सुशील कुमार की सात कविताएं
【1】
पगडंडियों पर चलते हुए मैंने देखा –
चरवाहे अपनी गायें चराते
गाते जा रहे थे
शायद कोई ताजा गीत, हां एक लोकगीत..
ओस से भींगे
मन का बासीपन हरते
बिना गीतकार रचे उस गीत में
कितनी रवानगी थी कि
गड़ेरिया तो मस्त था ही,
पत्ते, फूल और टहनियां भी मौसम के साथ
मस्त, झूम रहे थे उस अनाम गीत में
नदी हहरा रही थी,
कोयल कूक रही थी
मन डोल रहा था
भोर उजास से पूर गया था
न जाने किस गीतकार के उस बेनाम गीत से!
【2】
कभी तो भूल से सब कुछ भूलकर
खाली समय में लौट जाया करो यार ,
जहाँ तुम्हारे बचपन के दोस्त
गुल्लक के चंद खुचरों के साथ
दोस्ती निभाने का
आज भी इंतेजार कर रहे होंगे तुम्हारा
लोटन के गोलगप्पे की दुकान पर !
【3】
मत टोकना कोई दिदिया को मेरी
अगर खिड़की के बाहर
जाड़े की खिली धूप में
दूर देस से लौटी उस चिड़िया को
दाने चुगाने में मगन हो ओसारे में !
【4】
खेत में कविताएँ पक रही थीं
धान की बालियों पर
किसान के पास बस शब्द के हँसिए नहीं थे!
【5】
जितनी बार मैं सोचता हूँ तुम्हारे बारे में
उतनी बार तुमसे दूर ही चला जाता हूँ
जैसे ही भूलता हूँ तुम्हें
मेरी कलम पर आ मचलती हो
तू कोई कविता तो नहीं !
【6】
कभी तो हर चेहरे से तुम्हारा चेहरा मिलता है
कभी हर चेहरे में अपना चेहरा खिलता है
नजर का धोखा है कि
धोखे में नजर –
यह सोचता हुआ मैं
गुम हो जाता हूँ रोज
एक नए चेहरे की जद में आख़िरकार।
【7】
एक सूरदास आता था – एकतारा बजाता था
भरथरी के गीत गाता था
दीवार से ओट होकर दिदिया रोती थी
फिर अँचरा से आँसू पोछती थी ,
दो मुट्ठी चावल डालती थी उसके झोले में।
न दिदिया है आज न सूरदास
रात , सन्नाटे में
आज भी अंदर वह एकतारा सुनता हूँ
दिदिया की सिसकियों
और भरथरी-बिरहा-बैराग के बीच
सिहरते हुए स्वप्न से जगता हूँ।
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परिचय : सुशील कुमार रांची में रहते हैं. ये समकालीन कविता के चर्चित चेहरे हैँ. पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएं निरंतर प्रकाशित होती रहती है