विशिष्ट ग़ज़लकार :: प्रेम किरण

प्रेम किरण की दस ग़ज़लें

1

नफ़रत ही रह गयी है मुहब्बत चली गयी
घर से हमारे रूठ के बरकत चली गयी

हम भी ख़ुशी के नाज़ उठाते कहां तलक
अच्छा हुआ कि घर से मुसीबत चली गयी

दो भाइयों के बीच की नफ़रत न पूछिए
घर से निकल के बात अदालत चली गयी

अच्छा था हम ग़रीब थे इन्सानियत तो थी
ग़ुरबत से जान छूटी शराफ़त चली गयी

दौलत का ये ग़ुरूर भी कितना अजीब है
दस्तार बच गयी तो रियासत चली गयी

ख़ंजर चला न ख़ून का दरिया बहता कोई
नज़रों से क़त्ल कर के क़यामत चली गयी

आवाज़ अपने दिल की मैं सुनता भी किस तरह
दुनिया के शोरगुल में समाअत चली गयी

2.
जागी आंखों का सपना है बीबी बच्चा घर
छोड़ के इक दिन सब जायेंगे रोता गाता घर

जीता मरता कौन हमारे हर सपने के साथ
सारे बच्चे देख रहे हैं अपना अपना घर

वो क्या जानें जोड़ी गयी है कैसे इक इक ईंट
बेटों को तो मिल जाता है बना बनाया घर

बंटवारे का पहला क़दम है आंगन में दीवार
शायद इक दिन हो जायेगा टुकड़ा टुकड़ा घर

पस्ती और बुलंदी में है कितना नुमाया फ़र्क़
मेरे घर में झांक रहा है हमसाये का घर

आने वाले तूफ़ां से है शायद वो अनजान
नन्ही चिड़िया जोड़ रही है तिनका तिनका घर

दुखी दिलों में प्यार का तोहफ़ा करता है तक्सीम
सबकी ख़ातिर खुला हुआ है प्रेमकिरण का घर

3
ऊपर ऊपर सर्द ख़मोशी अंदर अंदर आग
सागर सागर, जंगल जंगल, पत्थर पत्थर आग

बाहर तो महफ़ूज़ नहीं थे घर में भी बेचैन
अफ़वाहों की शबनम टपकी ख़ंजर ख़ंजर आग

किस बाज़ार से नींद ख़रीदें कैसे सोयें लोग
करवट करवट पड़े फफोले बिस्तर बिस्तर आग

माज़ी की फिर याद दिलाकर दिल ने किया बेचैन
ख़ुशबू बन गयी लू का झोंका मंज़र मंजर आग

घर के ख़र्चे, बच्चों की ज़िद, बाज़ारों के क़र्ज़
ज़ेह्न में सबके सुलग रही है दफ़्तर दफ़्तर आग

किसी किताब को पढ़ने बैठो जलने लगती आंख
वरक़ वरक़ हैं आग के किस्से अक्षर अक्षर आग

4.
हम भी बेकल नदी भी बेकल, बेकल बेकल धूप
ढूंढ रही है शीतल छाया पीपल पीपल धूप

गोद में लेना चाहें तो वो गोद से पिछली जाये
मेरी नन्ही बिटिया जैसी चंचल चंचल धूप

जाने उस हरिजन टोली का कल क्या हो अहवाल
बड़का टोला बांट रहा है कंबल कंबल धूप

जेठ महीना महुआ चुनने चली नवेली नार
माथे पर मोती झलके है आंचल आंचल धूप

साजन के घर से वो लौटी रूप हुआ अनमोल
गालों पर है शाम की लाली काजल काजल धूप

गिरवी रखकर खेत को उसने दिया गांव को ‘भात’
चावल चावल क़र्ज़ में ठिठुरा पत्तल पत्तल धूप

जान का बैरी मूसल जाने क्या क्या टूटे साथ
उसकी आंखें सावन भादो ओखल ओखल धूप

5
आंसुओं की बारिशों में रात दिन फूली हुई
क्या पता कब बैठ जाये एक छत भीगी हुई

हर तरफ़ हैं ख़ून से तर बालो-पर बिखरे हुए
हर तरफ़ है ज़ुल्म की इक दास्तां बिखरी हुई

आसमां मज़लूम की फ़रियाद सुनता ही नहीं
मिन्नतें हर रोज़ करती है नदी सूखी हुई

बाज़ के पंजों में उलझी फ़ाख़्ता को देख कर
याद आयी फूल सी बेटी हमें ब्याही हुई

वो है पहले ही सरापा क़र्ज़ में डूबा हुआ
उस पे आफ़त ये जवां बेटी है घर बैठी हुई

मुफ़लिसों के घर ख़ुशी भी आई मातम की तरह
एक बेटे की तमन्ना थी मगर बेटी हुई

6
हरदम कब किस का साथ मुक़द्दर देता है
वक़्त सभी को इक दिन ख़ारिज़ कर देता है

शोहरत और बुलंदी का ज़ोम नहीं अच्छा
यह तो सूरज को भी अंधा कर देता है

कोई हंसता है कोई रोता है जग में
वो भी आंखों को क्या क्या मंज़र देता है

इस बार का ये तूफ़ां कुछ अलग तरह का है
बुझे चिरागों को जो रौशन कर देता है

उसको सच सुनना रत्ती भर मंज़ूर नहीं
और झूट मेरा जीना मुश्किल कर देता है

सूरज के छल की चांद गवाही क्या देगा
वह तो उसका दामन मोती से भर देता है

7
ठोकरें खा कर भी हमने की हिफ़ाज़त आपकी
कुछ तो है पासे-रवायत कुछ हिदायत आपकी

सर कटाया हमने मिट्टी की हिफ़ाज़त के लिए
है रक़म तारीख़़ में लेकिन शहादत आपकी

छोटी छोटी बस्तियां हमने बसायी हैं मगर
फिर इन्हें वीरान कर देगी सियासत आपकी

न्याय अंधा, लोग बहरे और ये गूंगा समाज
देख ली सरकार हमने ये रियासत आपकी

अपने हाथों ख़ुद उठायी है उसूलों की फ़सील
क़ैद में रक्खेगी वरना कब हिरासत आपकी
फ़सील-दीवार, पासे -रवायत-परंपरा का ध्यान,

8
ज़माने बीत गये प्यार से मिले हमको
हमारे ख़्वाब कहां ले के आ गये हमको

यहां की ख़ाक में बारूद छुप गयी है क्या
जो ज़ख़्म दे रही है नित नये नये हमको

पुरानी दुश्मनी पुरखों की ख़त्म कैसे हो
वो ज़ह्नो -दिल से अपाहिज बना गये हमको

तुम्हारे कमरे में आते ही घुटन सी होती है
दरीचे खोल के बैठो तो कल पड़े हमको

हवाएं ज़ह्र उगलती रहीं इसी तर्ह तो
नज़र न आयेंगे गुलशन हरे भरे हमको

ये दुनिया खेलती रहती है हमसे खेल अपने
किरन वो खेल कब आयेंगे खेलने हमको

9्र
सुर्ख़रू होकर हंसेंगे सुब्ह के मंज़र कभी
ये अंधेरे ख़ून थूकेंगे जमीनों पर कभी

मौसमों का सिलसिला यूं ही रहा तो देखना
फूल पत्थर बन के बरसेंगे तुम्हारे घर कभी

इक परिंदे का लहू तूफ़ान लेकर आयेगा
आग बन जायेंगे ये नोचे हुए शहपर कभी

याद आता है मुझे हंसता हुआ नन्हा दिया
काटने को दौड़ता है जब अंधेरा घर कभी

दोस्ती का हाथ सबके हाथ में मत दीजिए
फूल के दामन में भी मिल जाते हैं अजदर कभी

मुझसे और मेरी अना से सुल्ह मुमकिन ही नहीं
क़द कभी लंबा हुआ छोटी हुई चादर कभी

10

जिससे मतलब है उसको यार बताता है
वो इन्सां कैसा है किरदार बताता है

जिसके कारण वह ऊंचे पद पर बैठा है
उस बाप को घर का चौकीदार बताता है

अब घर की शोभा बूढ़े मां बाप कहां हैं
घर की शोभा क्या है बाज़ार बताता है

अपना ख़ून कहां पहचान रहा है कोई
हम कब कहते हैं, यह अख़बार बताता है

जीते जी उससे मिलने कोई न आता था
मरने पर हर कोई रिश्तेदार बताता है

बरसों पहले जो हर रिश्ता तोड़ गया था
वो घर में ख़ुद को हिस्सेदार बताता है

उसके साथ जीने मरने की क़समें ली हैं
वह धन दौलत को पहला प्यार बताता है

……………………………………….

परिचय :  प्रेमकिरण, कमला कुंज
पुराने सिटीकोर्ट के सामने
गुलज़ारबाग़, पटना-800007
मो०न०-9334317153
premkiran2010@gmail.com

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