सभी वर्गों के जीवन का लेखा-जोखा करतीं लघुकथाएं :: सुधा जुगरान

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सभी वर्गों के जीवन का लेखा-जोखा करतीं लघुकथाएं

  • सुधा जुगरान

लंबी कथाओं को पढ़ने के आदी पाठकों के सामने जब लघुकथाओं की पुस्तक हाथ में आती है, तो गद्य की एक विशिष्ट शैली से, उसका परिचय होता है।

लघुकथा लेखन एक अलग तरह की विशिष्ट कला है। लघुकथा एक छोटी कहानी नहीं है। यह कहानी का संक्षिप्त रूप भी नहीं है। यह विधा अपने एकांगी स्वरूप में, किसी भी एक विषय, एक घटना या क्षण पर आधारित होती है।

लघुकथा, ‘गद्य कथा’ का एक अंश है, जिसे एक ही बैठक में पढ़ा जा सकता है।

लघुकथा गद्य का बहुत ही सटीक रूप  है, जिसमें रचनाकार बहुत थोड़े से शब्दों में बहुत बड़ी बात कह देता है, जिसे कभी-कभी एक पूरी लंबी कहानी या उपन्यास के ढेर सारे पात्र भी उतनी स्पष्टता व सार्थक तरीके से व्यक्त नहीं कर पाते हैं।

सुप्रसिद्ध लेखक व संपादक सुरेश सौरभ जी के संपादन में संग्रहित साझा लघुकथा संग्रह  “घरों को ढोते लोग” पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। लगभग 65 लघुकथाकारों का यह संग्रह लाजवाब है। इसकी लघुकथाएं हर वर्ग व प्रत्येक क्षेत्र में शोषित, वंचित लोगों की बात बहुत शिद्दत से करती हैं। शायद ही संपादक की नज़र से कोई क्षेत्र छूटा हो। लघुकथाओं का चयन काफी सतर्कता व कुशलता के साथ किया गया है। सुरेश जी एक कुशल संपादक होने के साथ-साथ बेहतरीन लेखक भी हैं। यही दोनों मिश्रित गुण उनकी इस पुस्तक में दिखाई देता है।

यूं तो पुस्तक की सभी लघुकथाएं अत्यंत सटीक व सशक्त हैं, फिर भी कुछ का जिक्र करना लाजिमी होगा। संकलन की पहली लघुकथा ‘सलोनी’ में डॉ.मिथिलेश दीक्षित जी ने कामवाली बाई का मार्मिक हार्दिक चित्रांकन किया है।

भीषण गर्मी के बाद बरसात का मौसम साधन संपन्न लोगों के लिए खुशनुमा पलों की सुगंध लेकर आता है। यशोधरा भटनागर की लघुकथा ‘कम्मो’ में, घर में काम कर रही नौकरानी से चाय की फरमाइश होती है, लेकिन वही नौकरानी ‘कम्मो’ जब अपने घर पहुँचती है, तो टपकती झोपड़ी और गीली लकड़ियों के कारण पेट की आग बुझानी भी मुश्किल हो जाती है।

बाल श्रम की आड़ में छोटी बालिकाओं के शोषण पर लिखी रश्मि लहर की लघुकथा, “हिसाब-किताब” भी पाठकों के अंतस को झिंझोड़ देती है। लघुकथा “धूल भरी पगडंडी’  गांवों से युवा वर्ग के हो रहे पलायन पर सार्थक विमर्श करती नजर आती है।

अत्यंत कड़वा सत्य परोसती है लघुकथा ‘कबाड़’। समाज का साधन संपन्न वर्ग, शो रूम में रखी महंगी वस्तुएं बिना आगा-पीछा सोचे खरीद लेता हैं। अपनी सुख-सुविधा को लेकर कोई भी समझौता करना, आम समाज को मंजूर नहीं होता, लेकिन मजदूर वर्ग, चाहे फिर वह सब्जीवाला, रिक्शावाला, प्लंबर, इलेक्ट्रिशियन, कबाड़ी, घरों में काम करने वाले या कोई भी अन्य, उनसे 10-20 रुपए कम कराने का लोभ अक्सर संवरण नहीं कर पाते हैं। सुखद लगता है रश्मि चौधरी की लघुकथा,’कबाड़’ को पढ़ना, जहां एक गृहणी घर का कबाड़ एक कबाड़ वाले को बिना पैसे लिए दे देती है। जबकि वह पैसे देने के लिए लगातार बोलता रहता है।

‘उपहार’ देने का संबंध, हैसियत से अधिक देने वाले की भावना से होता है। इस तथ्य को बहुत से लोग नहीं समझ पाते हैं, इसीलिए शायद आज, संवेदनाएं व भावनाएं हृदय की दहलीज लांघने को तत्पर हैं। मनवीर कौर पाहवा की ‘उपहार’ मार्मिक लघुकथा है।

मार्टिन जॉन की शीर्षक लघुकथा, “घरों को ढोते लोग’ एक ऐसी लघुकथा है, जो बहुत से चित्र आंखों की परिधि में बिछा देती है।वस्तुतः समाज का चाहे कोई भी वर्ग हो, वह अपने घरों को ही ढो रहा है, यह अलग बात है कि कोई पेट की आग बुझाने के लिए ढो रहा है, तो कोई सुख-सुविधा कमाने के लिए ढो रहा है। यह एक ऐसी लघुकथा है, जो सभी वर्गों के समस्त जीवन का लेखा-जोखा पाठकों के सामने प्रस्तुत कर देती है।

लघुकथा, ‘चैरेवति, चैरेवति ‘ भी इसी भाव को आगे बढ़ाती है, अनेक कलाओं में माहिर, एक रिक्शावाले के माध्यम से।

गरीब, अनपढ़ वर्ग अक्सर इल्जाम का अधिकारी हो जाता है। ऐसा ही बहुत कुछ कह जाती है पूनम ‘कतरियार’ मार्मिक लघुकथा, ‘इज्जत’।

 

बहुत से अधखिले फूल हैं समाज में, जिन्हें अगर अपना लें तो इन्हें नवजीवन भी मिलेगा और  देश को एक अच्छा नागरिक भी। साधन संपन्न घरों में जहां रोज ही अन्न की बरबादी होती है, वहीं ऐसे भी लोग हैं जिनको पेट भर खाना भी नहीं मिल पाता। इसी भाव की  लघुकथा ‘आस’ की चर्चा करें, जिसमें,भीखू फर्श पर पड़े अनाज के दानें मजदूरी के रूप में मिल जाने पर बेहद खुश हो जाता है। सविता मिश्रा ‘अक्षजा’ की यह बेहतरीन लघुकथा है।

प्रत्येक लघुकथा का नायक चाहे वह कोई रिक्शावाला हो, ड्राइवर हो या कोई अन्य, उसके कांधों पर घर की जिम्मेदारियों का बोझ है और वह उसे ढोये हुए बस दौड़ लगा रहा है।

पुस्तक की लघुकथाएं अलग-अलग समस्याओं व विषयों को समेटती हैं। लघुकथा ‘गुनाह’ की सेल्स गर्ल की भी एक अपनी कहानी है। ग्राहक की चोरी के कारण वह मुसीबत में फंस जाती है। लघुकथा ‘शुभ तिथि’ घर के गृहप्रवेश का अलग दृश्य पाठकों के सामने लाती है, जिसमें नायक, घर बनाने वाले मजदूरों के साथ गृहप्रवेश की पार्टी करने का निश्चय करता है। वहीं सेवा सदन प्रसाद की ‘भूख’ लघुकथा दिल को दहला देती है। जब कोरोना महामारी में भूख से बेहाल गाँव पैदल जाते एक मजदूर को, काम भी मिलता है, तो लाशों को दफनाने का।

नोटबंदी पर लिखी सुधा भार्गव की लघुकथा ‘नमक का कर्ज’ बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है। क्या सच ही गरीबों के लिए देश की स्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं है? उनके मात्र शिकारी ही बदले हैं? सुकेश साहनी की लघुकथा ‘धूप-छांव’ अमीर व गरीब के लिए बरसात का न होना, सूखा पड़ना ,दोनों के लिए अलग-अलग परिदृश्य रचता है। कुछ  लालची लोगों के लिए आपदा, अवसर लेकर आती है।  मनोरमा पंत की लघुकथा ‘बदलते रिश्ते’ करुणा भरी वात्सल्यमयी कथा है।

बाल श्रम देश में अपराध है, लेकिन अगर किसी बच्चे का पिता न हो, तो उसकी भूख किस श्रेणी में आती है? जब यह ‘यक्ष प्रश्न’ बालक रघु, ठेकेदार से करता है, तो ठेकेदार के साथ-साथ पाठकों के पास भी कोई जवाब नहीं होता। सुनीता मिश्रा ने ‘यक्ष प्रश्न’ में बढ़िया संदेश दिया।

गरीब की मृत्यु उसके घरवालों के सिवा और  किसी को व्यथित नहीं करती। लघुकथा, ‘मजदूर मरा है’ इस भाव व बात को अत्यंत सशक्त ढंग से चित्रित करती है, चित्रगुप्त की लघुकथा।

कोरोना महामारी पर आधारित राजेन्द्र पुरोहित की लघुकथा, ‘शव-वाहन’ उस वक्त की भयावह यादें ताजा कर देती है।

गरीब की भूख को पेट भर भोजन नहीं मिलता और अमीर के बच्चों की भूख खोलने के लिए इलाज किया जाता है, योगराज प्रभाकर की लघुकथा ‘अपनी-अपनी भूख’ की अंतिम पंक्ति इस सच्चाई पर जबरदस्त कटाक्ष करती है।

अरविंद सोनकर ‘असर,’ सारिका भूषण, मिन्नी मिश्रा, इंद्रजीत कौशिक, मीरा जैन, गुलज़ार हुसैन, विजयानंद विजय, नीना मंदिलवार, डॉ.चंद्रेश कुमार छतलानी, राम कुमार घोटड़ आलोक चोपड़ा, कल्पना भट्ट, हर भगवान चावला, अविनाश अग्निहोत्री, राजेन्द्र वर्मा सहित सभी लघुकथाकारों की लघुकथाएं पाठकों की आंखों में कोई नमी जरूर छोड़ जाएंगी।

संग्रह की अंतिम दो लघुकथाएं, ‘कैमरे’ और ‘हींग वटी’ भी बाल श्रम पर जबरदस्त प्रहार करती प्रतीत होती हैं। यह दोनों लघुकथाएं संपादक व लेखक सुरेश सौरभ जी द्वारा रचित हैं। भीख मांगते बच्चों की भीड़ को, सरकार और समाज का प्रबुद्ध वर्ग कम तो करना चाहता है, लेकिन उनके सम्मान जनक जीवन-यापन के प्रयासों पर साथ नहीं देते।

चुनाव हो या कोई रैली अथवा शादी बारात की बात हो, इन जगहों पर काम करने वाले बच्चों के साथ अगर कोई दुर्घटना घट जाए तो इसकी जिम्मेदारी कोई आयोजक नहीं लेते, इस बात को बहुत स्पष्ट तरीके से सामने रखती है लघुकथा ‘कैमरे ‘।

बहुत ही सटीक व स्तरीय लघुकथाओं की इस पुस्तक के सभी रचनाकारों को मैं हार्दिक बधाई देती हूं। संपादक सुरेश सौरभ जी का साधुवाद करती हूं।

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पुस्तक-घरों को ढोते लोग (साझा लघुकथा संग्रह) 

संपादक- सुरेश सौरभ

प्रकाशन-समृद्ध पब्लिकेशन शाहदरा नई दिल्ली

संस्करण-2024

मूल्य-245 उन

समीक्षक-

-सुधा जुगरान 

दिव्या देवी भवन

16 ई, ई. सी. रोड़

देहरादून-248001

उत्तराखंड

मोबाइल- 9997700506

 

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