मानवता को धर्म समझने वाले महान साहित्यकार थे श्रीरंग शाही
प्रोफेसर श्रीरंग शाही आज अगर होते तो वे 89 वर्ष के होते। उनके हम उम्र कई लोग न केवल जिंदा है, बल्कि सक्रिय भी हैं। जीने मरने पर अपना वश नहीं होता। श्रीरंग शाही सोशलिस्ट विचारधारा के महत्वपूर्ण साहित्यकार थे। उनकी निडरता, सत्य और ईमानदारी के हजारों किस्से हमने सुने हैं। उन्हें सैकड़ो पत्र-पत्रिकाओं में शान से प्रकाशित होते देखा है। महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने महात्मा गांधी के बारे में कहा था, “भविष्य की पीढ़ियों को इस बात पर विश्वास करने में मुश्किल होगी कि हाड़ मांस से बना ऐसा कोई व्यक्ति भी कभी धरती पर आया था।” मैं आइंस्टीन के कथन में डॉक्टर प्रोफेसर श्रीरंग शाही के अक्स को देखती हूँ। डॉक्टर श्रीरंग शाही जाति, धर्म, अमीरी-गरीबी इत्यादि से ऊपर उठकर सिर्फ मानवता को अपना सर्वोपरि धर्म समझते थे। सच कहूँ तो वे एक दिव्य आत्मा थे, जो अपने बारे में न सोचकर दूसरों के उत्थान के लिए सोचते थे। कथनी और करनी में समानता उनके जीवन का अलंकार था। वे सत्य बोलने वाले और सत्य की राह पर चलने वाले महामानव थे। खुद आधे पेट खाते थे, मगर दूसरों का पेट भरने की बाबत रोज प्रयत्न किया करते थे। आजकल जहां लोग एयर कंडीशन में बैठकर साहित्य सृजन करते हैं, वहीं डॉ शाही गरीबों के झुग्गी झोपड़ी में जाकर उनकी समस्याओं को सुनकर उसे अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाते थे। उनका कहना था कि जाके पांव न फटे बीमाई सो कि जाने पीर पराई। यानी बिना पीड़ा को महसूस किए पीड़ा लिखने की बात उनके समझ से परे थी।
अब तो लोग घर जाकर हाल-चाल लेने में भी परहेज करने लगे हैं। फोन पर संवेदना जता कर अपने कर्तव्य को इति श्री कर लेते हैं। ऐसे वक्त में, घर-घर में शिक्षा का अलख जगाने वाले महापुरुष श्री रंगशाही बहुत ही प्रासंगिक हो उठते हैं।
मैंने इस अंक को फरवरी में ही लाने की घोषणा की थी, मगर कतिपय कारणों से यह अंक आने में विलंब हुआ। मार्च में यह अंक फरवरी-मार्च संयुक्तांक के रूप में प्रकाशित हो रहा है। विलंब के लिए हमें खेद है। आँच का यह पहला कोई अंक है, जो किसी व्यक्ति विशेष पर केंद्रित है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वह व्यक्ति सिर्फ हिन्दी और बज्जिका के महत्वपूर्ण साहित्यकार ही नहीं थे, बल्कि एक बहुत बड़े समाजसेवी भी थे। इस अंक के संपादन के क्रम में मुझे आश्चर्य हुआ कि बिहार की सांस्कृतिक राजधानी मुजफ्फरपुर के सैकड़ो घरों को रोजी-रोटी देने वाले एक महान व्यक्तित्व को लोग इतनी जल्दी भूला बैठे हैं। गांव-जबार के बच्चों के लिए बालकन-जी-वारी की स्थापना हो या शिक्षा की ज्योति जलाने के लिए शिक्षक प्रशिक्षण कॉलेज की स्थापना। सैकड़ों लोगों को आत्मनिर्भर बनाने का बीड़ा जिस शख्स ने उठाया, उसे उनके ही गांव और जबार के लोगों ने भुला दिया। मेरी फेसबुक पर घोषणा के बावजूद बहुत कम रचनाएँ आ पायीं। मैंने महत्वपूर्ण लघुकथाकार कृष्ण मनु जी से बात की। उन्होंने अपनी पत्रिका स्वाति पथ का अंक उन पर केंद्रित किया था। मैंने उनकी सहमति से कुछ रचनाएँ वहाँ से ली हैं। उनके परिवार के लोगों के अलावा इष्ट मित्र, विद्यार्थियों ने उनपर खूब मन से लिखा है।
हमने इस विशेषांक के माध्यम से उनके बहुआयामी व्यक्तित्व को आपके सामने लाने का प्रयास किया है। आप सबके रचनात्मक सहयोग हेतु दिल से आभार।
भावना