हाज़िर और ज़ाहिर गज़लें :: मधु सक्सेना
हाज़िर और ज़ाहिर गज़लें : मधु सक्सेना
इस दुनिया में सबकी अपनी अपनी नज़र होती है और अपना अपना नज़रिया ..कोई देख के चुपचाप आगे बढ़ जाता है ,कोई कुछ देर ठहरकर कुछ सोचता है और आगे बढ़ जाता है तो कोई देख कर समझता बूझता है उसके हर आयाम पर विचार करता है और साथ ले जाता है विचार।
ऐसे ही हर बात की तह तक जाकर निष्कर्ष निकालने वाले शायर है भवेश दिलशाद ।
सीरीज़ में प्रकाशित हुए हैं उनके तीन ग़ज़ल संग्रह – सियाह, नील और सुर्ख़….
जिनमें अलग अलग मूड की गज़लें शामिल हैं।
आज सिर्फ स्याह ग़ज़ल संग्रह पर बात।
सियाह याने अंधेरा ….ये वो अंधेरा नही जो रोशनी न होने से होता है …भवेश उस अंधेरे की बात करते हैं जो इंसानियत के मर जाने से छा जाता है.. आदमी आदमी के दुश्मन बन जाने पर छा जाता है, जो धर्म के नाम हिंसा करने पर छा जाता है।
इस अंधेरे की सघनता बढ़ती जा रही है। शायर के दिल मे हलचल है, दिमाग मे बेचैनी है तभी तो कह गए –
“कितनी मुद्दतों से बस रात रात रात है
कितनी मुद्दतों से है इंतज़ार सुब्ह का”
ग़ज़लों के शास्त्रीय विधान याने उनकी देह की बनावट के बारे में मुझे जानकारी नहीं बस इन ग़ज़लों की आत्मा को टटोलना और महसूस करना चाहती हूँ ।
हमारे ग्रंथों में देह से ज्यादा महत्वपूर्ण आत्मा को माना गया है । देह वस्त्र के समान है । देह का ही जन्म अनुसार धर्म होता है …।इसी गीता के ज्ञान को भवेश ने अपने शब्दों में बेहतरीन तरीके से कहा ….
“मैं ही था जिसने गिराए थे शिवाले उस वक़्त
रूह का खेल है इस दौर में हिन्दू हूँ मैं”
संग्रह की गज़लें पढ़ती जाती हूँ । दिल दिमाग डूबता जाता है।कभी कबीर याद आते तो कभी पाश …..कभी कोई ग्रन्थ तो कभी कोई वाणी ।
सब ठीक हो यही कामना नज़र आती हर रचना के मूल में ….भले ही वो रचना आक्रोश में लिखी हो, तंज़ में या दुखी होकर या प्रेम में ।
सबका उद्देध्य एक ही है ।
कहा जाता है इस विश्व मे धर्म के नाम पर पांच हज़ार युद्ध हो चुके है ।करोड़ो जानें गईं। कत्लेआम हुआ । बच्चे ,बूढ़े ,जवान कोई नहीं बख़्शा गया…मार काट का आलम रहा । विदेश की छोड़ दें तो हमारे ही देश मे धर्म के नाम पर हिंसा सबसे ज्यादा हुई ।
घटनाएं पाठक को अपने आप याद आने लगती है । धर्म तो इंसान बनाने के लिए बना था जानवर क्यों बने लोग ?
धर्म की व्यख्या गलत हुई या ईश्वर की ?
कहाँ चूक हुई समझने में ?
किसने भड़काया ?
शायर के सटीक शेर में ये बात चुभते हुए प्रश्न की तरह उपस्थित है ।
“कहो कैसी लगती है मंदिर की चौखट
मुसलमां के खूं से मुअत्तर महादेव
इस आदम को इंसा बनाना था मक़सद
बनाया धरम ने जनावर महादेव ”
पता नहीं महादेव के पास इस बात का जवाब है या नही ? इंसान के पास तो जवाब है पर उन आखों पर पट्टी बंधी है अज्ञान की ,ईर्ष्या की ,जाति की और कथित ईश्वर की ….तभी तो अंधेरा गहरा रहा ।ये आंतरिक अंधेरा तो मिटाना ही है जिसे मुहिम की तरह लिया है भवेश ने ।
बहुत पहले एक फ़िल्म आई थी आनन्द ।
अपने समय की हिट फिल्म थी ।उसमे एक कविता थी गुलज़ार की – “ए मौत तू एक कविता है “… इसके बाद भी अभी तक जितनी कविताएँ आई वो सब वहीं तक रही पर भवेश की ये कविता उससे आगे की कविता है जिसका
शीर्षक है …मौत …देखें …
” तू एक कविता नहीं
सिलसिला है कविताओं का
न जाने कितने ही पन्नो में
जो दर्ज हैं
जो नक्श हैं
वो कविताएँ, जो अंश हैं
जीवन के महाकाव्य का ।”
इस संग्रह की हर रचना कसी हुई है ।कहीं भी झोल नज़र नहीं आता । लगता है निर्ममता से जांचा गया ,परखा गया , कसा गया ..
कई शेर तीर से बिधते तो कई मलहम हाथ मे लेकर खड़े हुए है ।यू तो हर रचना बेजोड़ है पर कुछ शेर जो मुझे बहुत पसंद आये ….
“कहता है खतरनाक जो , कुछ जानवरों को
उसने अभी इंसान की फितरत नही देखी
**
इश्क में एक वो है दूजा मैं
दो ही हर्फ़ों में बात सारी है
**
चुप रहा मैं तो जात बिगड़ेगी
बोलने से भी बात बिगड़ेंगी
**
लाल किले ने हुक्म दिया है
चौक की साफ़ बयानी बन्द
बुक्का फाड़ के रोया कोई
उसका हुक्कापानी बन्द ।”
कहने को तो बहुत है पर कहने से ज्यादा गुनने की बात है । अतः शेष पढ़ें और समझे ….
शब्दों के बीच जो छूटा है या जो लिखा तो नही पर समझाया गया।
अंधेरा होता है तभी रोशनी का आह्वान होता है। .. इस स्याह अंधेरे को चीरने के प्रयास किया शायर ने प्रेम की ,समपर्ण की रोशनी जला कर । बात प्रतीकों की है । इस बुरे वक़्त में प्रेम ही है जो अच्छे वक़्त को करीब लाने की राह है।
वारिस शाह , बुल्लेशाह , कबीर , रसखान, गालिब आदि कवि , शायर प्रेम के गीत गाते आ रहे है उसी जिम्मेदारी को निभाते हुए भवेश कहते है –
” ये तश्नालबी नहीं है बस एकतरफ़ा
दोतरफ़ा भरम की आबरू रह जाये
तू इतना बने कि सिफ्र मैं हो जाऊं
मैं इतना मिटूं कि सिर्फ तू रह जाये ”
ग़ज़ल अपने पूरे वजूद के साथ पाठक के साथ चल पड़ती है । कभी वो आगाह करती है तो कभी ललकारती है ।रास्ता दिखाती है तो चेतावनी भी देती है ।अनोखा है ये ग़ज़लों का संसार जिनमे सिर्फ दो पंक्तियों की ही मोहलत है ।
अपने पापा को समर्पित भवेश दिलशाद के इस संग्रह की भूमिका लिखते हुए श्री प्रशांत त्रिपाठी ( भारतीय प्रशासनिक सेवा ) लिखते है – ” इसलिए इस किताब के मआनी बहुत बढ़ जाते है ।ये धरोहरे है ।इनका आने वाली कई नस्लें फायदा उठाएंगी।यह वृक्षारोपण है जो हम कल के लिए कर रहे ।”
अनिता मंडा (लेखक ,कवि ) का कहना है – “अपने वक़्त की नब्ज़ को टटोलती उनकी ग़ज़लों में यथार्थ का कठोर धरातल है ।सियासत पर सवाल है ।आम इंसान की फिक्र है ।”
के पी अनमोल लिखते हैं – ” भवेश दिलशाद अलहदा कहन से अपनी ग़ज़लों को परंपरागत ग़ज़लों से थोड़ा अलग खड़ा करते है । इनकी ग़ज़लों में सरोकारों की मौजूदगी मजबूती के साथ है जो इन्हें समकाल से जोड़ते है।”
भवेश खुद अपने लिखे की गवाही देते हुए स्पष्ट करते है कि -“जो कुछ पाया ,नही पाया ,झेला ,महसूसा ,कुरेदा, खरोंचा, ज़ब्त किया ….वो सब गवाहियां आगे के पन्नों में दर्ज़ है । आगाह कर दूं कि आप शायरी के बागीचे में नही शायरी के जंगल में हैं ।बाक़ी जोखम आपका ।”
पुस्तक की छपाई स्पष्ट और वर्तनी की गलतियों से रहित है । 88 पेज में समाया ये पहला भाग अपने शीर्षक को सार्थक कर रहा है ।
बहुत सी शुभकामना के साथ भवेश के ही एक शेर के साथ अपनी बात स्थगित करती हूँ –
” हादसे की चाप है दिलशाद साहिब ये ग़ज़ल
जो समझ लेगा वो शायद कुछ बचा रह जायेगा।”
…………………………………………………………………………………………………
पुस्तक का नाम – सियाह (ग़ज़ल संग्रह )
शायर – भवेश दिलशाद
प्रकाशक – पुस्तकनामा
प्रथम संस्करण 2023
आवरण – महेश्वर
मूल्य – 160
समीक्षक – मधु सक्सेना
…………………………………………………..
परिचय : मधु सक्सेना की कई काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. इन्होंने कई पुस्तकों की समीक्षा भी लिखी हैं. इनकी साहित्यिक उपलब्धियों को कई संस्थानों की ओर से सम्मान प्राप्त ह. देश-विदेश में आयोजित साहित्य के कई आयोजनों में इनकी भागीदारी रही है.
पता – निशांत सक्सेना, अविनाशी विला , 15 / c रविनगर, रायपुर (छत्तीसगढ़ ).. 492001