गीत ने
समय ने मुझको
जहां जब भी सताया
गीत ने मुझको वहां
तब-तब बचाया !
लड़खड़ाया तो लिया
धर हाथ हौले
ले गया कुछ दूर
अपनी बांह खोले
झाड़ दी फिर धूल-सी
बैठी उदासी
और फिर इक गीत का
मुखड़ा सुझाया !
हुआ गिरने को
तो फिर इसने संभाला
किया अंधियारे में
दीपक-सा उजाला
टूट कर बिखरा नहीं
दुख के क्षणों में
बिखरने को जब हुआ
इसने सजाया !
दिया झोली भर
न जब कुछ पास में था
छत्र-चामर से सजाया
जब कि रंक-लिबास में था
भर गए डब-डब नयन
जब भी दरद से
होंठ पर तब हास है
इसने उगाया !
प्राण की अंत:नदी
नीरवंती
ओ हमारे
प्राण की अंत:नदी
तुम सतत बहती रहो !
और भर लो नीर थोड़ा
और हो जाओ तरल
और उर्वरता भरो
विश्वास को दो फूल-फल
सींच दो अब
इस निठुर प्रस्तर-समय का
शुष्क मन
और, उसमें नव तरल
संवेदना भरती रहो !
इस समय की
झेलनी ही है
हमें यह यातना
किंतु तुम जब साथ हो
तो क्या हमें कुछ व्यापना
धार ही लेंगे तुम्हारे
हर दिए नव शिल्प को
तुम सघन उद्यान की
छाया सुखद जड़ती रहो !
मुखर हो जाए अबोली
अब हमारी वेदना
टेर अपनी वंशियों की
इस तरह तुम टेरना
सृष्टि के अंतिम सिरा तक
हो तुम्हारा शुभ गमन
जो किसी ने है नहीं
अब तक कहा
कहती रहो !
पुष्पारण्य हुआ हूं
ऐसा कुछ भी हुआ नहीं कि
मैँ कुछ अन्य हुआ हूं
यह जो बही हवा वासंती
कुछ चैतन्य हुआ हूं
इतने दिन बेसुध ही था
थी भरी शून्यता भारी
संवेदन के बंद सभी थे द्वार
खिड़कियां सारी
ऐसे में जाने कैसे
दिख गई सुबह की लाली
शायद रोशनदानों की
कुछ खुली हुई थी जाली
लहालोट होती किरणों संग
मैँ भी अन्य हुआ हूं
ये जो खड़े हुए रोएं
पूरहरी हुई है थोड़ी
घर में ही आ उतरी है
इक गोरैये की जोड़ी
पंख खोल ये फुदक रहे
ऐसे अपने पांवों से
पांव-पांव पैदल जैसे
यादें आई गांवों से
खिली-खिली यादों का
मैं भी पुष्पारण्य हुआ हूं
नवगीत की पंक्तियां
धूप में
निकली हुईं ये लड़कियां
हैं गझिन विश्वास की
आकृतियां !
उड़ रहीं ये
पंखवाली
जलपरी-सी हैं
फूटती-सी
रोशनी की
निर्झरी-सी हैं
हिल रहीं हैं
हवा में
नव पंखियां !
बुन रही हैं
मोरपंखी
स्वप्न की जाली
उग रही हैं
चेहरे पर
सुबह की लाली
लग रहीं
नवगीत की
हैं पंक्तियां !
तिर रही हैं
हवाओं ने
तोड़ सब अनुबंध
ये नदी हैं
है नहीं इनका कहीं तटबंध
टूट कर
कब की गिरी हैं
लोहे की सब बेड़ियां
छोटी-सी लत्तर
लिए ध्वज धरा का
यह छोटी-सी लत्तर
चढ़ी जा रही है
गगन पर
मगन से !
उलझते-सुलझते
उनगते-सुलगते
लड़ी जा रही है
समय के
तपन से !
रुकेगी नहीं ये
हरित ज्योति-रेखा
अचरज से मैंने
इसे रोज देखा
देखा है कैसे उगी है
अमन से !
ये फूलों नहाकर
फूलों से लदेगी
किसी की नजर भी न
इस पर लगेगी
काली इक हांडी रखी है
जतन से !
समय के संदर्भ को
फिर तुम्हें होकर मुखर
बहना पड़ेगा
जो नहीं अब तक कहा
कहना पड़ेगा !
अब नहीं बंध कर
अधिक है कसमसाना
है तुम्हें इस पार के भी
पार जाना
खोल दो नव पंख
ज्योतित कल्पना के
शून्य मन के भाव को
भरना पड़ेगा !
छोड़ दो, ओढ़ो न अब
ऐसी उदासी
देख किरणों ने बनायी
अल्पना-सी
रंग भर इसमें तुम्हें
उगना पड़ेगा !
डाल कांधे पर चलो
इक पूर्ण घट को
उतर, जी लो रस्सियों पर
एक नट को
समय के संदर्भ को
गहना पड़ेगा !
मुस्कान ओढ़ लेते हैं
चलो अब इक नयी मुस्कान
खुद पर ओढ़ लेते हैं !
यहां खिलने लगा
देखो कमल
पत्थर हुए थल में
गई जल-कुंभियां
जाने कहां
किस ओर किस तल में
चलो
इस दृश्य को
अपने समय से
जोड़ लेते हैं !
चलो
देखो समय ने
आज कैसा रंग बदला है
वहां कुछ इंद्रधनु-सा
उस क्षितिज के पार
निकला है
चलो इस रंग में
खुद को कि अब हम
बोर लेते हैँ !
चलो अब संग में उनके
यहां से
वहां तक निकलें
भले इसके लिए अब टूट कर
संयम गिरे फिसले
चलो आदम ने जो खाया
वही फल
तोड़ लेते हैं
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परिचय : कवि व गीतकार
संपर्क : गीतांबरा, शहबाजपुर, दुर्गा स्थान
उमानगर, मुजफ्फरपुर, बिहार
मो . 9572103918