समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में गांव की उपस्थिति :: -डा जियाउर रहमान जाफरी
समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में गांव की उपस्थिति
-डा जियाउर रहमान जाफरी
गजल उर्दू काव्य की सबसे लोकप्रिय विधा रही है. वो भी इस हद तक कि एक समय शायरी का मतलब ही ग़ज़ल समझा जाता था.ग़ज़ल का उद्गम चाहे जिस भाषा से हुआ हो लेकिन गजल ने अपनी लोकप्रियता उर्दू में आकर हासिल की.ग़ज़ल का अपना एक लहजा था अपना एक मुहावरा और अपनी एक बुनावट थी. जिसने पाठकों के विशाल वर्ग को प्रभावित किया. उर्दू में गजल एक तरह से प्रेम काव्य थी. उर्दू की गजल जिस स्त्री से बातें करती थी वह केवल प्रेम की बातें जानती थी. गजल जब हिंदी में आई तो उसने पहली बार यह ऐलान किया कि स्त्री सिर्फ प्रेम की ही बातें ही नहीं करती उसके आपने भी दुख- सुख हैं, अपनी जिम्मेवारी है, समाज, राष्ट्र और परिवार के प्रति उसकी अपनी जिम्मेदारियां हैं तब दुष्यंत ने कहा-
वो कर रहे हैं इश्क पे संजीदा गुफ्तगू
मैं क्या बताऊं मेरा कहीं और ध्यान है
जाहिर है शायर का ध्यान उन जन समस्याओं की तरफ था, जो आज तक कम से कम गजल का विषय नहीं बनी थी, तब दुष्यंत ने ही कहा –
मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं
वह ग़ज़ल आपको सुनाता हूं
कहने की जरूरत नहीं है कि ग़ज़ल राजदरबार से हटकर घरबार की तरफ आ गई थी. गजल में वह सब बातें आने लगी जो किसी कविता का विषय होना चाहिए. दुष्यंत ने ग़ज़ल को किसी सुंदरी के पांव का पायल नहीं बनाया, बल्कि उसे मशाल बनाकर पेश किया. उनकी गजलों में समाज की बदली हुई परिस्थितियों के प्रति जो बेचैनी और हताशा है उसका मुखर स्वर उनकी लेखनी में दिखाई देता है.
दुष्यंत के बाद से आज तक ग़ज़ल में समाज का पूरा ढांचा दिखलाई देता है. उसमें शहर है गांव है, शहर और गांव की बदली हुई परिस्थितियां हैं. बच्चे हैं, बूढ़े हैं, भूख है, गरीबी है, कहने का अर्थ शायद ही कोई मानव जीवन की जुड़ी हुई घटना हो जिसे ग़ज़ल ने अपना वर्ण्य विषय न बनाया हो. हम चाहे जितने भी शहरी हो जाएं मगर गांव की खूबसूरती अपनी जगह कायम है. यहां का शुद्ध प्राकृतिक वातावरण है, हंसते खेलते और गाते हुए पेड़ हैं, सांस लेने के लिए ताजा हवा है, खाने के लिए शुद्ध भोजन है, सुकून की जिंदगी है, पर्व त्योहारों का अपना आनंद है. गांव और प्रकृति का यह दृश्य शुरू से ही कवियों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है. हिंदी गजल का शायद ही कोई शायर हो जिन्होंने अपनी ग़ज़ल में ग्रामीण जीवन का वर्णन ने किया हो. यह गांव हिंदी के कवियों को भी अपनी और आकर्षित करता है–
अहा ग्राम जीवन भी क्या है
थोड़े में निर्वाह यहां है
यह अलग बात है कि गांव की बहुत सारी समस्याएं हैं. शहरों की अपेक्षा गांव का विकास मंद गति से हो रहा है. यहां गरीबी और अशिक्षा भी है. सुविधाओं की भी कमी है. परिवहन मनोरंजन स्वास्थ्य के साधन कम हैं. फिर भी गांव और गांव के लोगों की मासूमियत शायरों को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है. जिसकी अपनी वजह भी है, और वो वजह है गांव में मोहब्बत है, सादा दिली है, आपसी रिश्ता है. अपनत्व है रहने सहने के अपने तौर-तरीके हैं. इसलिए शायर कहता है कि–
मुसलसल फन का दम घुटता है इन अदबी इदारों में
ग़ज़ल को ले चलो अब गांव के दिलकश नज़ारों में
यह गांव ही है जहां मेल और मिलाप है. जिसके आगे हर काम अंजाम पा जाता है. मुनव्वर राणा का एक शेर है कि–
तुम्हारे शह्र में मय्यत को सब कांधा नहीं देते
हमारे गांव में छप्पर भी सब मिलकर उठाते हैं
डॉ भावना ने भी गांव की पीड़ा का बखूबी समझा है, उनके शेर देखें –
गाँव ऐसा हुआ शहर लोगो
खोज है न कोई खबर लोगो
हमारे गाँव में तहजीब जिन्दा है तभी तो हाँ
श्रवण–सी ज्योति बिटिया बोझ पापा का उठाती है
किसी के ख्वाब में वह इस कदर तल्लीन लगती है
नदी वह गाँव वाली आजकल गमगीन लगती है
हर कदम पर जो सफर में हौसला देता रहा
आ रही हैं याद फिर उस गाँव की बातें भली
हिंदी के कई शहरों ने गांव के लोगों की सादगी भाईचारगी और प्रेम मोहब्बत का वर्णन किया है. वह भी ऐसा जीवंत वर्णन के मन सहसा गांव की उस खूबसूरती को देखने के लिए लालायित हो जाता है. कुछ शेर गौरतलब हैं —
जिस्म की पुर पेच गलियों में कभी खोया नहीं
प्यार तो नीरज रूहानी है अभी तक गांव में
-नीरज
शहर में जब भी मुझे घर की याद आती है
असल में गांव की मिट्टी मुझे बुलाती है
-हरेराम समीप
प्रेम के कुछ बोल मिल ही जाएंगे
गांव के पनघट पे जा कर देखिए
-अनिरुद्ध सिन्हा
लौट कर चले आओ यह मेरी गुजारिश है
गांव की गली घर में बेबसी नहीं मिलती
-विकास
गांव में कुछ आपसी मनमुटाव के बावजूद भी मोहब्बत का यह चित्र आर पी घायल के इस शेर में देखा जा सकता है–
अभी भी गांव में है दुश्मनी तो भाईचारा भी
मुकदमा जिस से लड़ता है उसे खाना खिलाता है
-आर पी घायल
गांव की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी की है. ग्रामीण रोजगार की चाहत में शहर की ओर पलायन कर रहे हैं. शहर की कृत्रिमता और भागदौड़ उन्हें पसंद नहीं आ रही है. उन्हें गांव की याद आती है. गांव के लोग याद आते हैं. गांव के ताल तलैया और पगडंडी याद आती है. हिंदी के लगभग सभी शायरों ने गांव को छोड़कर जो शहर जाने की मजबूरी है, और महानगरीय जीवन की जो समस्याएं हैं उसका उल्लेख अपनी ग़ज़लों में किया है इस संदर्भ में चंद शेर देखने योग्य है-
गांव के बच्चे घरों में छोड़कर सब्रो सुकूँ
आ गए हम देखिए रोटी कमाने शहर में
-रविकांत अनमोल
हंसते गाते धूम मचाते जिनमें बचपन गुजरा था
शहर में आकर उन गलियों में आना जाना भूल गए
खोल चेहरों पर चढ़ाने नहीं आते हमको
गांव के लोग हैं हम शहर में कम आते हैं
जो मेरे गांव के खेतों में भूख उगने लगी
मेरे किसान ने शहरों में नौकरी कर ली
शहर की इस भीड़ में चल तो रहा हूं
ज़ेहन में गांव का नक्शा रखा है
गांव की ताजा हवा में था सफर
शहर आकर जो धुए में खो गया
-विनय मिश्र
ऐसा नहीं है कि यह गांव पहले वाला है. अब गांव में भी पक्की सड़कें हैं. बिजली है. पानी है. स्कूल है, चिकित्सालय है, लोगों की जरूरत है की चीजें मिल जा रही हैं. हिंदी के कई ग़ज़लगो ने गांव की बदली हुई इस तस्वीर का जिक्र अपने ग़ज़लों में किया है कुछ शेर द्रष्टव्य हैं –
सावन की पुरवइया गायब
पोखर ताल तलैया गायब
कट गए सारे पेड़ गांव के
कोयल और गोरैया गायब
-देवमणि पांडेय
मुश्किल से मुझको आपके घर का पता चला
घर का पता चला तो हुनर का पता चला
-जहीर कुरैशी
कुंए सूखे, हुई चौपाल सूनी
नई तस्वीर अपने गांव की है
-रामचरण राग
गांव की चौपाल भी है सुनी सुनी आजकल
गांव को भी शहर से आती हवा ने छू लिया
-राहुल शिवाय
गांव की भी आदतों में अब शहर बसने लगा
गांव में भी दिल दुखाना आम मंजर हो गया
-गरिमा सक्सेना
भारत एक किसानों का देश है. यहां की 70% आबादी कृषि पर निर्भर है. यह कृषक पुरुष भी हैं और महिलाएं भी. एक आंकड़े बताते हैं कि भारत में लगभग कुल श्रमिक का 31% महिलाएं हैं. जिनमें 94% असंगठित क्षेत्र में काम करती हैं. ये स्त्रियां अपनी क्षमता से अधिक काम करती हैं. किसान खेतों में फसल उगाता है, वह जमीन भी उसकी अपनी नहीं है. महंगे बीज, मौसम की मार, भारी लगान, इन सबके बीच खेती करने वाला किसान किस तरह खुद भूखा रह जाता है. तनाव से गुजरते हुए कैसे आत्महत्या कर लेता है? हिंदी के कई शायरों ने किसान की इस बेबसी, मजबूरी और दुर्दशा का वर्णन किया है. उदाहरण के लिए कुछ शेर देखे जा सकते हैं-
आप आए तो कभी गांव के चौपालों में
मैं रहूं या ना रहूं भूख मेज़बाँ होगी
-अदम गोंडवी
अब इसी तरह वो रोटी का पता देता है
भूख के गांव में एक चूल्हा जला देता है
-देवेंद्र कुमार आर्य
दर्द की फसल काटने वाला
आंसुओं की लगान दे आया
-सलीम अख्तर
लोग ऐसे भी कई जीते हैं इस बस्ती में
जैसे मजबूरी में एक रस्म निभा ली जाए
-लक्ष्मी शंकर वाजपेयी
गरीबों के निवाले कौन है जो छीन लेता है
कई ऐसे ही मुद्दों पर सदन चर्चा नहीं करता
-कमलेश भट्ट कमल
गांव की मत पाल तू खुशफहमियां
अब वहां के हाल भी बेहतर नहीं
-हरेराम समीप
अब गांव भी तो शहर से अच्छे नहीं रहे
अब गांव में भी सर पर दुपट्टे नहीं रहे
हिंदी ग़ज़ल की फिक्र गांव की बदली हुई फिजा को लेकर भी है. गांव में जैसे ही शहरीयत हावी हुई. बस्ती के लोगों के तौर तरीके भी बदल गए. मारपीट आम बातें हो गई हैं. जमीन और जायदाद के झगड़े होने लगे हैं. हिंदी के कई ग़ज़ल करों की चिंता में गांव का यह बदला हुआ परिवेश भी मुखर हुआ है चंद शेर मुलाहिजा हो-
गांव मेरा आजकल दहशतज़दा है दोस्तों
इसकी किस्मत में ना जाने क्या लिखा है दोस्तों
-बल्ली सिंह चीमा
इस तरह सहमी हुई है बस्तियां
निर्धनों के घर में जैसे बेटियां
-श्याम वशिष्ठ
आक्रमण की है तैयारियां कर रही
जुल्म के गांव में गम की मारी गजल
-वशिष्ठ अनूप
लहू से चित्रकारी कर रहे हैं
यह बस्ती खूबसूरत बन पड़ी है
-ज्ञानप्रकाश विवेक
हिंदी के कई ग़ज़लकार ऐसे हैं जिनके शेरों में आंचलिकता है. उन्होंने गांव पर बाज़ाब्ता शायरी की है. कुछ की गांव पर मुसलसल ग़ज़लें भी हैं. हिंदी के कई गज़लकार जैसे अनिरुद्ध सिंहा, हरेराम समीप, मधुवेश, विज्ञान व्रत आदि की शायरी में गांव के कई चित्र उभर कर सामने आते हैं. उदाहरण के लिए उनके कुछ शेर भी देखने योग्य है-
किसानी छोड़कर बापू शहर तो जा रहे हो पर
वहां फुटपाथ से ज्यादा किसी को कुछ नहीं मिलता
-अनिरुद्ध सिन्हा
भूख दे या प्यास दे या मौत दे
गांव की मिट्टी मेरी तकदीर है
-अनिरुद्ध सिन्हा
विज्ञान व्रत अपनी ग़ज़लों में छोटी बहर के लिए जाने जाते हैं उनके कई शेर में गांव का नक्शा उभरा है कुछ शेर देखे जा सकते हैं-
देख शहर में रहना है तो
मन में रखना गांव बचाकर
एक शहर हो जाने में
कितने गांव मरे होंगे
कैसे मिलते हम अपनों से
गांव नहीं लौटे बरसों से
जितने लोग शहर में है
एक मुकम्मल डर में है
ठीक इसी तरह मधुरेश की गजलों में भी गांव के खेत खलिहानों की खुशबू से गांव का पता चलता है-
शहर तक आते-आते सूख जाता है हरा धनिया
हमारे गांव में कैसा महकता था बहुत पहले
जब आई याद गर्मी गांव की तो याद हो आया
जो दीदी ने बुना था हाथ का पंखा बहुत पहले
बताने के लिए तब गांव में थी ही कहां घड़ियां
बताता था समय दीवार का साया बहुत पहले
गांव के अधिकतर लोग खेतिहर मजदूर हैं. इन मजदूरों में कोई जमीदार या जागीरदार नहीं है. खेतों में भी पहले वाली बात नहीं रही अनावृष्टि और अतिवृष्टि ने खेतों को तहस-नहस कर दिया है. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रिपोर्ट मानें तो देश के 40% किसान किसानी छोड़कर अन्य वैकल्पिक रोजगार तलाश करना चाहते हैं. जाहिर है इसके लिए उन्हें नगरों और महानगरों में खाक छाननी पड़ रही है. किसान परेशान है, बाढ़, सूखा तूफानी हवा, भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाएं किसानों को के लिए हमेशा चिंता की वजह बनी रहती है. ये ऐसे हालात हैं जिससे कोई भी संवेदनशील शायर हटकर नहीं रह सकता हिंदी के लगभग सभी शायरों ने इस फिक्र को अपने ग़ज़ल का मौजूं बनाया है कुछ शेर देखने जरूरी है-
प्यार का गांव अजब गांव है जिसमें अक्सर
खत्म होती ही नहीं दुख की गली मीलों तक
-कुंवर बेचैन
आइए गांव की कुछ खबर ले चलें
आंख भर अपना घर खंडहर ले चलें
-रामकुमार कृषक
अच्छे कल की चाहत लेकर
भूखा प्यासा वो सोता है
-लवलेश दत्त
यहां शहर में तुम्हें अन्न भेजता है जो
पता तो कर के वो कैसे किसान जिंदा है
-हरेराम समीप
रोजी रही ना गांव में तो शह्र आ गए
घर अपना कौन शौक से छोड़े है साब जी
-पुरुषोत्तम यक़ीन
ग़ज़ल में प्रेम अपनी जगह मौजूद है. ऐसा नहीं है कि गांव की लड़कियां प्रेम नहीं करती. वह भी प्रेम करती हैं. उसका भी प्रेमी है, लेकिन वह अपने प्रेम को प्रकट करने से डरती हैं उसका प्रियवर भी बस अपनी खबर लेकर दिल की तस्कीन पा लेता है. वह आने जाने वाले से सिर्फ इतना ही पूछता है-
उसने शादी भी की है किसी से
और गांवों में क्या चल रहा है
-तहज़ीब हाफी
भाषा के स्तर पर भी हिंदी गजल के शेरों में जहां गांव का वर्णन है वहां देशज शब्दों का इस्तेमाल भी खूब हुआ है. असल में इन शब्दों से ही ग्रामीण संस्कृति का पता चल पाता है ऐसे कुछ शेर यों हैं –
दाल भात में नून आपका
और उस पर कानून आपका
डिबिया में है धूप का टुकड़ा वक्त पड़ेगा खोलूंगी
आसमान जब घर आएगा मैं अपने पर तोलूंगी
-विनीता गुप्ता
किसानों को अपनी फसलों का वाजिब मूल्य नहीं मिल पा रहा है. उनकी फसल न्यूनतम मूल्य पर खरीद लिए जाते हैं. नए कृषि कानून को किसान मानने के लिए तैयार नहीं है. वह आंदोलन कर रहे हैं किसी भी देश का विकास तब होगा जब गांव का विकास होगा, और गांव का विकास भी तब होगा जब गांव के किसानों मजदूरों और सर्वहारा वर्ग क्या विकास हो पाएगा. देश के लगभग तरह राज्य हर साल सूखे की चपेट में आ जाते हैं.कोरोना ने भी बेरोजगारी और आर्थिक मंदी की समस्या उत्पन्न कर दी है. लोग कोविड के बाद गांव की तरफ लौट रहे हैं लेकिन यहां जीविका का कोई साधन नहीं है. भारत के 1% अमीरों के पास जब देश की 58% संपत्ति हो तो आम लोगों की दशा और दिशा का खुद अंदाजा लगाया जा सकता है. जरूरी है कि गांव में भी सुख सुविधाएं हों, रोजगार हो, चिकित्सालय हो, स्कूल और कॉलेज हों, यातायात के साधन हों. बिजली और पानी हो, ताकि लोग कम खर्च में भी गांव में रहकर अपने जीवन का निर्वाह कर सकें. हमारी कृषि 78% मानसून पर निर्भर है आज भी सिंचाई जितनी महंगी है वह किसानों के लिए मुश्किल खड़ी कर रही है. सरकार भी उदासीन है जरूरी है कि किसानों की समस्या से रूबरू हुआ जाए. हिंदी कविता की तमाम विधाओं में जहां गांव की बदहाली का वर्णन है वहां ग़ज़ल में गांव की बदलती हुई तस्वीर दिखलाई पड़ती है. अब वह गांव ऐसा गांव है जिसमें-
अब के मायूस ही लौटा है खिलौने वाला
एक बच्चा न मिला गांव में रोने वाला
-प्रेम किरण
यह वह गांव है जहां लोग जिस परिस्थिति में भी लौटे हों लेकिन उनके आने की खुशी मनाई जाती है-
गांव गुलजार हुआ लौट आए परदेसी
सूनी गलियों में कोरोना ने रौशनी कर दी
-अमान जखीरवी
अब इस गांव में भी शहर तलाशा जा रहा है-
लाइटर के साथ माचिस है दुकानों पर
इस शहर में ही कहीं देहात भी तो हो
-विनय मिश्र
पहले गांव में कोई डर नहीं था अब गांव में खौफ भी है. निश्तर खानकाही का एक शेर भी है कि-
खौफ जदा थे लोग न निकले देखने करतब सांपों का
आज सपेरा बस्ती बस्ती बीन बजाता चला गया
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि समकालीन हिंदी ग़ज़ल में गांव अपनी तमाम खूबियों और खामियों के साथ मौजूद है. कुल मिलाकर गांव की आबोहवा, गांव के लोग, गांव का रहन सहन गांव की जीवन शैली, महानगरीय कृत्रिमता से हटकर विश्व सुंदरी प्रकृति की गोद में हस्ती खेलती हुई दिखलाई देती है.
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परिचय : –डा जियाउर रहमान जाफरी की ग़ज़ल की दो, बालसाहित्य की दो, और आलोचना की दो पुस्तक -परवीन शाकिर की शायरी और, ग़ज़ल लेखन परम्परा और हिन्दी ग़ज़ल का विकास प्रकाशित हो चुकी है़ इन्हें बिहार शताब्दी सम्मान भी मिल चुका है.
संप्रत्ति : स्नातकोत्तर हिंदी विभाग, मिर्जा गालिब कॉलेज, गया, बिहार