‘मौत का उत्सव’ संजीवनी बूटी, बढ़ाएगी प्रतिरोधक क्षमता :: रूपम झा

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‘मौत का उत्सव’ संजीवनी बूटी, बढ़ाएगी प्रतिरोधक क्षमता
– रूपम झा
मौत का उत्सव वरिष्ठ कवि रवि खण्डेलवाल जी रचित एक काव्य संग्रह है जिसे कवि ने कोरोनाकाल की त्रासदी के दौरान लिखा है।
कोरोनाकाल में जहां संपूर्ण भारत मौत के भय से आतंकित था सरकार से लेकर आम जनता तक त्राहिमाम की गुहार लगा रही थी उस दौरान कवि काव्य के रूप में कालजयी इतिहास रच रहे थे। स्वयं पूरे परिवार के साथ काल के गाल में समाने का डर लेकर कवि आम लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा रहे थे कलम की नोक से आशा का बीज बोकर ।
सरकार ने एक नारा दिया था आपदा में अवसर को बदलने का जिसे हर वर्ग के लोग हरेक प्रकार से परिभाषित करने में लगे थे। आज भी वो परिदृश्य याद करते हैं तो मन क्या रूह तक काँप जाती है । लगता था शायद कभी किसी दिन हम भी काल के भोग न लग जाएँ ऐसी विषम परिस्थिति में कवि स्वयं रोग ग्रस्त थे उनकी लेखनी निर्भीक चलती रही अपने भोगे हुए संवेदना लिए ये कोई कम बड़ी बात नहीं ।
कोरोना तो काल था जाते- जाते कितनों को लील गया। कवि भी इससे अछूते नहीं रहे उन्होंने भी अपनी माँ समान माँसी और सासू माँ
को खोया फिर भी वे हतोत्साहित नहीं हुए क्योंकि उनको इतिहास रचना था ।
जब-जब इस काव्य संग्रह को पढ़ा जाएगा उस
त्रासदी का परिदृश्य परिलक्षित होगा ।
संपूर्ण काव्य संग्रह संभवतया छ: विधाओं में लिखी गई है। नवगीत, कविता, दोहा, ग़ज़ल, अशआर और मुक्तक ।
सभी विधाओं में कवि के हृदय का भाव एक समान छलक कर बाहर आया है। इससे यह भी ज्ञात हो जाता है कि कवि की लेखनी सभी विधाओं में धाराप्रवाह चलती है।
संपूर्ण काव्य संग्रह पढ़ने के बाद मुझे जहां तक महसूस हुआ कि – कवि एक असह्य संवेदना से
गुजरे होंगे, जिस प्रकार एक नारी किसी जीव को जन्म देते हुए प्रसव वेदना से पीड़ित होती है उसी प्रकार एक समृद्ध कवि भी भोगे हुए सत्य की वेदना से तड़प तड़प कर एक कविता को जन्म देता है और जो सत्य भोगा जाता है उस पर लिखी गई भावाभिव्यक्ति नि: संदेह ही युगों तक संचित और चर्चित रहती है।
इस काव्य संग्रह को पढ़ते पढ़ते मेरे ज़ेहन में कोरोना त्रासदी के दहकते परिदृश्य फिर से उभर आए । इस काव्य संग्रह की पहली रचना ही झिंझोड़ गई –
“सन्नाटे ने
पाँव पसारे
चलती सड़कों पर
अँधियारों ने
कालिख पोती
दिन के चेहरों पर
दहशत घुली
हवाओं में
दम निकले खुशियों के”
इस कविता की रचना कवि ने तब की जब रातों रात जनता कर्फ्यू के कारण समस्त भारत में यातायात के साधन बंद कर दिए गए । जो जहां
था वहीं स्थिर हो गया। आवागमन के सारे संसाधन बंद हो गये, सड़कों पर सन्नाटा पसर गया , गली, चौक, चौराहों के शोरगुल वीरानियों में तब्दील हो गये।
अगला नवगीत भी कवि का,  दर्द हद से गुज़रा है क्योंकि उन्होंने असमय ही अपनी माँसी और सासू मां को खोया है ।
कवि लिखते हैं –
“पल पल पाले
उम्मीदों की
भरते रहे उसाँसें
साँसों को
जीवन मिल पाया
ना जीवन को साँसें
सच बोला, यों बुरे समय में
असमय भले गए”
एक बड़ी प्रचलित पंक्ति है कि ‘अपने तो अपने होते हैं’ परंतु इस अभागे वायरस ने तो अपनों को ही अपनों से दूर कर दिया था।
कवि की संवेदना देखिए –
“अपनापन भी हुआ है वंचित
देखो अपनों से
औ’ भविष्य भी बिछड़ गया है
भावी सपनों से
समय सभी का रह-रह कर अब
हाथ रहा है मल”
कविता खंड में प्रवेश करते ही कवि सरकार की अंधविश्वासी आस्था पर करारा चोट करते हैं –
“अँधेरा मिटता है
जिंदगी का
देश, समाज और
व्यक्ति के विकास से
अँधेरा मिटता है
साधन और
संसाधनों की
उपलब्धता के उजास से
अँधेरा मिटता है
ज़िंदगी का
चूल्हे की और
सीने की आग को
सुलगाने से
बंधु
नहीं मिटता
ज़िंदगी का अँधेरा
मोमबत्ती और दियों के
जलाने और जगमगाने से”
वाह! कटु सत्य। मुझे यह लिखते हुए अतीव प्रसन्नता हो रही है कि हाँ मेरी भी यही विचार धारा है – जीवन का अँधेरा सिर्फ दिया जलाने से नहीं मिटता परन्तु अपने अंदर कर्मठता और कर्त्तव्यपरायण की आग जलाने से ही मिटता है।
कवि की लेखनी ने सरकार के द्वारा ताली, थाली, शंख बजाने की प्रक्रिया पर जबरदस्त कुठाराघात किया है – कहते हैं –
तुम ताली और थाली
बजाकर
दिया और बाती जलाकर
मना ही लेते हो उत्सव
जहां तक मैं समझ पाई हूँ इसी कारण कवि ने अपने काव्य संग्रह का शीर्षक ‘मौत का उत्सव’ रखा। एक तरफ मौत का तांडव मौत की नंगी चाल चल रही थी और दूसरी तरफ लोग सरकार का फरमान मानने हेतु ताली थाली बजा रहे थे कई जगह सरकार के अंधभक्तों ने तो पटाखे भी जमके फोड़े थे ।
वाह रे व्यवस्था “एक के घर मौत दूसरे के घर शंखनाद’
आपदा को अवसर में बदलने की बात को कवि ने सीधे सीधे कला का नाम देते हुए लिखा –
“ये वो कला है
जो वेंटीलेटर पर
लाश में तब्दील हो गए
मरीज़ के परिजनों से
झांसा देकर
इलाज के नाम पर
करती है मोटी
रकम की वसूली”
इस पंक्ति में सौ फीसदी वास्तविकता है । सोच कर देखें जो इस स्थिति को भोगता है वो कितना रोता है, ऐसी संवेदना को पंक्तिबद्ध करने में कवि कितना रोया होगा ?
कोरोना के तीनों वेरिएंट का जिक्र करते हुए कवि ने कोरोना इतिहास लिखा है ।
इस दौरान सच क्या था और झूठ क्या इससे जनता अवगत नहीं हो पाई , न्यूज चैनल कुछ आंकड़े परोसता था और मीडिया वाले कुछ और । सब अपने निजी कर्मों को भूलकर सरकार के इशारे पर नाच रहे थे इन सब अंध व्यवस्था से कवि का हृदय मर्माहत था , उनकी लेखनी ने भी कहा –
“सच देखना
और दिखाना
बाधित है मेरे दोस्त
सच तो यह है
कि हम
सच को भी अपने-अपने
हिसाब से देखने के
आदी हो गए हैं”
अन्तर्व्यथा से पीड़ित होने के बावजूद कवि का हौसला देखिए जो स्वयं के साथ साथ भारत की
जनता को भी ऐसी विपदा ग्रस्त हालातों से
लड़ने की प्रेरणा देती है
“खुली हथेली को
बंद कर
मुट्ठी की भांति
जमकर कसो
और रचो
एक नया इतिहास”
कवि हृदय की अंतर्वेदना कराहती है , कहते हैं इस देश में सबसे ज्यादा त्रस्त कौन है क्योंकि वह हर दृष्टिकोण से मजबूर है उसके पास हक के नाम पर केवल कर्तव्य है अधिकार नगण्य है
उसी के दम पे विकास की गाड़ियां दौड़ती हैं किन्तु उन मजदूरों का विकास होना कदापि संभावित नहीं , ओह! कितनी पीड़ा है मजदूरों के प्रति ।
दोहा खण्ड में भी वही दर्द दोहराया गया है पृथक पृथक भाव के द्वारा और कोरोना से कैसे बचना है ये दोहे के माध्यम से समझाया है । सावधानी से ही कोरोना से मुक्ति मिलेगी ये बतलाने की कवि ने पूरी पूरी कोशिश की है –
जो  होना  था  हो  गया,  बैठो  मत  असहाय
कोरोना  का  सोचिए, मिलकर  सभी  उपाय
एक बात और भी उस दौरान प्रचलित थी कि कोरोना का वेक्सीन नहीं लेना है , पता नहीं क्या है लोग तरह तरह की अफवाह फैला रहे थे
उस पर कवि का सुझाव सराहनीय है
कोविशील्ड  के  ले  लिए, सबने  इक-दो  डोज
बिना  डोज के  जो  बचे, कोविड  रहता  ख़ोज
लेकर   तू   भी   डोज  दो, पूरे   कर   अरमान
जीवन   बहुत   अमूल्य  है, मत  चूके   चौहान
ग़ज़ल खंड में प्रवेश करने के साथ ही कवि उस अज्ञात शक्ति पर भरोसा करते हुए जन जीवन को यथार्थ का बोध कराते हैं
सत्य  के  अधीन  है
सृष्टि का विधान भी
ब्रह्म वाक्य ब्रह्म मंत्र
जान भी  जहान भी
आगे इस बहरी गूँगी और लंगड़ी सरकारी व्यवस्था पर कवि का आक्रोश देखिए –
राजगद्दी    जिंदगानी   से   प्रमुख   है ?
कैसे    समझाऊँ   उन्हें,   कैसे   बताऊँ
जान लेवा  इस व्यवस्था को  न क्यों मैं
चीर   डालूँ,  फाड़   डालूँ,  काट   डालूँ
कवि हृदय की संवेदना चीत्कार कर कहती है
क्या  करूं  बस में मेरे  कुछ भी नहीं है
चाहता  है  जी कि  मैं  सबको  बचा लूँ
कोरोना के दौरान मरकज वाली वारदातों के संदर्भ में जब मजहबी हवा चली थी उस पर कवि का व्यंग्य देखते बनता है
इस शेर को देखें
था  रहा   चीनी  कोरोना,  जब  चला   वोहान से
इंडिया में  आते – आते  ‘रवि’  मुसलमां  हो गया
काव्य संग्रह का अंतिम खंड है ‘मुक्तक खण्ड’
बड़े ही अर्थ पूर्ण मुक्तकों के द्वारा कवि ने कोरोना के दौरान घटी घटनाओं से साक्षात्कार कराया है वैसे सभी मुक्तक अपने आप में प्रभावकारी हैं किन्तु कोरोना वारियर्स को समर्पित ये चार पंक्तियां देखिए –
सुरक्षा  में   हमारी  जो  लगे  दिन  रात  हैं यारो
हमारे स्वास्थ्य की खातिर जगे दिन रात हैं यारो
उन्हें सैल्यूट है रवि का, उन्हें सैल्यूट है कवि का
वो जो  निस्वार्थ  सेवा में  लगे  दिन रात हैं यारो
इस पंक्ति से स्पष्ट सिद्ध होता है कि कवि का हृदय बहुजन हिताय बहुजन सुखाय के बोध से पूर्णतया अभिलषित है
कुल मिलाकर संपूर्ण काव्य संग्रह पढ़ने के बाद यह निष्कर्ष निकलता है कि वरिष्ठ कवि खण्डेलवाल जी की यह कृति वो संजीवनी बूटी है जो चिरकाल तक काव्य जगत में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने का कार्य करेगी । कोरोना जैसी महामारी को तो लोग भूल भी जाएँ परंतु यह काव्य संग्रह उस त्रासदी को भूलने नहीं देगी । कठिन परिस्थितियों से निजात पाने के सारे गुर निहित हैं इस अनुपम कृति में , पाठकों से अनुरोध है एक बार अवश्य पढें । कवि को मेरी तरफ से हार्दिक बधाई जो उन्होंने ये धरोहर हम साहित्य प्रेमियों को सोंपा ।
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समीक्षक : रूपम झा
एस-1, ए-187 एकता सदन
शालीमार गार्डन एक्सटेंशन -2
साहिबाबाद, गाजियाबाद (उ.प्र.) 201005
मो. 8447429757
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