विशिष्ट कहानीकार : सुशांत सुप्रिय

( यासुनारी कावाबाटा की जापानी कहानी " द मोल " का अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद ) मस्सा -  अनुवाद : सुशांत सुप्रिय कल रात मुझे उस मस्से के बारे में सपना आया । ' मस्सा ' शब्द के ज़िक्र मात्र से तुम मेरा मतलब समझ गए होगे । कितनी बार तुमने उस मस्से की वजह से मुझे डाँटा है । वह मेरे दाएँ कंधे पर है या यूँ कहें कि मेरी पीठ पर ऊपर की ओर है । " इसका आकार बड़ा होता जा रहा है । और खेलो इससे । जल्दी ही इसमें से अंकुर निकलने लगेंगे । " तुम मुझे यह कह कर छेड़ते , लेकिन जैसा तुम कहते थे , वह एक बड़े आकार का मस्सा था , गोल और उभरा हुआ । बचपन में मैं बिस्तर पर पड़ी-पड़ी अपने इस मस्से से खेलती रहती । जब पहली बार तुमने इसे देखा तो मुझे कितनी शर्मिंदगी महसूस हुई थी । मैं रोई भी थी और मुझे तुम्हारा हैरान होना याद है । " उसे मत छुओ । तुम उसे जितना छुओगी , वह उतना ही बड़ा होता जाएगा । " मेरी माँ भी मुझे इसी वजह से अक्सर डाँटती थी । मैं अभी छोटी ही थी , शायद तेरह की भी नहीं हुई थी । बाद में मैं अकेले में ही अपने मस्से को छूती थी । यह आदत बनी रही , हालाँकि मैं जान-बूझकर ऐसा नहीं करती थी । जब तुमने पहली बार इस पर ग़ौर किया तब भी मैं छोटी ही थी , हालाँकि मैं तुम्हारी पत्नी बन चुकी थी । पता नहीं तुम , एक पुरुष , कभी यह समझ पाओगे कि मैं इसके लिए कितना शर्मिंदा थी , लेकिन दरअसल यह शर्मिंदगी से भी कुछ अधिक था । यह डरावना है -- मैं सोचती । असल में मुझे तब शादी भी एक डरावनी चीज़ लगती । मुझे लगा था जैसे तुमने मेरे रहस्यों की सभी परतें एक-एक करके उधेड़ दी हैं -- वे रहस्य , जिनसे मैं भी अनभिज्ञ थी । और अब मेरे पास कोई शरणस्थली नहीं बची थी । तुम आराम से सो गए थे । हालाँकि मैंने कुछ राहत महसूस की थी , लेकिन वहाँ एक अकेलापन भी था । कभी-कभी मैं चौंक उठती और मेरा हाथ अपने-आप ही मस्से तक पहुँच जाता । " अब तो मैं अपने मस्से को छू भी नहीं पाती । " मैंने इस के बारे में अपनी माँ को पत्र लिखना चाहा , लेकिन इसके ख़्याल मात्र से मेरा चेहरा लाल हो जाता । " मस्से के बारे में बेकार में क्यों चिंतित रहती हो ? " तुमने एक बार कहा था । मैं मुस्करा दी थी , लेकिन अब मुड़ कर देखती हूँ , तो लगता है कि काश , तुम भी मेरी आदत से ज़रा प्यार कर पाते । मैं मस्से को लेकर इतनी फ़िक्रमंद नहीं थी । ज़ाहिर है , लोग महिलाओं की गर्दन के नीचे छिपे मस्से को नहीं ढूँढ़ते फिरते । और चाहे मस्सा बड़े आकार का क्यों न हो , उसे विकृति नहीं माना जा सकता । तुम्हें क्या लगता है , मुझे अपने मस्से से खेलने की आदत क्यों पड़ गई ? और मेरी इस आदत से तुम इतना चिढ़ते क्यों थे ? " बंद करो ," तुम कहते , " अपने मस्से से खेलना बंद करो । " तुमने मुझे न जाने कितनी बार इसके लिए झिड़का । " तुम अपना बायाँ हाथ ही इसके लिए इस्तेमाल क्यों करती हो ?...

है सूरज छिपा कहाँ पर – मुकेश कुमार सिन्हा

गांव और प्रकृति की संवेदनशील कवयित्री गरिमा सक्सेना - मुकेश कुमार सिन्हा आलोचकों की हमेशा शिकायत रहती है कि नई पीढ़ी साहित्य का बँटाधार कर...

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नई समीक्षा : ईदगाह (मुंशी प्रेमचंद) – मधुकर वनमाली सत्यम‌ शिवम‌ सुंदरम ईदगाह, हिन्दुस्तान की कहानी है।वह हिन्दुस्तान जिसकी तहजीब आज खो गई है।वही तहजीब...