विशिष्ट कवि :: प्रमोद झा

प्रमोद झा की चार कवितायें

 

आखिरी चीख पत्थर की

जमीन, जंगल के आत्यन्तिक कटने से बेहद आक्रोशित आदिवासी युवक

शहरी चाल चरित्र औ चेहरो पर बडे हिकारत के भाव ही उभरते थे मन मे रोजाना मेहनतकशों, कमेरो संग वो बहाता पसीना, मछलियाँ मारता मधुमक्खियों के छत्ते तोडता

सूखी लकडियाँ इकट्ठा करता

चूहो के बिलो से भी निकाल लेता अनाज

जीने योग्य यही थे उसके औजार

 

शहर जाने वाले रास्ते पर खडे एक विचित्र अनगढ पत्थर को वह कभी सामन्त समझता

कभी जमीन्दार

गुस्से मे सरकार करार देकर भी गरियाता

बराबर उस काले पत्थर को थूक कर गुजरता था

एक दोपहर आपे से बाहर उठा लाया कुल्हाडा

तोडने लगा पत्थर

बार बार जैसे जगली पेडो से आवाज उभरी

ना तोडो इस पत्थर को

इसको भी साथी समझो लेकिन कुछ नहीं सुना उसने

ताबडतोड प्रहार

आखिरी चीख के साथ पत्थर चूर चूर

बहुत खुश था अब वो आदिवासी युवक

 

विष पीते रहेगें

कैसे सोच लिया तुमने कि अन्धेरे को उजाला, रात को दिन कहते रहेगें

कैसे सोच लिया तुमने तो

आवाम दमन ही दमन सहेगे

अमृत नहीं विष पीते रहेगें

कैसे सोच लिया तुमने कि सरस्वती माता का सगीत छोड़

हम तुम्हारे सुर मे सुर मिलाते रहेगें

 

कैसे सोच लिया तुमने कि

भूख से त्रस्त जनो के लिए हताश औ उदासो के लिए हम चुप ही चुप बैठेगे

कैसे सोच लिया तुमने कि मगरमच्छों का खेल और शेरो की चीरफाड़ चलती रहेगी

कैसे सोच लिया तुमने कि भीड पर जादू टोना करते रहेगें

वादो की बस्ती उजाडते रहेगें

कैसे तुमने सोच लिया कि मानवता को गोली मारते रहेगें

मोहब्बत पर नफरती लाठी चलाते रहेगें

कैसे सोच लिया तुमने कि

हम तानाशाही की तारीफ करते रहेगें मनमानी का महल बनाते रहेगें

कैसे सोच लिया कि जनता सोई है, सोने  देते हैं अपना सारा माल समेट लेते हैं

 

ये कैसा जन प्रतिनिधित्व

पूछता हूँ क्या मायने हैं इस जन प्रतिनिधित्व के

प्रतिनिधित्व के ठेकेदार राजनेता

सही मायने किसका करते हैं प्रतिनिधित्व

करोडों गरीबो, मजलूमों और साधनशून्य

लोगो का वास्तविक और ईमानदार प्रतिनिधित्वात्मक

आज भी  क्यों है सवालो  के बडे घेरे मे

 

जिनके वोट बटोर बटोर कर नेता

जन प्रतिनिधि कहलाते हैं

हर जगह स्वागत, अभिनन्दन

मगर जनमत के साथ मुसलसल

वही बलात कृत्यों का जालिमाना खेल

हर बार पावर, पालिटिक्स और

शस्त्र बल की दादागिरी मे गरीबों की एक बडी

आबादी छल, फरेब और घोटालों के जाल मे

फस कर रह जाती है

जगली बहेलियो के  मजबूत जाल मे फसे

कबूतरों और नुकीले पत्थरो की मार से गिरे

जख्मी परिन्दों की पीडा सरीखा होता है

असख्य साधनहीनो का दर्द भी

 

टूटे हुए बहुत से सपने

अनगिनत आकांक्षाओ की असामयिक मौत

इन मौतों से परे लोकतंत्र के पहरूओ की

अमानवीय राजनीति

मुठठी भर धन्ना सेठों, दीगर दोगले किस्म के

सरमाएदारो की अधनन्गी पतुरिया बनकर

पन्चसितारा होटल और चौन्धा मारते

पब, क्लब में करती है शर्मनाक डान्स

और बेइन्तहा मजे व चटखारे लेते हैं

तमाशबीन और दर्शक

 

बडा खुश होता है अन्धकार !

अन्धेरा बहुत खुश होता है आंधी, तूफान से

ना दिखने, गिरने पडने वालो और

दृष्टिहीनो से भी बहुत खुश होता है

ठहाके लगाके हन्सता है अन्धेरा

 

काजल कोठरी मे बनती योजना और

साजिशों से बहुत खुश होता है अन्धकार

नकारात्मक आवेग और विचार वालो को

बहुत पसन्द करता है अन्धेरा

 

हिंसकों, हत्यारो की रावणीय हसी और अटटहासो पर

अन्धकार भी करता है अटटहास

अपकर्मियो के दुष्कर्म की खूब प्रशसा करता है अन्धेरा

सरमाएदारो और शोषकों के नोट से भरे हुए

गोदामों पर बहुत खुश होता है अन्धेरा

 

अजहद भूख, प्यास से बिलखते मासूम

बच्चों को देख हसता है अन्धकार

दीपावली पर दीयो की कतारों को देख

मजाक उडाता है अन्धेरा

 

आन्धियो के बीच उम्मीद का एक चराग

जलाने वाले से बहुत चिढता  है अन्धकार

ये अन्धकार खाली वक्त मे ठलुओ की तरह

सूरज की तेज किरणों की करता रहता है बुराई

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परिचय :: प्रमोद झा की कवितायें पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती है.

सम्पर्क – बी – 392, ,काशीराम जी नगर निकट महात्मा बुद्ध पार्क, मुरादाबाद (यूपी)

मोबाइल _9897167686

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