आम आदमी का स्वर ‘रास्ता बनकर रहा’ :: अविनाश भारती
राहुल शिवाय की पुस्तक ‘रास्ता बनकर रहा’ की समीक्षा
सद्य प्रकाशित संग्रह ‘रास्ता बनकर रहा’ राहुल शिवाय का पहला ग़ज़ल संग्रह है। इससे पूर्व इनके गीत, दोहा एवं काव्य संग्रह पाठकों के बीच बेहद लोकप्रिय रहे हैं। ग़ज़ल के अलावे दोहा, कविता, गीत और कुण्डलिया जैसी छंदबद्ध विधाओं में राहुल शिवाय अपनी अमिट छाप छोड़ने में सफल रहे हैं। हालाँकि पूर्व से हीं पाठक इनकी ग़ज़लों से भली-भाँति अवगत रहे हैं। इनकी ग़ज़लें निरंतर हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने को मिलती हैं।
अगर इस संग्रह की बात करें तो पुस्तक की भूमिका हिन्दी के चर्चित ग़ज़लकार, समीक्षक व संपादक के. पी. अनमोल ने लिखी है जिसमें उन्होंने राहुल शिवाय को हिन्दी ग़ज़ल का एक और जनवादी स्वर माना है। साथ ही इनकी ग़ज़ल कहने की बेचैनी, इनके बेलौसपन, सामर्थ्य और प्रतिबद्धता को भी स्वीकार किया है।
संग्रह में शामिल ग़ज़लों से गुज़रते हुए राहुल शिवाय की लेखन-प्रतिबद्धता पर बार-बार नज़र पड़ती है। इनकी ग़ज़लें सामाजिक, राजनैतिक एवं धार्मिक विद्रुपताओं को मजबूती से रेखांकित करती हैं।
राजनीतिक सन्दर्भ में इनकी चेतना अन्य ग़ज़लकारों से भिन्न जान पड़ती है। इन्हें बख़ूबी पता है कि सत्ता का वास्तविक चरित्र क्या है या उनके काम करने का तरीका क्या है?
नेताओं की कथनी और करनी में ज़मीन और आसमान का फ़र्क़ होता है। और इसी फ़र्क़ को राहुल शिवाय अपनी ग़ज़लों का कथ्य बनाते हैं। इस बाबत इनका यह शे’र बेहद उल्लेखनीय हो जाता है –
आजकल जो उड़ रहे हैं रोज़ चार्टर प्लेन से,
वे चुनावी रैलियों में फिर दलित हो जाएँगे।
राहुल शिवाय, कम उम्र में ही अच्छी ग़ज़लगोई करने का मिशाल पेश कर चुके हैं। जहाँ इनकी उम्र के ज़्यादातर ग़ज़लकार प्रेमिका की जुल्फों पर क़सीदे पढ़ रहे हैं, वहीं इनकी ग़ज़लें आम-अवाम की बेचैनी, बेबसी और लाचारी की मुखर अभिव्यक्ति बन चुकी हैं। एक शे’र देखें –
हम वो हैं जिनकी रगों में दौड़ता मुंगेर है और,
वो हमें लहज़े से देहरादून करना चाहते हैं।
देश की तरक्की और मशीनीकरण ने भले ही सबकुछ आसान और सहज कर दिया हो, लेकिन इस तरक्की ने नई पीढ़ी को आलसी और परजीवी भी बना दिया है। नई पीढ़ी के भटकाव की एक बड़ी वज़ह हमारी यह तथाकथित उपलब्धियाँ भी हैं। इस सार्वभौमिक समस्या पर ग़ज़लकार की चिंता ध्यातव्य है। अश’आर देखें –
आज के इस दौर की उपलब्धियाँ जो हैं,
पीढ़ियों को एक दिन बेकार कर देंगी।
वैसे तो संग्रह में शामिल सभी ग़ज़लें एक से बढ़कर हैं। लेकिन ग़ज़ल का यह शे’र स्त्री विमर्श के नज़रिये से भी बेहद ख़ूबसूरत जान पड़ता है। नये अंदाज़ और मिज़ाज का यह अनोखा शे’र गौर करें –
कोई विश्वामित्र अब तो राम को लाता नहीं,
फूल के मानिंद कितने जिस्म पत्थर हो गए।
उपरोक्त शे’र में ग़ज़लकार की ग़ज़लगोई का हुनर दृष्टिगत होता है जिसमें राहुल शिवाय ने एक ही शे’र में कई प्रसंगों को बेहद सहजता से प्रस्तुत किया है।
संग्रह में इसके अलावे भी कुछ ऐसे अश’आर हैं जिनका सृजन सिर्फ़ राहुल शिवाय ही कर सकते हैं। कुछ शे’र देखें –
है टहनियों से मेरी जिसको छाँव की ख़्वाहिश,
मेरी जड़ों को वो गमले में क़ैद रखता है।
वहाँ मचलती हैं ग़ज़लों में अम्न की फ़सलें,
जहाँ पे लोग कलम को कुदाल करते हैं।
जंगलों से आ गये हैं इस नगर में लोग कुछ और,
जंगलों जैसा यहाँ कानून करना चाहते हैं।
समकालीन साहित्य में ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ पर विशेष बल दिए जाते हैं, जो सही भी है। लेकिन एक सच यह भी है कि आज के ज़्यादातर रचनाकार अपने पूर्ववर्ती रचना और रचनाकारों को पढ़े बगैर बेहतर साहित्य सृजन की चाह रखते हैं। इस सन्दर्भ में राहुल शिवाय की ग़ज़लधर्मिता वैसे रचनाकारों को आईना दिखाती है। इनकी ग़ज़लों में हिन्दी साहित्य के कई कालजई पात्रों को नये सन्दर्भ में अभिव्यक्ति मिली है। उदाहरणतया एक शे’र देखें –
बॉर्ड पर लिक्खा इलाहाबाद ग़ायब था,
पर अभी भी थी वहाँ वह तोड़ती पत्थर।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि राहुल शिवाय ने ग़ज़ल प्रेमियों और सुधी पाठकों के समक्ष बेहतर साहित्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। संग्रह की भाषा बेहद सरल व बोधगम्य है। ग़ज़लों में प्रतिकों एवं बिम्बों को यथोचित स्थान मिला है। राहुल शिवाय ने अपनी ग़ज़लों में हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध एवं कालजयी पात्रों को कई प्रसंगों में उधृत किया है जो बिल्कुल नये अर्थ का बोध कराते हैं।
इस संग्रह को पढ़ने के बाद मुझे पूरा विश्वास है कि कालांतर में जब भी हिन्दी ग़ज़ल की बात होगी, राहुल शिवाय की ग़ज़लधर्मिता को किसी भी शर्त पर नकारा नहीं जा सकेगा। और निश्चित तौर पे आने वाले समय में राहुल शिवाय की ग़ज़लें हिन्दी ग़ज़ल को उसके वांछित मुक़ाम तक ले जाने में सहायक होंगी।
और अंत में इस पठनीय एवं संग्रहनीय ग़ज़ल संग्रह के सृजन हेतु राहुल शिवाय जी को बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं।
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पुस्तक- रास्ता बनकर रहा
ग़ज़लकार – राहुल शिवाय
समीक्षक – अविनाश भारती
प्रकाशन – श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली
क़ीमत – ₹249
पृष्ठ- 111