विशिष्ट कवि :: धर्मपाल महेंद्र जैन

 धर्मपाल महेंद्र जैन की दस कविताएं

 

 खंडित देह जीते हुए

अपनी यौन विकृति के दंश

मान-अपमान सबको समेटे

ग्रंथों में आते हैं वे

बुनते हुए ख़ुशियाँ

भले ही छोड़नी पड़ती हों उन्हें

सभ्य समाज की शालीन हदें

अपनी खंडित देह जीने में।

 

वे रनिवासों के सर्वप्रिय और

अनुशासित रक्षक रहे कभी

विरोध में घाघरा उठा कर

जब तालियाँ ठोकने लगते हैं

अपनी ताकत बता देते हैं।

उन्हें नहीं सिद्ध करनी होती अपनी निष्ठा

वे टूटे तार छेड़ अलापते हैं राग

बलाएँ लेते हुए आशीष देते हैं

विलिंगी होकर

अपने अधूरेपन से उत्सव की फीकी मस्ती में

भर देते हैं खिलखिलाहट।

वे तिरस्कृति झेलते हुए

विधाता को क्षमा करते हैं बार-बार।

 

रंगों की कमी नहीं थी

 रंगों की किताब में

प्यारे से नाम है रंगों के

लाल, केसरिया, पीला, हरा, नीला, बैंगनी।

फूलों-फलों के रंग

बेल-पत्तियों के रंग

पक्षियों-पशुओं के रंग

आदमी को

मूल रंग दिया ही नहीं प्रकृति ने

ओ श्वेत-अश्वेत-साँवले लोगों।

 

अनंत रंग हैं

गोचर स्पेक्ट्रम के दोनों ओर

बैंगनी से निचली तरंगदैर्ध्य के रंग

या सुर्ख लाल खून से ऊपर के रंग

जिन्हें आँखें नहीं पहचानतीं।

सबकी त्वचा के भीतर

रंग-पथ का शीर्ष लाल रंग भरा है।

 

यह नहीं कि प्रकृति के पास

रंगों की कमी थी

कि चितकबरी बिल्लियों,

शेरों और चीतों ने

हड़प लिया था उन्हें

कि सारे मुलायम रंग

पा गए थे खरगोश

या चर गईं थी भेड़ें

कि तितलियों ने उड़ते-उड़ते जी भर

फुदक लिया था रंग के कड़ाहों में

नहीं, उसके पास रंगों की कमी नहीं थी।

 

तुम्हारे लिए इतने रंग उकेरते हुए

उसने यही चाहा होगा

कि तुम उसके कण-कण में भर दोगे

चहकते असीम रंग

तुम लाल रंग के प्यासे बनकर

धरती को नहीं उछेर सकते

ओ श्वेत-अश्वेत-साँवले लोगों।

 

जायकेदार उंगलियाँ

बेस्वाद को स्वादिष्ट बनते हुए

कई बार देखा है मैंने

व्यस्त रसोई में

तुम्हारे पीछे खड़े होकर।

 

यूँ तो मुझे नमक खारा कड़वा लगता है

और मिर्च न आँखों को रास आती है

न जीभ को

इस हल्दी की कभी बात न करो

जो लेप दी गई थी मुझ पर

हमारी शादी से पहले

घिस-घिस कर

निकालने पर भी नहीं निकली थी

क्या फालतू स्वाद है इसका

दवाइयों जैसा

मैं कभी न खाऊँ होश में रहते।

 

तुम कुछ करती हो

कि थोड़ी-सी मिर्ची पर

चुटकी भर नमक आ बैठता है

और उस पर छितर जाती है हल्दी,

हींग, जीरा, धनिया और

ऐसी ही बेस्वाद चीज़ें

तुम्हारी उंगलियाँ

जादूगर की तरह चलती हैं और

क्या का क्या कर देतीं हैं गुनगुनाते हुए

कि जायकेदार हो जाती है मेरी उंगलियाँ भी।

 

इकत्तीस दिसंबर

बरसों-बरस अलविदा कहा है तुम्हें

यह जानकर कि

कल सवेरे सूरज के घोड़े

हिनहिनाते दौड़ते आएँगे

जनवरी की पहली तारीख के साथ।

 

तुम जा रहे हो अतीत के गह्वर में

तुम्हारे साथ बाँध दी है कुछ सौगातें

दिल की किरचियाँ जो झड़ गई हैं

आँसूओं के टुकड़े जो सूख गए हैं

खून के कतरे जिन पर जंग लग गई है

लम्हे जो मुरझा कर उदास हो गए हैं

ले जाना इन्हें।

 

और भी चीज़ें हैं –

हाशिये-हाशिये भरी असफलताओं की डायरी

ख़ुद पर गुस्से के ताप में झुलसी झुर्रियाँ

आँखों के आगे अंधेरा बुनते जाले

दाँतों के डॉक्टर के नाम लिखी गालियाँ

घुटनों में टपकते हुए दर्द के आँसू

ले जाना इन्हें भी।

 

शुक्रिया मेरे दोस्त कि तुमने जाना चुना

ठहर जाते तो बहुत भारी हो जाता जीना

अच्छे दोस्त ऐसे ही होते हैं

ख़ुशियाँ छोड़ जाते हैं अलविदा में।

 

मुझे डर लगता है

सरकार आप

रौब नहीं झाड़ते अब

दुत्कारते नहीं अब

माँ-बाप बखानते नहीं अब

शालीन, तहज़ीब से रहते हैं

मुझे डर लगता है।

 

आपकी डाँट सज़ा नहीं थी

गालियों में कड़वापन नहीं था

ग़ुस्से में पिटाई नहीं थी

धमकियों में मौत नहीं थी

अब ख़ामोश मुस्कराते हैं आप

मुझे डर लगता है।

 

हुक़्मरान आप थे अमन पसंद

आपकी आँखें पढ़ लेती थीं मजबूरियाँ

आपके कान सुन लेते थे बुदबुदाना

आपके हाथ बढ़ आते थे मुसीबत में

आपमें कहीं था धड़कता दिल

अब आप बन गए भगवान,

मुझे डर लगता है।

 

अच्छा देखते हैं आप

अच्छा बनते हैं आप

अच्छा रहते हैं आप

अच्छा कहते हैं आप

सब तो अच्छा है

खुशफ़हम हैं आप

बस आप जो करते हैं तौबा

मुझे डर लगता है।

 

प्यार में डूबना होता है

 नदी से प्रेम करना हो तो

उन्मुक्त मन और खुली देह के साथ

चिंताएँ, ख़ुशियाँ, पाप, पुण्य, पुरखे

सब बहा देने होते हैं उसमें।

 

उसे प्यार करने के लिए

कंटीली झाड़ियों,

किनारे की गीली मिट्टी,

कंकड़ और उसकी चट्टानों से गुज़रना होता है

मझधार तक पहुँचने।

 

नदी को महसूसने के लिए

उसमें लगानी होती है डुबकी

झरने के आवेग में पकड़नी होती है धार

उसके उत्तल और अवतल को

सिर्फ लहर बनकर नहीं पाया जा सकता

प्यार में डूबना होता है भीतर तक।

 

वे तुम्हें उम्मीद देते हैं

शताब्दियों से अस्वच्छ मोहल्लों,

झोपड़पट्टियों और अशिक्षा के नरक में

ज़िंदा रहे तुम्हारे पितरों की याद में

वे तुम्हें आरक्षण की उम्मीद देते हैं।

 

शताब्दियों से उखेड़े बुहारे,

मैला ढोया, ढोर-डंगर उछारे

और श्मशान सम्हाले इसलिए

वे तुम्हें विकास की उम्मीद देते हैं।

 

शताब्दियों से नीची जात बन जीने,

दास बन रनिवासों का ध्यान रखने

और संस्कृति की लाज रखने

वे तुम्हें सम्मान की उम्मीद देते हैं।

 

शताब्दियों से कोठारों के अंधेरों,

भैंसों के तबेलों और

घास की गठानों के पीछे

पाप सहने के लिए

वे तुम्हें पुण्य की उम्मीद देते हैं।

 

 आदमी होने का इतिहास                                                                                                                                              

उन्होंने बताया मैं हिन्दू क्यों हूँ

उन्होंने बताया मैं मुस्लिम क्यों हूँ

उन्होंने बताया मैं सिख, ईसाई, बुद्ध या जैन क्यों हूँ

वे नहीं बता सके कि मैं आदमी क्यों हूँ।

 

मैं प्रश्नवाचक-सा खड़ा-अड़ा रहा

अपनी अस्मिता जानने के लिए

वे धर्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र, कामशास्त्र

और शस्त्र खोल मुझे बताते रहे

मैं क्या हूँ, कौन हूँ

आदि से हूँ उनके साथ

उनके मुहावरों, उनकी भाषा, उनके सोच में

और वे तब से लिखते रहे हैं मेरा इतिहास

जो कभी था ही नहीं।

 

मैंने कहा मत होओ परेशान

जो नहीं है उसे क्या सिद्ध करना

मैं तुम्हारे सामने हूँ आज

तुम मुझे अब कर सकते हो परिभाषित

वे ताड़ते रहे मुझे और बोले

आदि से जो कोई रहा मनु

कुछ था ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,  शूद्र जैसा

वह केवल आदमी नहीं था

यहाँ आदमी होने का कोई इतिहास नहीं है।

 

लेक ओंटेरियो पर

इस शाम को यहीं रुक जाना चाहिए

होना तो इसे समुद्र चाहिए था

कहीं कमतर नहीं यह झील

जहाँ तक जाती है मेरी दृष्टि इस छोर से

कोई तटबंध नहीं दिखते

पर मेरे कहने से नहीं बदलता भूगोल

उसकी अपनी राजनीति है

धरती को खंडों में विन्यस्त करने की।

 

इस झील के किनारे की गुदगुदाती रेत में

तुम्हें थाम कर लड़खड़ाना और

मचलती लहरों के उछाल में भीगते जाना

समुद्र ही को महसूसना होता है

तुम्हारे चेहरे पर ठहरी फुहारों की बूंदें

समुद्र टाँक जाती है तुम पर

तुम्हें खिलखिलाना आता है

जब मैं चपटीले पत्थर

इसकी लहरों पर तैराने लगता हूँ।

 

सूरज को ढलने की इतनी जल्दी क्यों है!

परिंदों ने अभी चहचहाना शुरू किया है

यह झील समुद्र से कितनी बड़ी है

और सम्मोहक भी

इस शाम को यहीं रुक जाना चाहिए।

 

मेरी धरती असाधारण लगती है

धरती के पूर्वी छोर पर खड़े हो कर

अभी तो टाँक दी है यहाँ आत्मा मैंने।

समुद्र की अठखेलियों पर हँसती

भीगी पृथ्वी की कण-कण सतह देख कर

हर कोई तो ठिठका है यहाँ।

हवा जो धरती की सारी गंध चुरा कर

भागी जा रही है समुद्र में छिपने

और सूरज जो छटपटाती लहरों में

पिरो रहा है अपनी किरणें

सदियों से यही कर रहे हैं यहाँ अपलक,

और सुवासित पृथ्वी है कि

वह अजेय, दुर्भेद्य मुस्कुराती खड़ी है।

 

धरती के अंतिम बिंदु पर

पृथ्वी को महसूसना

अनुभूति का शब्दातीत चरम है

मैं क्या कहूँ

कि धातुओं के श्रेष्ठतम योग से गुम्फित

ये चट्टानें कभी किसी समय को

अपने भीतर झाँकने नहीं देतीं

कितना भी आवेग ले आये समुद्र

या ख़ुद

बर्फ़ की तीक्ष्ण चट्टानें बन टकराने लगे

उसे पानी पानी ही होना है

पृथ्वी के वक्ष से टकराकर।

मेरी धरती यहाँ असाधारण लगती है।

 

खेत में जिस उदात्त धरती को

अपनी उंगलियों में मिट्टी बना कर

भर सकता हूँ मैं

कितनी कठोर है यहाँ लौह-सी

पृथ्वी की चट्टानी उर्ध्व सतह,

जिसकी मोटाई पूरा पृथ्वी ग्रह है,

और इसे भेदना चाहता है सूर्य!

इस फलक से टकराती सूर्य किरणें

जिन्हें मैं देखता हूँ परावर्तित होते

रच देती हैं अनंत सूर्यों की चमक

आँखों में इतना प्रकाश होता है

कि कुछ नहीं दिखता

आँखों के आगे अंधेरा छाने से भिन्न है

यह आँखों के आगे फैला उजाला

पृथ्वी का रचा।

 

इस बिंदु से कुछ क़दम दूर धरती पर

अदम्य जीवन की लालसा लिए

बीज अँकुरित हो रहे हैं

फूल खिल रहे हैं

भौरे गुनगुना रहे हैं

इस बात से बेख़बर

कि पृथ्वी की सीमा पर

खरबों वर्षों से

असमाप्त युद्ध चल रहा है

समुद्र के साथ।

वे तो सुरक्षित, निरापद, निर्भय हैं

अपनी धरती पर

मेरी धरती फिर असाधारण लगती है।

 

प्रेम करने के लिए तो बहुत कुछ था 

प्रेम करने के लिए तो बहुत कुछ था

किरणोंष्म सुबह थी

चहचहाते पक्षी थे

खिलते फूलों के इर्द-गिर्द

अथक मंडराते कीट थे

मृदुल घास के तिनकाग्र पर

मैं ओस के मानिंद ठहरा

हवा से डरता रहा

मुझे उसके साथ उड़ना नहीं आया।

 

प्रेम करने के लिए तो बहुत कुछ था

उत्तुंग पर्वत थे आकाश से बतियाते

बादलों को चीरते

झरने थे चट्टानों के सौष्ठव को

पोर-पोर पिघलाते

तराई में कल-कल बहती नदी थी

उमंगित दौड़ती

धरा के विशाल पाट को सींचते हुए

मैं पत्थर के मानिंद पेंदे में ठिठका रहा

उसमें विलीन हो कर बहना नहीं आया।

 

प्रेम करने के लिए तो बहुत कुछ था

प्रकृति को सर्वस्व सौंप

पुनः-पुनः श्रृंगारित हो जीने की ललक लिए

फलों से लदे वृक्ष थे

धान्य भरी बालियों से लहलहाते खेत थे

बेरियों-बौरों से उत्फुल्ल लताएँ थीं

मैं ठूँठ के मानिंद खड़ा

अपनी ऊँचाई नापता रहा

कभी जड़ों को धरती से जुड़ना नहीं आया।

 

प्रेम करने के लिए तो बहुत कुछ था

अदद मनचली शाम के साथ तुम थीं

स्निग्ध निर्मल चाँदनी थी

झिलमिलाती ख़ामोश रात थी

मैं आग के मानिंद जल-बुझता रहा

ख़ुद से निकल कर

तुममें जीना नहीं आया।

 

प्रेम करने के लिए तो बहुत कुछ था

प्रेम करना ही नहीं आया।

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परिचय ::  धर्मपाल महेंद्र जैन की कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है. तीस से अधिक साझा संकलनों में भी इनकी कविताएं आयी हैं्र

स्तंभ लेखन : चाणक्य वार्ता (पाक्षिक), सेतु (मासिक), विश्वगाथा व विश्वा में स्तंभ लेखन।

 

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