विशिष्ट गीतकार :: दिनेश प्रभात
दिनेश प्रभात के चार गीत
शर्माने में सूद
आँगन जैसे युवा हो गया, देहरी हुई जवान
फागुन में गूँगी दीवारें, देने लगीं बयान
मौसम ने कुछ गीत रचे हैं
पुरवा ने कुछ छंद
पहन लिए क्वांरी फसलों ने
हँसकर बाजूबंद
कैंची जैसी चली मेड़ की, देखो आज ज़बान
फागुन में गूँगी दीवारें,.. देने लगीं बयान
तन जैसे बन गया सराफा
मन मीना बाज़ार
अंग-अंग की चमक-दमक से
किरणें हैं लाचार
पूनम का चंदा भी जैसे, टिमटिम दिये समान
फागुन में गूँगी दीवारें,…देने लगीं बयान
दो आँखें हो गईं गोपियाँ
मन में कृष्ण हज़ार
अंग-अंग में मथुरा, काशी
वृंदावन, हरिद्वार
पलकों-पलकों सिर्फ़ याचना लेने लगी उफान
फागुन में गूँगी दीवारें…. देने लगीं बयान
एक साथ खिल गये अधर पर
मानो ढेर गुलाब
आँखों में हो गई प्रकाशित
प्रेम की एक किताब
जितना खींचो छूट के जाए लाज की दूर कमान
फागुन में गूँगी दीवारें….. देने लगीं बयान
मुस्कानों में छुपा मूलधन
शर्माने में सूद
बतियाने में छुपा आम-रस
चुप्पी में अमरूद
सुर्ख गाल हैं सेवफलों की खासी एक दुकान
फागुन में गूँगी दीवारें…. देने लगीं बयान
गाँव ढूँढते हो
पहले काटा पेड़ और अब छांँव ढूँढते हो
पागल हो, तुम महानगर में गांँव ढूँढते हो
मिलने और मिलाने वाली
रीतों को छोड़ा
चिट्ठी – पत्री वाले सारे
रिश्तों को तोड़ा
अब मगरी पर तुम कौवे की कांँव ढूँढते हो
पागल हो, तुम महानगर में गांँव ढूँढते हो
जिसने प्यार दिया उसका
अहसान नहीं माना
चला धूप में साथ,उसी को
खूब दिया ताना
अनजानी बस्ती में अपनी ठांँव ढूँढते हो
पागल हो, तुम महानगर में गाँव ढूँढते हो
पहले दूर किया आँखों से
हीरे – मोती को
वॉट्सएप पर देख रहे अब
पोते – पोती को
सपने में, हर दिन नन्हें-से..पांँव ढूँढते हो
पागल हो तुम महानगर में गाँव ढूँढते हो
जितनी थीं अच्छी निशानियाँ
सभी मिटा डालीं
वर्तमान की सावधानियांँ
सब कल पर टालीं
जलते हुए मरुस्थल में जलगांँव ढूँढते हो
पागल हो, तुम महानगर में गाँव ढूँढते हो
धरती अपनी, अम्बर अपना
गीत बहुत गाए
सपने में भी क्या इनके तुम
पास कभी आए
इन्हें हराने के अक्सर बस दांँव ढूँढते हो
पागल हो तुम महानगर में गांँव ढूँढते हो
….बताशे घुल गए
स्वप्न दस्तक दे रहे
दहलीज पर
रास्ते अंँगड़ाइयों के खुल गए
कान में कितने बताशे घुल गए
अब भरोसा है कहाँ
ताबीज पर
उत्सवों से कौन रोकेगा भला
मन उड़ा तो कौन टोकेगा भला
उम्र-भर मौसम सुहाने
लीज पर
गेंद की मानिंद लुढ़के, आ गए
कुछ नयेपन ज़िंदगी को भा गए
देर तक अब सुख जमेंगे
क्रीज पर
आज माँ के गाल को देखो ज़रा
झुर्रियों तक में…सुहानापन भरा
गर्व है बेटी सरीखी…
चीज पर
आज बापू की भरी आँखें दिखीं
खेत से ज्यादा हरी आँखें दिखीं
मर मिटा भगवान इस
नाचीज पर
यार! ग्यारस ‘देवउठनी’ क्या बनी
ब्याह के पहले यहाँ छाती तनी
दो बधाई इस नई
तजबीज पर
मित्र बदलना सीख गये
नई – नई गलियों में वे अब,.. खूब टहलना सीख गये
मोबाइल के युग में पल पल, मित्र बदलना सीख गये
शौक रूठने का है…रूठो
उनके पास विकल्प बहुत
बड़ी सीख देने के रस्ते
छोटे – छोटे, अल्प बहुत
छोटे दरिया भी बारिश में…..खूब मचलना सीख गये
मोबाइल के युग में पल पल, मित्र बदलना सीख गये
सागर अब गम्भीर कहाँ है
नदी चंचला… कहाँ बची
मिलने को आतुर दुल्हन ने
आज महावर… कहाँ रची
मनमर्जी के गलियारों में,…लोग निकलना सीख गये
मोबाइल के युग में पल पल, मित्र बदलना सीख गये
यूँ तो.. बहुत निकट बैठे हैं
लेकिन सचमुच पास कहाँ
घर में साथ साथ हैं लेकिन
मन में वह….आवास कहाँ
कैसे – कैसे आचरणों में हम – तुम ढलना सीख गये
मोबाइल के युग में पल पल, मित्र बदलना सीख गये
छोटी – छोटी बातों पर मुँह
फूला…. फूला…. होता है
पूरा जग आँखों में, अपना
भूला…..भूला…. होता है
प्यारे – प्यारे चाँद, सितारे, आग उगलना सीख गये
मोबाइल के युग में पल पल, मित्र बदलना सीख गये
कहाँ स्वप्न की.. सीमा रेखा
कहाँ आयु…..का बन्धन है
एक उपकरण ही धड़कन है
वही साँस है,… चन्दन है
जिनको देखो वही आज, नींदों में चलना सीख गये
मोबाइल के युग में पल पल, मित्र बदलना सीख गये
पहले एक “निवेदन”आया
पल-दो-पल में “मित्र” बने
उभरी कुछ धुंधली रेखाएं
साफ-साफ फिर चित्र बने
थोड़े – थोड़े मीठेपन से,…लोग पिघलना सीख गये
मोबाइल के युग में पल पल, मित्र बदलना सीख गये
………………………………………………………..
परिचय :: दिनेश प्रभात वरिष्ठ गीतकार हैँ. मध्यप्रदेश सरकार के अलावा कई संगठनों का सम्मान प्राप्त है.