ग़जल संस्कृति के संवाहक आर.के. माथुर ‘राजीव’
- भागीनथ वाक्ले
मस्जिद में आके देख, इबादत भी है नशा
मयनोश भूल जायेगा, खुद ही शराब को ।
रामपुर रजा लाइब्रेरी उ.प्र. से प्रकाशित ‘कुछ रंग जिंदगी के’ इस ग़जल संग्रह का प्रथम पृष्ठ पलटने को पश्चात उपर्युक्त शेर दृष्टिगोचर होता है । अक्सर किसी किताब का मुख पृष्ठ पलटाने के बाद एक तो, पुरोवाक् पाक्कथन, लेखकीय , संपादकीय या किसी को समर्पित इस प्रकार कुछ लिखा दृष्टिगत होता है । आरंभ में लिखित यह शेर उस ़ग़जल मंदिर के भव्य गर्भगृह के प्रवेश–द््वार की भाँति है ।
जिससे मंदिर के गौरव, गरिमा तथा भव्यता की कल्पना की जा सकती है । जिसमें श्रद््धा, शालीनता से श्रद््धा–सुमनों को अर्पित करते हुए प्रविष्ट होना है और वह दिव्य अर्थ की प्राप्ति आत्मानंद प्राप्ति के समान है । समूचे पृष्ठ पर केवल एक शेर उस पवित्र धार्मिक स्थल के प्रवेशद््वार की भाँति है, जहाँ से धार्मिक स्थल की पूर्णाकृति न सही लेकिन एक झाँकी अवश्य दिखाई देती है । उस झलक की आभा से आनंदविभोर मन मयूर मुख–विवर से ‘वाह’ कहकर अवाक रह जाता है । अनायास उसके कदम उस संपूर्णता के अहसास के लिए बढ़ने लगते हैं । उसे पता ही नहीं चलता कि कब भक्ति–रसपान में आवंâठ निमग्न, लयलीन वह भक्ति सागर से बाहर आ जाता है । बाहर आने के बाद समुद्र की शीतलता में पुनश्च अवगाहन करना चाहता है । अब वह अभ्यस्त हो चुका है, उस पर खुमार, एक नशा चढ़ चुका है और वह ह््दय के अंतस से पूरे शक्ति के साथ आवाज लगा रहा है – ‘’ मस्जिद में आके देख, इबादत भी है नशा’’ मैंने हृदय के अतंस से पूरे जोर से इसलिए कहा क्योंकि किसी की एक इबारत है मुझे पूरी स्मरण नहीं लेकिन कुछ इधर–उधर के साथ इस प्रकार थी –
तेरी इबादत में इतना दम है
तो मस्जिद को हिलाकर देख
नहीं तो एक जाम पी और
खुद मस्जिद को हिलता हुआ देख ।
वास्तविक ़ग़जल में सत्ता सुरा, सुंदरी, हुस्नो–शबाब आदि विषय आते रहे हैं । यहीं तो ‘कुछ रंग जिंदगी के है’ । इसी से जिंदगी ‘कलरपूâल’ अर्थात रंगीन हुई है । ‘कुछ रंग जिंदगी के’ बहाने जब मैं पन्ने पलटाता हूँ तो लगता है मैं पन्ने नहीं अपनी जिंदगी के कुछ पृष्ठ पलटा रहा हूँ । केवल मेरे नहीं कमोपबेश प्रत्येक मनुष्य के जीवन पृष्ठ, लेकिन प्रत्येक मनुष्य के संबंध में मेरा यह दावा सही हो ही सकता है ? यह मैं नहीं कह सकता । मात्र मनुष्य जीवन के वह रंग–चित्र इस ‘एलबम’ में हैं । जिसे मनुष्य धीरे–धीरे पलटाना चाहता है, उसका अनुभव करना चाहता है, उस दौर से होकर गुजरना चाहता है । उस मधुर–स्मृतियों को चुगलाकर जिंदगी के मिठास की अनुभूति करना चाहता है । इस पल वह जिंदगी के सारे झंझटों से शून्य होकर साधुगत समाधिस्थ हो जाता है । यही साहित्य की सार्थकता है और कसौटी भी । यही साहित्य की परिणति है और शायद लक्ष्य भी । यही साधरणीकरण साहित्यकार का ध्येय है । इसी आनंद–रस को तो ब्रह््मानंद सहोदर कहा गया है ।
अक्सर किसी किताब का मुख पृष्ठ पलटाने के बाद एक तो, पुरोवाक् पाक्कथन, लेखकीय , संपादकीय या किसी को समर्पित इस प्रकार कुछ लिखा दृष्टिगत होता है । आरंभ में लिखित यह शेर उस ़ग़जल मंदिर के भव्य गर्भगृह के प्रवेश–द््वार की भाँति है ।
‘कुछ रंग जिंदगी के’ आर.के. माथुर ‘राजीव’ द््वारा लिखित़ ग़जल संग्रह का प्रत्येक शेर जिंदगी के कई पहलुओं को उघाड़ता हुआ दृष्टिगोचर होता है । वस्तुतः जिंदगी में कई रंग होते हैं । सब रंगों तक मनुष्य की पहुँच हो ही यह संभव नहीं । कुछ रंग बीत चुके होते हैं कई अभी आने बाकी होते हैं । बीते के स्मरण से आनंद महसूस करना और आगत के संदर्भ में सपने सँजोना यही कुछ मनुष्य की नियति है । कटु–तिक्त अनुभवों के साथ मधुर स्मृतियाँ मनुष्य के मन में आशा का संचार करती है । मनुष्य के मन में कठिनाइयाँ और विफलताएँ आती है, विंâतु वे चिरस्थायी नहीं होती । पतन के उपरांत उत्थान और अंधार के पश्चात उजाले का क्रम निश्चित है । वस्तुतः आशा वह संजीवनी है, जो निराशा के रोग को समूल नष्ट करती है । आशा उत्साह की जननी है । यहीं उत्साह , आनंद जीवन की चिरसंचित अभिलाषा है ।
राजीव जी जिंदगी को उसकी संपूर्णता में जीने के अभिलाषी है । उनकी ़ग़जलों में ‘जिंदगी’ के इतने रूप, रंग और शेड््स मिलते हैं, जितने अन्यत्र दुर्लभ है । इसका अर्थ उनका ़ग़जलों में अपने समय की विसंगतियाँ, विडंबना, शोषण, अनाचार, मूल्यहीनता, पाखंड, वुंâठा, भय, अवसाद, आधुनिकता बोध, सामाजिक चेतना आदि नहीं है ऐसा नहीं परंतु जिंदगी के इन रूप, रंग और शेड््स को इतने करीबी, करीने से और शिद््दत से अनुभव करते हैं कि जैसे जिंदगी उनका विकल्प बन गई हो ।
जिंदगी गुमनाम होती जा रही है
श़िख्सयत नीलाम होती जा रही है ।
रंग उल़्फत का न बू–ए–दोस्ती है,
बेम़जा एक जाम होती जा रही है ।(१)
साहित्य का मुख्य पात्र और उसका मुख्य वेंâद्र कोई और नहीं, आदमी और केवल आदमी है । आदमी के बीच आदमियत का अभाव भूमंडलीकरण या वैश्वीकरण की देन है । इस युग में ‘उस’ आदमी की खोज साहित्य–रचना का धर्म है और ‘उस’ आदमी की खोज ही कलम के सेनानियों का प्रारब्ध है । इंसान के बीच इंसानियत के अभाव को ‘राजीव’ जी बड़ी शिद््दत से प्रस्तुत करते हैं –
है बहुत इंसा मगर इन्सानियत ही,
अब बराए नाम होती जा रही है ।
कुछ चुनिन्दा लोग ही बस ़खास है,
और जनता आम होती जा रही है । (२)
आज हिंदी ़ग़जलों का क्षितिज विस्तृत हुआ है । जीवन के कुछ और पहलू इसमें जुड़े हैं । उसके विषयों में विविधता आई हैं । आज ़ग़जलों को रोमांस, रूखों–जुल़्फ, हुस्नों शबाब के तंग दायरे से निकालने का दावा किया जा रहा है । यह बहुतांश प्रतिशत सही होने के बावजूद यह ़ग़जल का एक महत्वपूर्ण पक्ष है । इसे नकारा नहीं जा सकता । राजीव जी ने ग़जल की विशेष संस्कृति को सँभालने और बनाए रखने की भी विशेष कोशिश की है । हिंदी स्वभाव वाली ग़जल के नाम पर इसकी कोमल संस्कृति के साथ छेड़छाड़ की जाती रही है , उससे बचे रहने का प्रयास इस ़ग़जल संग्रह में हुआ है ।
इक रो़ज उनको बेऩकाब देख लिया था
जागी हुई आँखों से ़ख्वाब देख लिया था
ना़जुक लऱजते लब वो यूं हौले से खुले थे
जैसे कोई खिलता गुलाब देख लिया था ।
ऩजरे चुरा के हमको भी देखा उन्होंने था
खोले हैं वो उल्टी किताब देख लिया था
क्योंकर कटी थीं रात की तन्हाइयां न पूछ
बदमस्त मजस्सम शबाब देख लिया था । (३)
‘भीतर शोर बहुत है’ की भूमिका में डॉ. गिरिराजशरण ने ़ग़जल के विस्तृत आँगन, विषयों की विविधता, जीवन और समाज के अधिक पहलुओं को समेटने के संदर्भ में कहा था– ‘’मुझे इसे इंकार नहीं है, लेकिन एक जरूरी बात जो मैं कहना चाहता हूँ, वह यह है कि विषयों की विविधता तथा जीवन और समाज के नित–नए संदर्भों को ग़जल में समटने का प्रयास, प्रेमभाव के शयन–कक्ष से निकलकर ़ग़जल को जीवन के काँटों–भरे रास्ते में ले आने और उसकी दुनिया को अधिक पैâलाने की कोशिश अपने–आपमें कोई बड़ी और अति महत्वपूर्ण उपलब्धि नहीं है, उपलब्धि इसे तब माना जाएगा, जब ़ग़जल उसी तरह अपने रंग–रूप में सजी सँवरी रहे, जैसी वह शयन–कक्ष में थी । उसकी शोभा और साज–सज्जा खंडित न हो । यह कार्य कठिन है और सामान्य से अधिक सावधानी चाहता है ।’’ (४)
अच्छी ़ग़जलों की समूची विशेषताएँ (बावजूद आज ़ग़जल समाज के विविध विषयों से जुड़ी हो) जैसे– प्यार और विरह, वियोग वर्णन, आशि़क और माशू़क के दिलों में होने वाली बातें , माशू़का की खूबसूरती के अलावा उसकी खूबियों का भी बयान ़ग़जल में करने से माथुर साहब को कोई परहे़ज नहीं है ।
उदा–
बिजलियों का खौ़फ क्या होगा हमें,
हमने तो देखी है वो ़कातिल अदाएं
जाम उनके नाम का पीकर चलो,
फिर ़ख्यालों–़ख्वाब की ब़ज्में सजाएं । (५)
माशू़का के बेरूखी का अंदा़ज–ए–बयाँ क्या खूबसूरत है । एक बानगी देखिए –
वो शो़ख निगाहों से, क्या कर गये इशारे
मुश्किल से कट रहे हैं, शामों–सहर हमारे
तू़फान हसरतों का, सीने में उठ रहा है
डूबे है दिल की कश्ती, मिलते नहीं किनारे
धड़कन हमारी सुन के, वो ़गैर से पूछे हैं
ये कौन है दिवाना, पल–पल हमें पुकारे । (६)
‘कुछ रंग जिंदगी के’ में ग़जलकार माथुर साहब ने अपने इर्द–गिर्द की जिंदगी को ़गौर से देखा है, भोगा है, महसूस किया है –
जिनके अपने ़करीब होते हैं
वो बड़े ़खुशनसीब होेते हैं ।
तंगदिल लोग जो अमीर सही
दर असल वो गरीब होते हैं । (७)
माथुर साहब उर्फ ‘राजीव’ जी के यहाँ जिंदगी चुभते हुए एहसास का नाम है, एक शेर दृष्टव्य है –
जिन्दगी एहसास का ही नाम है
सांस लेना तो फकत एक काम है (८)
वास्तविक ़ग़जल का वेंâद्रीय विषय प्रेम रहा है । एक अलग काव्य–विधा के रूप में ़ग़जल के उद््गम का स्त्रोत मुख्यतः प्रेमाभिव्यक्ति ही रहा है । प्रेम को व्याख्यायित करते हुए स्वामी रामतीर्थ ने कहा है – ‘’सच्चा प्रेम सूर्य की तरह आत्मा के प्रकाश को पैâलाता है । प्रेम का अर्थ है – वास्तविक सौंदर्य का दर्शन । यह सत्य है कि जिसने कभी प्रेम नहीं किया उसे ईश्वर की प्राप्ति हो ही नहीं सकती ।’’(९)
मनुष्य जीवन का सबसे कोमल पक्ष प्यार है और दिल उसका आश्रय । दिल पर प्यार की जो इबादत लिख दी जाती है । वह अमिट ही रहती है ।
सूरत वो दिल नशीन, ़जहन में उतर गयी
़ख्वाबों में शब, ़खयाल में शामों सहर गयी
इतराई यूं फिरे सबा, अपने नसीब पे
बिखरा के जु़ल़्पेâ ना़जनी ये खुद संवर गयी । (१०)
ह््दय में प्रेम की भावनाएँ मचलना सहज है । जिस ह््दय में प्रेम मचलता नहीं उसकी तुलना माथुर साहब खाली जाम से करते हैं ।
दिल ही क्या जो प्यार से छलका न हो
यूं समझिये एक खाली जाम है
शम्अ रौशन देख परवाना जले
जलने वालों का यही अंजाम है ।(११)
विरह पीर बड़ी कष्टप्रद होती है । वियोगावस्था में प्रिय की स्मृति जीवन का आधार बन जाती है । विरह प्रिय की स्मृतियों में निस–दिन–आकुल–व्याकुल रहता है । प्रियतमा की याद में प्रेमी का दिल सुलगता रहता है । आँसू लगातार बहने लगते है । वियोग की स्थिति में तड़पते हुए प्रेमी को उन्होंने अत्यंत मार्मिक अभिव्यक्ति दी है –
हां हसरतों को मैंने नीलाम कर दिया है
एवज में जो मिला वो तेरे नाम कर दिया है
हासिल हुए थे मुझको वैसे तो अश्क लेकिन
़खूने जिगर मिला कर उन्हें जाम कर दिया है ।
मासूमियत पे तेरी अब कोई दिल न देगा
तेरी बेदिली का चर्चा सरे–आम कर दिया है । (१२)
प्रेम में मिलन का पल क्षणिक होता है । विरह चिरकाल होता है । यह एक तड़पन है । प्रेमी युगलों के लिए विरह असहनीय होता है । लेकिन जब प्रेमिका निर्मोही हो जाती है तब प्रेमी के दिल की आकुलता का क्या कहना । ़ग़जलकार का प्रेमी अपनी प्रेमिका के निर्मोहीपन पर चीत्कार उठता है –
कितना आसां था, घरोंदा बना के तोड़ गये
हमें वो अपना, दिवाना बना के छोड़ गये
वो जिनके एक, तबस्सुम पे दिल निसार किया
हमारा नाता वही, दर्दो–गम से जोड़ गये
़ख्बाब में भूल से, आगोश में उनको जो लिया
अपने अंदा़जे–बेरूखी से–वो झिझोड़ गये । (१३)
कुल मिलाकर उनकी ग़जलों में एक नयी सोच, एक नया अंदाज, एक नया मिजा़ज और एक नया तेवर मिलता है ।
इस संग्रह की ग़जलों की भाषा पर दृष्टि डाली जाए तो हम निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि इनकी भाषा बोलचाल की भाषा है । हाँ, कहीं–कहीं उर्दू –़फारसी के शब्दों का प्रयोग किया गया है , जो लालित्य पैदा करते हैं । इस संग्रह में ़फारसी–उर्दू शब्दावली का प्रयोग अत्यधिक मात्रा में हुआ है । जिससे ़ग़जलें प्राणवान हुई है । क्योंकि उस भाषा में भी एक रवानगी है । जिससे भाषा को जीवन्तता प्राप्त हुई है । अर्थात इस ़ग़जल संग्रह का भाव–पक्ष जितना सबल है, कला–पक्ष भी उतना ही सबल है ।
संदर्भ :-
१) ‘कुछ रंग जिंदगी के’ – आर.के. माथुर ‘राजीव’ प्रकाशन रामपुर ऱजा लाइब्रेरी रामपुर उ.प्र. पृ. २६
२) पूर्ववत पृ. २६
३) पूर्ववत पृ. १५
४) ‘भीतर शोर बहुत है’- डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल – प्रकाशन हिंदी साहित्य निकेतन बिजनौर पृ. ६–७
५) ‘कुछ रंग जिंदगी के’ – आर.के. माथुर ‘राजीव’ प्रकाशन रामपुर ऱजा लाइब्रेरी रामपुर उ.प्र. पृ. ७
६) पूर्ववत पृ. १३
७) पूर्ववत पृ. १०
८) पूर्ववत पृ. २२
९) हार्ट ऑफ राम– स्वामी रामतीर्थ पृ. १३०–१३१
१०) ‘कुछ रंग जिंदगी के’ – आर.के. माथुर ‘राजीव’ प्रकाशन रामपुर ऱजा लाइब्रेरी रामपुर उ.प्र. पृ. १७
११) पूर्ववत पृ. २२
१२) पूर्ववत पृ. २८
१३) पूर्ववत पृ. २५