उम्र भर हम सफर में भटकते रहे…
अभी मौजूदा शायरी (मैं उर्दू और हिंदी गजलों के विवाद में पड़ना नहीं चाहता) के दौर में मुशायरों में धीरे-धीरे संजीदगी से अपनी जगह बनाता एक नाम आराधना प्रसाद का है। मुशायरा में अपने ग़ज़लों की अदायगी में आराधना प्रसाद के साथ सोने में सुहागा वाली बात हो जाती है क्योंकि वह एक तजुर्बे कार गुलूकारा भी है और कुछ तो कुदरती देन और फिर मौसिकी के मुसलसल रियाज़ ने इनकी आवाज़ को एक पुरसुकून ताज़गी अता की है, जो इनकी ग़ज़लों को सामयीन के दिल में एक पुरअसर लताफ़त के साथ उतारने में कामयाब होती है।
ऐसा नहीं कि मुशायरों में सामयीन के जज़्बात के हमराह चलने वाले इनके कलाम सिर्फ आवाज़ के सुरीलेपन से यह मोजज़ा पैदा करते हैं।जब आराधना प्रसाद तरन्नुम के बदले तहत में भी अपने गजलें पढती है तो सामयीन के ज़हनो-दिल से उतनी ही आसानी से राब्ता क़ायम कर लेती है क्योंकि इन्होंने अपने गजलें ईमानदारी से महसूस किए गए जाति तजरबात, एहसासात और मुशाहिदे पर कही है।
मुझे पटना(बिहार) के एक- दो दूर-दराज़ जिलों में इनके साथ मुशायरा पढ़ने का शर्फ़ हासिल हुआ है, गरचे इन्होंने दूसरी रियासतों और ऑल इंडिया मुशायरों में भी शिरकत की है, जहां तक मेरी रसाई न थी। साथ ही मौजूदा मजमुए ‘चाक पर घूमती रही मिट्टी’ को भी इशायत के दौर में मैंने शुरू से आख़िर तक पढ़ा है। इसलिए दोनों सूरतों मैं उनकी तहरीर का चश्मदीद गवाह होने की बिना पर और एक कारीं व सामे के तौर पर मैं कह सकता हूँ कि आराधना प्रसाद के कलाम (उर्दू हिंदी की आलोचकों का जो भी फैसला हो) दिल से निकले हुए और सहल ज़बान में अदा किए हुए वे तोहफ़े हैं जिसे अदब का कोई भी बाजौक़ तालिब बख़ुशी क़बूल कर लेगा।
ग़ज़लें इशारों में बात करती हैं। बहुत मशक्कत पड़ती है इसमें। किसी भी धातु का महीन तार चाहिए तो बहुत कूटना पीटना पड़ता है। वही मुआमला ग़ज़ल का भी है। और यह कारसाज़ी काग़ज़ क़लम और अल्फ़ाज़ के साथ नहीं, बल्कि दिल और उनके एहसासात एवं नज़र व उसके मुशाहिदे के पैमाने पर करनी पड़ती है। अगर ऐसा नहीं हो तो शे’र सतही हो जाते हैं और नारेबाजी चाहे सियासी या एहसासात की बन कर रह जाते हैं। क़ाबिले-गौर है कि आराधना प्रसाद की ग़ज़लें सतही इज़हार से बचती और इशारों में बात करती नज़र आती हैं। जैसे-
मेरी वहशतज़दा निगाहों को
खूबसूरत बहुत लगी तितली
तेरी आंखों को देखकर ये लगा
फूल चुप और बोलती खुशबू
अगर आप इस मजमुए को सरसरी तौर पर पढें तो शायद शेरों की तह मे छिपे गहरी मआनी आपकी नज़रों से फिसल जाएं। अमीर मीनाई ने फरमाया है-
कौन सी जा है जहां जलवा-ए- माशूक नहीं
शौके-दीवार अगर है तो नजर पैदा कर
जैसे आराधना प्रसाद का इसी मजमुए से एक शे’र देखें-
वहां क़ैस ने खो दिया था सभी कुछ
यहां बन गया है ये सहरा तमाशा
सरसरी नज़र में तो ये मुहब्बत और आने वाले ज़माने में उसकी नाकद्री का बयान लगता है,लेकिन मेरी नजर में यह ख़ालिस सियासी शेर है और बड़े इशारे से ख़ुद परस्त सियासतदानों पर तंज़ करता है जिन्होंने आज़ादी के दीवानों की कुर्बानियों को अपने फायदे के लिए शो केसिंग का सामान बना दिया।
ऐसा नहीं है कि पेशकर्दा गजलों में मोहब्बत, तर्के-तआल्लुक, ख्वाब, फूल, खुशबू सितारों और बचपन, जवानी बुढापे और मौत का ज़िक्र नहीं। चूंकि शायरा ने संजीदगी से जिंदगी और एहसासात के तकरीबन हर पहलू पर गौर किया है ,इन्हें आप अपने एहसासात, तजुर्बे और मुशाहिदात के आईने के तौर पर देख पाएंगे।
अपनी बातों की तस्दीक करने के लिए मैं इस मजमूए से बहुत सारे हवालात नहीं दूंगा बल्कि इल्तिज़ा करूंगा कि आप खुद अपनी नज़र से सारी ग़ज़लों का लुत्फ़ उठाएं।
मुझे लगता है कि कई सदियों से शायरों के इस दीवाना क़बीले ने एहसासात का जो ज़खीरा इकट्ठा किया है उसमें ‘चाक पर घूमती रही मिट्टी’ की गजलें एक अहम इजाफ़ा साबित होंगी
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पुस्तक समीक्षा-
पुस्तक- चाक पर घूमती रही मिट्टी
ग़ज़लकार- आराधना प्रसाद
समीक्षक- संजय कुंदन
प्रकाशन – ग्रंथ अकादमी, नई दिल्ली
मूल्य-250/