लग रहा था मुझे। एक हफ्ते से एक ही टॉपिक को लेकर बैठी हूँ लेकिन जाने बच्चे करते क्या रहते हैं.. सब के सब का पता नहीं कहाँ ध्यान रहता है। कुछ याद नहीं। और एक – आध तो उल्टा जवाब देने को तैयार बैठे रहते हैं। शायद इन सबसे भावनात्मक रूप से जुड़ जाना और इनकी हर बात का ध्यान रखना मेरी ही गलती है। मुझे ही खुद को बदलने की जरूरत है” इसी उधेड़बुन में थी कि अचानक मोबाइल की घंटी बज उठी।

सुमन का फ़ोन था। सुमन जो 5 साल पहले बाहरवीं कक्षा में मेरे ही पास पढती थी। अभी कुछ दिन पहले ही उसकी शादी हुई थी। अपनी शादी का कार्ड भी स्कूल आकर मुझे देकर गयी थी और बहुत बार कहा था कि मैम आप जरूर आना। पर किसी कारणवश जा नहीं पाई थी। फ़ोन उठाते ही उसकी प्यारी सी आवाज़ आयी ” हैलो मैम, आप कैसी हैं?”

“मैं अच्छी हूँ। तुम बताओ कि तुम कैसी हो? ” मैंने पूछा।

थोड़ी इधर उधर की बातें हुई और फिर आदत से मजबूर मैंने पूछ ही लिया कि क्या वो खुश है? उसके पति उसका ध्यान तो रखते हैं ना?

” हाँ मैम.. वो बहुत अच्छे हैं। मेरा बहुत ख्याल रखते हैं। पर  एक बात कहूँ मैम आप जितना ख्याल नहीं रख पाते।”

फ़ोन कट चुका था लेकिन इस एक वाक्य ने जैसे मेरे सारे संशय दूर कर दिए थे। इस से बढ़कर एक अध्यापक को क्या खुशी मिल सकती है कि उसके प्यार और स्नेह को आज भी बच्चे अपने मन में सँजोये हुए हैं। हाँ, मैं गलत नहीं हूँ..  मेरे आराम से ज्यादा इन बच्चों को मेरे वक़्त की जरूरत है।

राज आंटी चाय लेकर आ चुकी थी। मन की थकान तो दूर हो ही चुकी थी और चाय की चुस्की के साथ तन की थकान भी दूर हो रही थी।

 

घर बनाने वाली लड़की का घर!

अजय, माँ की तबीयत कुछ दिनों से ठीक नहीं है। कल भैया का फोन आया था। मेरी कल ऑफिस की छुट्टी है, क्या मैं कल जाकर माँ से मिल आऊँ? उन्हें भी अच्छा लगेगा और मुझे भी तसल्ली हो जाएगी।”  मैंने अजय का लंच बॉक्स उनको पकड़ाते हुये पूछा।

“देखते हैं, पापा से पूछ के बताता हूँ।”

थोड़ी देर के बाद ही मुझे ससुर जी की जोर-जोर से बोलने की आवाज़ आयी। “ये कोई मतलब बनता है क्या कि छुट्टी है ऑफिस की तो अपने घर जाना है। अरे माँ आज बीमार है, कल ठीक हो जाएगी। इस उम्र में तो बीमारी लगी ही रहती हैं, तो क्या रोज़ रोज़ ये उनसे मिलने को जाएगी। बोल दे सुधा को कि अब उस घर का या उस घर के लोगों का मोह छोड़ दे। अब यही उसका घर है। कहीं नहीं जाना उसने, बस।”

आँखों में आये आँसुओं को पोंछते हुए सास-ससुर को चाय-नाश्ता देकर ऑफिस के लिये निकल गयी। मन बहुत बैचेन था सो फोन पर ही माँ से बातचीत करके उनकी तबियत के बारे में पूछ लिया। बिना अनुमति जा भी तो नहीं सकती थी, नहीं तो घर में जो कोहराम मचता, उसमें कई दिनों तक मुझे ही घुटना पड़ता।

ऑफिस की छुट्टी के बाद जैसे ही घर जाने लगी कि मिसेज दीक्षित ने याद दिलाया कि आज ऑफिस के बुजुर्ग क्लर्क शर्मा जी के नवजात पोते के लिए शगुन के कपड़े खरीदने बाज़ार जाना है हम दोनों को। ना चाहते हुए भी बाज़ार जाना ही पड़ा। घर बताकर नहीं आयी थी इसलिए अजय को फोन करके बोल दिया कि पापा को बता दें कि मैं थोड़ा लेट हो जाऊँगी घर पहुँचने में। ना चाहते हुए भी बाजार में दो घण्टे लग गए।  भागती हुई घर पहुँची क्यूँकि सास-ससुर को शाम सात बजे तक खाना मिल जाना चाहिए, नहीं तो उनका गुस्सा सातवें आसमान पर हो जाता है और सात तो बज ही चुके थे।

घर जाते ही बस पानी पीकर खाना बनाने में लग गयी। कमरे में से ससुर जी की आवाज़ शायद मुझे सुनाने को ही इतनी तेज हो रखी थी। बेहद गुस्से में अजय से कह रहे थे कि “बोल दे अपनी बीवी को कि हमारे घर में हमारे हिसाब से रहना पड़ेगा ये फालतू की मटरगश्ती हमें बिल्कुल पसंद नहीं। घर की सुध-बुध छोड़कर बाज़ार में घूमा जा रहा है। ऐसे ही आवारागर्दी करनी है इसको तो अपना सामान बाँधे और हमारे घर से चली जाये। बिठा आ इसको इसके शहर जाने वाली बस में। चली जाए अपने घर।”

कुकर की सीटी के साथ ही मेरे दिमाग में भी जैसे हथौड़े पड़ रहे थे। सुबह जो मेरा घर बताया जा रहा था ताकि मैं अपनी बीमार माँ को देखने भी ना जाउँ, अब वही घर मेरा नहीं था। अब मेरा घर वह हो गया था जहाँ जाने की भी अब मुझे इजाजत लेनी पड़ती है। पर सच तो ये है कि शादी होते ही लड़की का कोई घर नहीं रह जाता। ससुराल में भी डरी-सहमी अजनबी की तरह रहना पड़ता है और वह मायका जहाँ ज़िंदगी जीना सीखा, जहाँ की दीवारें भी सहेली सी बतियाती हैं, वहाँ भी मेहमान बनकर रह जाती हैं। काश कोई तो ऐसी जगह होती जहाँ उनकी जड़ें मजबूत होकर फैल पाती और वह यूँ बार बार उखड़ जाने को बाध्य न होती। हर मकान को घर बनाने वाली लड़की का भी कोई तो घर होता।

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परिचय : लेखिका सुरेखा कादियान सृजना की कई लघुकथाएं और कहानियां प्रकाशित हो चुकी है. पत्र-पत्रिकाओं में ये निरंतर लिखती रहती हैं.

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