आशा पाण्डेय जी की नज़र से समसामयिक जीवन का कोई भी सिरा छूट नहीं पाता : डॉ भावना

आशा पाण्डेय जी की नज़र से समसामयिक जीवन का कोई भी सिरा छूट नहीं पाता

– डाॅ भावना

 

ग़ज़ल हिन्दी साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा है। कोई विधा के लोकप्रिय होने की वजह पाठकों की उसके प्रति बढ़ती गहरी रूचि है और पाठक किसी विधा विशेष के लिए तभी आकर्षित होते हैं, जब उसे उस विधा की रचनाओं में अपने जीवन के सुख-दुख, हर्ष-विषाद और आक्रोश की अभिव्यक्ति लगती है। हिन्दी ग़ज़ल अपने कथ्य, बिंब, प्रतीक और मुहावरे की वजह से हिन्दी साहित्य में अपना अलग स्थान बनाने में क़ामयाब हुई है। यहाँ मैंने शिल्प का ज़िक्र नहीं किया है, इसका कारण यह है कि शिल्प उर्दू ग़ज़ल का हो या हिन्दी ग़ज़ल का, दोनों में कोई अंतर नहीं होता है। हिन्दी ग़ज़ल, उर्दू या फ़ारसी ग़ज़ल के शिल्प से बिना समझौता किए अपने भाषाई संस्कार के साथ लगातार आगे बढ़ रही है।

 

हिन्दी ग़ज़ल लेखन में आशा पाण्डेय ओझा ‘आशा’ का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। वह लगातार लिख रहीं हैं और महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में छप रही हैं। वे ग़ज़ल के साथ-साथ गीत, दोहा और हाइकु भी लिखती रही हैं। छंद-बद्ध कविता लेखन में उनका विशेष रुझान रहा है। नए मुहावरे और अलहदा कहन के साथ आशा पाण्डेय ओझा ने अपने नये संग्रह ‘कहाँ हम साँस लें खुलकर’ के साथ हिन्दी ग़ज़ल की दुनिया में ज़रा थमकर दस्तक दी है। आशा जी के पास अनुभव का एक बड़ा संसार है, कहन की नवीनता है तथा मुहावरों का पिटारा है। संग्रह की अधिकांश ग़ज़लें बहुत ख़ूबसूरती के साथ समय की नब्ज़ पर गहरी पकड़ रखते हुए अपनी बात कहने में समर्थ हैं।

 

आशा जी कानून स्नातक रही हैं और उन्होंने जोधपुर हाई कोर्ट में कानून की प्रैक्टिस भी की है। यही वजह है कि वे स्वाभाविक रूप से जनता के क़रीब रही हैं। उनके सुख-दुख को बा-ख़ूबी समझती हैं। आशा जी की अब तक 5 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें दो कविता संग्रह, संपादित गीत-ग़ज़ल संग्रह, हाइकु संग्रह, दोहा संग्रह तथा एक कहानी संग्रह भी शामिल है। आशा जी जीवन के साथ-साथ अनुभव जगत के अनछुए बिम्बों को उठाती हैं और शेरों में ढाल देती हैं। साधारण शब्द भी उनकी असाधारण सोच और सरोकार की वजह से ग़ज़लों के आकाश को विस्तार देने में सफल हैं। इनकी ग़ज़लों का फ़लक बहुत बड़ा है। जहाँ आजकल की महिला ग़ज़लकार सिर्फ स्त्री विमर्श के नाम पर अपने दुख को शेरों में ढालती हैं या इश्किया शायरी करती हैं, वहीं आशा जी की बारीक नज़र समाज के हर वर्ग पर है।

वैसे लोग जो रोज़ी और रोज़गार न मिलने पर हथियार उठा लेते हैं, उन्हें वह किताब को अपना बनाने का सीख देती हैं। किताब मनुष्य की सबसे बड़ी मित्र होती है, जिसके अध्ययन से सोचने और समझने की क्षमता में विस्तार होता है। शेर देखें-

तलवार तीर तजकर

घर में किताब रखना

नैतिकता का ह्रास आधुनिक समय की सबसे बड़ी त्रासदी है। अपने स्वार्थ की ख़ातिर लोग किसी भी हद तक गिरने को तैयार रहते हैं। ऐसे समय में, मूल्यों की बात करना; अंधेरे में रोशनी की बात करना है। शेर देखें-

शर्म तुमको भले नहीं आती

ख़ुद को हम यूँ गिरा नहीं सकते

मुखौटे के इस युग में दोस्त और दुश्मन को पहचानना भी मुश्किल हो गया है। हर चेहरे के ऊपर मुखौटा लगा हुआ है। आशा जी ‘पगले’ रदीफ़ के साथ एक बेहतरीन शेर कहती हैं। शेर देखें-

अब मिलते हैं अक्सर दुश्मन

बाँह गले में डाले पगले

आज की ज़िंदगी अर्थ पर आधारित है। आर्थिक रूप से कमज़ोर लोग भरी जवानी में बूढ़े हो जाते हैं, वहीं आर्थिक रूप से समृद्ध लोग बुढ़ापे में जवानी का आनंद लेते हैं। शेर देखें-

बिना पैसे बुढ़ापे-सी भरी यूँ तो जवानी भी

जवाँ लगता बुढ़ापा तक जहाँ पर ताब पैसा है

अब वह दौर गुज़र गया जब बेटियाँ बेटों से कमतर हुआ करती थीं। आज हर क्षेत्र में बेटियाँ अपनी सफलता का परचम लहरा रही हैं। बोर्ड की परीक्षा का परिणाम हो या कोई प्रतियोगी प्रतीक्षा, हर जगह उनकी मज़बूत उपस्थिति समाज को अपनी सोच बदलने को विवश करती है। शेर देखें-

नहीं कमतर किसी से आज बिटिया

वो ताकत है हमारी हौसला है

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बीज अगर लड़के को मानो

उसकी पालक धरती बेटी

हिन्दी ग़ज़ल में मुहावरे का प्रयोग इसकी मारक क्षमता को बढ़ाता है। ग़ज़ल संकेतों द्वारा अपनी बात कहने में यकीन करती है। कम से कम शब्दों में बड़ी से बड़ी बात कहना ही ग़ज़ल की ताकत है। कहना न होगा कि आशा जी इस मज़बूत हथियार का इस्तेमाल बड़ी ख़ूबसूरती से करना जानती हैं। ईंट का जवाब पत्थर से देना हो या कलेजे का टुकड़ा होना या जैसे को तैसा करना या पगड़ी उछालना; वे हर एक मुहावरे के प्रयोग से शेर को शेरीयत से भरपूर बनाने में कोई क़सर नहीं छोड़तीं। इसी तरह के कुछ शेर देखें-

उसने पहले ईंट उठाई हमने पत्थर फिर मारा

जैसे को तैसा करने की अपनी भी लाचारी है

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कलेजे का टुकड़ा तुम्हें सौंप डाला

न मेरे पिता की यूँ पगड़ी उछालो

हिन्दी ग़ज़ल में माँ पर ख़ूब शेर कहे गये हैं। सभी ग़ज़लों की अपनी-अपनी ख़ासियत है। आशा जी माँ के प्रति सर्वथा नया बिंब लेकर आती हैं। वह कहती हैं कि उनकी माँ तुलसी की तरह हैं, तो पिता वट वृक्ष और पीपल की तरह। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि तुलसी भारतीय समाज के हरेक आंगन की शोभा है, वहीं पीपल सबसे ज़्यादा ऑक्सीजन देने वाला वृक्ष। शेर देखें-

पीपल-बड़ से बाबा मेरे

तुलसी, केली जैसी अम्मा

आज के भागते-दौड़ते सुविधा-भोगी समाज में माता-पिता अकेलापन के शिकार हो गये हैं। बच्चे पढ़-लिखकर विदेश कमाने चले जाते हैं और माँ-बाप क्षीण  होती दृष्टि के साथ गाँव में रहने को मज़बूर हैं। ऐसे में, घर का ताला तक खोलने वाला भी कोई नहीं बचता। कुछ दिन पहले अख़बार में एक बूढ़ी स्त्री का कंकाल घर में मिलने की ख़बर सुर्खियों में थी। बच्चे के बाहर चले जाने पर माँ-बाप का जीवन बोझ बन जाता है।

पूत विदेशी बाशिंदे

खोले घर के ताले कौन

प्रेम मनुष्यता की परिभाषा है। प्रेम के बगैर जीवन की कल्पना ठीक वैसे ही है, जैसे आत्मा के बिना शरीर का। धन-धान्य से परिपूर्ण जीवन भी प्रेम के बगैर अभिशाप के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। प्रेम जिसकी अनुभूति मात्र से शरीर में एक अलग तरह की सिहरन पैदा होती है, चेहरे पर एक अलग-सी चमक आ जाती है, आँखें किसी ख़ास के इंतज़ार में दिन-रात दरवाज़े पर लगी रहती हैं। आशा जी का प्रेम रूहानी प्रेम है, जिसमें मासंलता का कोई नामो-निशान नहीं है। प्रेम के कुछ ऐसे ही बेहतरीन शेर देखें-

मेरी हस्ती तुम्हारी ज़द में आयी

बला की ये गिरफ्तारी हुई है

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चाहतों की घटा जब बरसने लगी

ख़ुश्क मौसम भी दिल को गंवारा हुआ

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नदियाँ, सागर, झरने, बादल

तुम बिन कोई मंज़र क्या है

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सिलसिले प्यार के ख़त्म वो कर गया

चाहती मैं रही पागलों की तरह

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नाम लेता नहीं उतरने का

इश्क़ कोई बुखार हो जैसे

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जलाती है जिगर मेरा तुम्हारे दीद की चाहत

क़यामत ढा रहा है दिल कहाँ हम साँस लें खुलकर

इस तरह हम देखते हैं की आशा जी की नज़र से समसामयिक जीवन का कोई भी सिरा छूट नहीं पाता है। वह लगातार जीवन जगत के तमाम अनुभवों से अपने शेरों को तरासती रहती हैं। वे स्वंय कहती हैं-

ग़ज़लों में तू अपनी ‘आशा’

इक अंदाज़ निराला लिख दे

मुझे उम्मीद है कि यह संग्रह अपने अलहदा कहन और निराले अंदाज़ की वजह से पाठकों के बीच महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज करने में क़ामयाब होगा।

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समीक्षित कृति : कहां हम सांस ले खुलकर

लेखिका : आशा पाण्डेय ओझा ‘आशा’

समीक्षक : डॉ भावना

संपर्क : आद्या हॉस्पिटल, जीरो माइल, सीतामढ़ी रोड, मुजफ्फरपुर्

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