आग की छाती पर पैर रखकर
– शहंशाह आलम
रंजीता सिंह ‘फ़लक’ की कविताओं का संग्रह ‘प्रेम में पड़े रहना’ ऐसे वक़्त में छपकर आया है, जब दुनिया भर में स्त्रियों के लिए एक अलग तरह का माहौल बनाया जा रहा है। यह माहौल स्त्रियों के पक्ष में अब भी पूरी तरह से नहीं कहा जा सकता। ज़ाहिर है, जब दुनिया भर की स्त्रियां अपने हक की लड़ाई लड़ रही हैं ,तो चूँकि रंजीता सिंह ‘फ़लक’ ख़ुद एक स्त्री हैं, सो ऐसे किसी भी सामाजिक आसमानता के विरुद्ध इनकी मुट्ठियाँ तननी लाज़िम है, ‘बहुत ज़रूरी है / ढेर सारा साहस / तब / जब हम हों नज़रबंद / या हमें रखा गया हो युद्धबंदी की तरह / आकाओं के रहम पर / बहुत ज़रूरी है थोड़ा साहस / कि कर सकें जयघोष / फाड़ सकें अपना गला / और चिल्ला सकें / इतने ज़ोर से / कि फटने लेग धरती का सीना / और तड़क उठें / हमारे दुश्मनों के माथे की नसें (पृष्ठ : 38-39)।’
आज भी जब सत्ता अनुचित बात को भी बलपूर्वक उचित सिद्ध करने के प्रयास सीनाज़ोरी से, ज़ोर-ज़ुल्म से, अत्याचार से कर रहा है। रंजीता सिंह ‘फ़लक’ ऐसी हर साज़िशी कोशिश की मुख़ालफ़त करती हुई दिखाई देती हैं। इस मुख़ालफ़त का अर्थ बस इतना नहीं निकाला जाना चाहिए कि यह एक स्त्री की मुख़ालफ़त भर है और इस मुख़ालफ़त का कोई मतलब नहीं है। मतलब है, तभी रंजीता सिंह ‘फ़लक’ के पास इसका भी माकूल, मुनासिब, उचित जवाब है..
‘वे लोग / जो हमें बताएँगे / कि आप नाप सकते हैं आसमान / जो / हमें
पतंग की शक्ल देंगे / खुला आसमान / जो हमें बचाएँगे / किसी भी घात से / जो / हमें सिखाएँगे / रेस में जीतने के हुनर / पर तभी / जब हम में से कोई भी स्त्री / गूँथे जाने के बावजूद / नहीं ढल पाती / उनके साँचे में / या फिर आसमान में / अचानक बदल देती है / अपनी उड़ान की दिशा / वे / वही लोग हैं / जो सबसे ज़्यादा / तिलमिलाते हैं / बौखलाते हैं / और त्योरियाँ चढ़ाते हैं (पृष्ठ : 118-119)।।
एक स्त्री की दुनिया ऐसी ही होती है। अगर वह बंदिश को, प्रतिबंध को, पाबंदी को मान रही है, तो उसके हिस्से में सबकुछ बढ़िया चलता रहता है। वह उस बंदिश, उस प्रतिबंध, उस पाबंदी से जैसे ही मुक्ति चाहती है, वह शत्रु हो जाती है। इस कवयित्री का ग़ुस्सा इसी भेदभाव को लेकर है।
वरिष्ठ कवयित्री “अनामिका” इस संग्रह की कविताओं और रंजीता सिंह .फलक के व्यक्तित्व से अभिभूत सी स्नेह शब्द देती हैं ..
“मेरा मानना यही है कि जो स्त्री प्रेम करना जानती है, वही विद्रोह भी करना जानती है। रंजीता सिंह ‘फ़लक’ की कविता में आने वाली शब्दयोजना यही करती है। रंजीता सिंह ‘फ़लक’ चूँकि अपने पिता से, अपने भाई से, अपने शुभेच्छु से प्रेम में पड़े रहने वाली कवयित्री हैं। छोड़ीं और भुलाई गईं बहनों, बेटियों, प्रेमिकाओं से प्रेम में पड़े रहने वाली कवयित्री हैं, सो इनको यह बात अच्छी तरह से मालूम है कि एक स्त्री के जीवन में प्रेम है, तभी विद्रोह भी है।”
यह विद्रोह किससे है, क्या प्रेम से है, नहीं, यह विद्रोह प्रेम के शत्रुओं से है। एक स्त्री के जीवन में प्रेम है, तभी न ‘आग की छाती पर पैर रखकर’ वह कैसे-कैसे कठिन रास्तों पर भयमुक्त, निडर, निर्भीक चलती चली जाती है,
‘लिखा जा रहा है / बहुत कुछ / पर / मैं लिखती रहूँगी सिर्फ़ / प्रेम / क्योंकि / मुझे पता है / दुनिया के सारे विमर्श / प्रेम से ही उपजते हैं / और / एक ख़ूबसूरत दुनिया को / बचाए रखने के लिए / बहुत ज़रूरी है / हमारा / प्रेम में पड़े रहना (पृष्ठ : 29)।’
“लीलाधर जगूड़ी “ने इन कविताओं के बारे में सही लिखा है कि, ‘रंजीता कविता में अपने अनुभवों की जिन कहानियों को कहना चाहती हैं, दरअसल, वे किसी भी फ़ॉर्म (रूप) में आपबीती भी, जगबीती भी बन जाती हैं।’
ये कविताएँ हमारी उन तवील रातों की कविताएँ हैं, जिन रातों के आसमान को एक स्त्री कवि रूमानियत की पतंग सौंपता है। पतंग प्रेम और सौंदर्य के प्रति भावुक्तामय आकर्षण भी पैदा करती रही है। रंजीता सिंह ‘फ़लक’ की प्रेम कविताएँ ख़ुद को पढ़े जाते वक़्त आपको रूमानियत की जिस रूहानियत से भर देती हैं, यह वही रूहानियत है, जिसमें पड़कर आदमी एक ऐसी यात्रा पर निकलना चाहता है, जिस यात्रा की सुबहें आपको सुकून वाले हर्फ़ देती हैं और रातें चाँद की रोशनी में नहालाकर ज़माने से मिले आपके ज़ख़्मों को ठीक कर देती हैं,
‘मुझे लगा था / कि चाँद ज़मीन पर नहीं आता / सितारे ज़ुल्फ़ों में टाँके नहीं जाते / रात का तिलिस्म नहीं होता / सपने जादू नहीं जगाते / बादलों के पार से / कोई चलकर नहीं आता / मन के आँगन में / गुलमोहर नहीं गिरते / मुझे लगा था / कि प्रेम की दुनिया / बस, किताबों और / ख़्वाबों तक ही होती है / पर अब जाकर / मैंने जाना है कि / किताबों का प्रेम / महज़ एक फ़लसफ़ा नहीं (पृष्ठ : 75)।’
‘प्रेम में पड़े रहना’ संग्रह में बहुलता प्रेम कविताओं की है। “दिविक रमेश “लिखते हैं, ‘यहाँ टूट-टूटकर प्रेम है और टूटता हुआ प्रेम भी है। प्रेम का विश्वास भी है, प्रेम के विश्वास के विचलन के प्रति उलाहना भी।’ उलाहना आपकी दुनिया को ख़ूबसूरत बनाता है। विचलन आपको अंदर तक तोड़ता है। ग़ौर कीजिए, तो यह एक ऐसा समय है, जो आपको विचलन से भर देना चाहता है। इसमें दोष न इस स्त्री कवि के समय का है, न इनके प्रेम में किए गए उलाहने का है और न इनके प्रेम का है। दोष सीधे-सीधे उसका है, जो हमारे प्रेम करने के समय में घुसकर हमारे सपने को मार डालता है। मारना एक ख़तरनाक प्रक्रिया है, जो अन्ततोगत्वा हमको विद्रोह करने के लिए विवश कर देती है।
रंजीता सिंह ‘फ़लक’ तभी स्पष्ट कहती हैं, ‘काँपती-सी प्रार्थनाओं में उसने माँगी / थोड़ी-सी उदासी / थोड़ा-सा सब्र / और / ढेर सारा साहस’ और यह भी कि, ‘अपने अंदर की आग को / बचाए रखने के लिए / ज़रूरी है / अपने वक़्त की तल्ख़ियों पर / उदास होना (पृष्ठ : 34)।’
रंजीता सिंह .फलक की कवितायें उम्मीद और प्रेम की कवितायें हैं ..नादेज्दा मन्दिश्तलाम की किताब “होप अंगेस्ट होप “सी सारे आघातों के बावजूद उम्मीद नहीं तोड़ती ..यही बात सहज अनुभूति-प्रसूत एक प्रखर बिंब के साथ वो सामने रखती हैं |
वे जन्मती हैं /सपने /उम्मीद खत्म होने की /आखिरी मियाद तक /ठीक वैसे /जैसे जनती है कोई स्त्री /अपना पहला बच्चा /रजोवृति के अंतिम सोपान पर |
ये कवितायें आश्वस्त करती हैं कि प्रेम वह आत्मक्रांति है जिसके अभाव में कोई भी समाजिक क्रांति या तो अधूरी छूट जाती है या फिर जल्दी हीं प्रति-क्रांति के रुप में अवमूल्यित हो जाती है |
इन प्रेम कविताओं में कभी कभी शमशेर बहादुर सा प्रणय-आवेग मिलता है ..”सुनो प्रिय “खण्ड की चारों कवितायें अजीब सा
माधुर्य,कमनीयता ,रुमानियत ,और उद्धीपन लिए हुए अपने बेहद खूबसूरत बिंबों में प्रणयकांक्षा उकेरती है जो इन दिनों की स्त्री-कविता में विरले मिलता है
सुनो प्रिय /जब मैं काकुलें खोले /आधे वृत्त सी /झूल जाऊँ /तुम्हारे
आलिंगन में /तो उसी दम /तुम /मेरी कमर /पर बांध/ देना /सदी के सबसे खूबसूरत /गीतों की कमरघनी |
स्त्री मन की कोमलता और ठीक वैसे हीं उसका हौसला और विद्रोह
ये तीनों रंग एकसार से इनकी लेखनी से उतरते है और इस पूरे संग्रह में अपने विशिष्ट अन्दाज में मौजूद हैं |
कुल 54 कविताओं में कई बहुत लम्बी कवितायें हैं तो कई अति लघु पर खासियत यह है कि दोनों किस्म की कविताओं का निर्वाह बहुत कुशलता से हुआ है |करीब नौ पन्ने की लम्बी कविता “छोड़ी गई अौरतें और भूलाई गई प्रेमिकायें “भी अपने प्रवाह में वैसे हीं बांधे रखती हैं जितनी उनकी तीन -पांच पंक्तियों की कवितायें .
स्त्री देख लेती है /पूरा का पूरा सच /पीठ की आँख से |
मात्र तीन पंक्ति ये कविता इतनी सम्पूर्ण और सटीक है जैसे कोई लोकोक्ति हो ..
लेखिका की यह दूसरी किताब है ,पर पहला काव्य -संग्रह है और इसका स्वागत साहित्य जगत में इस उम्मीद के साथ होना चाहिये कि एक संभवनाशील,प्रखर,और युवा कवयित्री के रुप में हिंदी सहित्य को एक नया नाम मिला है |
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पुस्तक-समीक्षा :
प्रेम_में_पड़े_रहना (कविता-संग्रह)
कवयित्री : रंजीता सिंह ‘फ़लक’
प्रकाशक : संभावना प्रकाशन
रेवती कुँज, हापुड़ – 245101
मूल्य : 300₹
मोबाइल : 09548181083
Nice edition