ख़ास कलम :: विवेक मिश्र

विवेक मिश्र की तीन ग़ज़लें
1
जो था फ़क़त तुम्हारा,   तुम्हे  देर से मिला
यानी,,,,पता हमारा,      तुम्हे  देर से मिला
जो ख़्वाब में बसाया था,  तामीर के  लिए
वो  पुर-सुकूँ  नजारा   तुम्हे    देर से मिला
दोनों ने उम्र काट दी इक लफ़्ज़-ए-काश में
शायद…..मेरा इशारा   तुम्हें    देर से मिला
न  चाँद  सितारा कोई,  जुगनू हूँ फ़क़त मैं
था  रौशनी का मारा..  तुम्हे    देर से मिला
तुम ही  अधूरी    राह  में तो   छोड़ गए थे
फिर क्या था बोलो चारा,   तुम्हे देर मिला
2
ये शम्अ कैसी  अंधेरी शब में   मचल रही है
ये दिल जली है जला रही है या जल रही हے
मैं ज़िन्दगी से कहाँ तलक अब सवाल पूछूँ
हर एक पल जो जवाब अपने बदल रही है
वो एक पागल हयात समझे था जिस हसीं को
उसी के कूचे  से उसकी मय्यत  निकल रही है
हयात लेकर  चला  गया  है  गो जाने वाला
फ़क़त बदन है  सो सांस एकाध चल रही है
था  काफ़िये सा लिबास उसका रदीफ़ चेहरा
अदब को ओढ़े अभी जो गुज़री ग़ज़ल रही है
घड़ी मिलन की लबों से लब की जो तय हुई थी
अभी नहीं फिर, अभी नहीं फिर ,पे  टल  रही है
कहाँ  तलक  मैं   तड़पती आँखों  को अपनी  पोछूँ
कि जिनमेँ अब तक वफा’ओ निस्बत पिघल रही है
3
हमारी आँखों का सिर्फ तारा तुम्हीं तो थे ना
हमेशा दिल ने जिसे पुकारा तुम्ही तो थे ना
बदल गईं क्यों वफ़ा सी नज़रें कि जिनसे जानाँ
कभी किया था मुझे इशारा तुम्हीं तो थे ना
ख़ताये सर पे हमारी आयीं हैं बेसबब ही
कुसूर जिसका था सारा सारा तुम्हीं तो थे ना
किसे बताते कि उसकी नज़रो की फांस हूँ अब
जो शख्श मुझको था सबसे प्यारा तुम्हीं तो थे ना
नमाज़ियों ने हरेक सज़दे में खुल्द माँगा
हमारे दिल ने जिसे पुकारा तुम्ही तो थे ना
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परिचय :: कई पत्र-पत्रिकाओं में गजले प्रकाशित
गणेशगंज, कोटरा (उरई), जनपद – जालौन
उत्तर प्रदेश

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