कोरोना काल में बेबसी की कविताएं ‘दुनिया भेलई उदास’
- सुधांशु चक्रवर्ती
- दुनिया की कोई भी भाषा पिंजरे में क़ैद नहीं होती।प्रेम-मुहब्बत,दु:ख-दर्द, भूख, सुरक्षा, सम्मान आदि की भावनाओं एक-दूसरे के बीच अभिव्यक्त करने का माध्यम भाषा ही है। बिहार की लोकभाषा बज्जिका जनतंत्र की भूमि की भाषा है जिसमें देश के चर्चित साहित्यकार ज्वाला सांध्यपुष्प द्वारा कोरोना काल में लिखी गई छांदस कविताएं प्रकाशित की गई हैं।
इस संकलन में देश-विदेश के ५४ बज्जिका कवियों की कोरोना आधारित कविताओं में घर-परिवार,देश-समाज,धर्म-कर्म,बात-व्यवहार,धन-दौलत,मानव-दुर्दशा, पर्यावरण और मनुष्य के बीच परिस्थितिजन्य आपसी संबंधों की रचनाएं बहुत आकर्षित करती हैं। देखें कवि रामानंद सिंह को:
” मुंबई गेलई पिआ कमाए
इ लउटिए अल ई हे ननदी।
लौकडाउन में बइठले रहई
कमए॒बो न कलई से ननदी।”
तो डॉ. मुरलीधर श्रीवास्तव की कविता भी बहुत दर्द समेटे हुई है:
” घर में कैद मनुस बेबस जी रहल हए।
पी गम के लोर कस्ट में जी रहल हए। ”
बज्जिका में ग़ज़ल भी खूब प्रचलन में है।सुख्यात शायरा डा भावना के अश्आर पर नज़र दौड़ाएं:
“जिनगी बचा रहल हती लौकडाउन में।
अब उनमुना रहल हती लौकडाउन में।
ई धरतिओ के हम महातम कहां बुझली
अब कसमसा रहल हती लौकडाउन में।”
ई संकलन में दोहा,चौपाई, कुंडलियां, पिरामिड,मुकरी,घनाक्षरी ,अनुष्टुप आदि छंद का प्रयोग हुआ है तो नवगीत भी संकलित हैं। प्रसिद्ध कवि भागवत शरण अनिमेष की मुकरी देखें:
” कांप रहल थरथर वीर बंका
एक्कर डर के बाजे डंका
काम न आएत जादू-टोना
बम परमाणु?न,न कोरोना।”
पूर्णियां के डा रामनरेश भक्त की कविता भी लाज़वाब है:
“न कनहुं जाऊ न अब केकरो बोओलाऊ
कोरोना से प्रियवर!अब जान बचाऊ।”
तो दिल्ली के कवि रणजीत नारायण मिश्रा की कुंडलिया भी दर्शनीय है:
“सैनटाइजर पास रख,जब कतहुं तू जइहे।
दूरी दू गए सर्वदा,हाथ मटिआकऽ खइहे।
हाथ मटिआकऽ किसे,रख पास मुंह-झप्पन।झंपले रहे हरदम,नाक-मुंहों तू अप्पन।
कहे मिसिर कविराय, वैक्सिंन बहुत जरूरी।
मानुस-देह-परान,एक्कर हलुआ-पूरी।’
इसी तरह का रूद्र प्रसाद सिंह की भी कविताओं में मिलती है:
“भात के थरिआ अलगे से
लगल ठेले मेहरारू
दूर से कइसे अब ओक्कर
झोंटा केन्ना उखारूं—
ई कोरोना के मारऽ झारू।”
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पुस्तक समीक्षा:
‘दुनिया भेलई उदास’
सं.- ज्वाला सांध्यपुष्प
समीक्षक: सुधांशु चक्रवर्ती
पृ. ९६
मूल्य–२००/-
प्रकाशक: समीक्षा प्रकाशन, दिल्ली