अमर पंकज की छह ग़ज़लें
1
काश किस्मत की लकीरों से चुराता मैं उसे,
साथ साया सा हमेशा पास पाता मैं उसे।
है मुहब्बत ही दवा हर ज़ख़्म की ये सच नहीं,
ज़ख़्म गहरा मिल के होता क्या दिखाता मैं उसे।
दुख बहुत होता मुझे जब छोड़कर जाता हूॅं पर,
ज़िन्दगी के खेल में मसरूफ़ पाता मैं उसे।
एक पगली रो रही है मैल मन के धो रही,
बारहा धोखा दिया है फिर भी भाता मैं उसे!
जो लिखूंगा सच लिखूंगा कब ‘अमर’ ऐसा कहा,
दर्द है संसार का सच कह न पाता मैं उसे।
2
कभी तो टूटकर मेरी तरह तू भी मुहब्बत कर,
कभी चैनो-सुकूॅं से तू भी तो थोड़ी अदावत कर।
मिटाना फ़ासला है दरमियां जो आ गया अपने,
कभी तो पास आकर तू मेरी मुझसे शिक़ायत कर।
फ़साना गूंजता है चुप्पियों के शोर में मेरा,
उसे तू गौर से सुनने की थोड़ी सी इनायत कर।
बहा मैं जा रहा हूॅं ऑंसुओं की बाढ़ में कब से,
डुबा मुझको ख़ुदा तू इश्क़ में, अब तो क़यामत कर।
‘अमर’ मुमकिन बहुत है कह सके तू भी ग़ज़ल कोई,
मगर ये शर्त है तू उम्र भर ख़ुद से बग़ावत कर।
3
ज़रा धूप में है ज़रा छाँव में है,
कि तन शह्र में है तो मन गाँव में है।
हवा शह्र की गाँव पहुँची मगर सुख,
पुराने खड़े पेड़ की छाँव में है।
सियासी अखाड़ा बना गाँव लेकिन,
मुहब्बत अभी तक मेरे गाँव में है।
बचा खेत खलिहान जंगल बचा तू,
सदी का लुटेरा भी तो दाँव में है।
वहाँ प्यार ही प्यार याँ मतलबी यार,
झुके सिर्फ़ मतलब से सर पाँव में है।
‘अमर’ खेत की धूल मिट्टी है चंदन,
हमेशा जो लगती तेरे पाँव में है।
4
बीती सुधियों ने लौटाया खेतों में खलिहानों में,
जो खोया था फिर से पाया खेतों में खलिहानों में।
छोड़ चकाचौंध की माया लौटा जब मैं अपने घर तो,
कुदरत ने भी रस बरसाया खेतों में खलिहानों में।
महकी-महकी रातों में कुछ बहकी-बहकी बातों ने,
बाहें फैला पास बुलाया खेतों में खलिहानों में।
दुख ही दुख झोली में पाकर मुर्झाया चहरा जब तो,
अपनों ने ही दिल बहलाया खेतों में खलिहानों में
झुर्री गालों पर है लेकिन लाली यादों में अब भी,
मन का बच्चा फिर मुस्काया खेतों में खलिहानों में।
माँ की हरदम हँसती आँखो में उमड़े जब भी आँसू ,
छुप-छुप कर रोया-पछताया खेतों में खलिहानों में।
बीते दिन क्या-क्या बीते कहतीं सूखी आखें सबकुछ,
आज ‘अमर’ ने खूब रुलाया खेतों में खलिहानों में।
5
शह्र की दीवार पर चिपके हैं मेरे इश्तिहार,
क़ैद हूँ तेरे क़फ़स में, तू बताता है फ़रार।
आतिशे गुल से हुआ रौशन चमन, आई बहार,
तोड़ डाले दिल ने माज़ी के किए सारे क़रार।
जिस्मो-जाँ हैं दफ़्न देखो राख़ के इस ढ़ेर में,
मत हवा दो हो न हो फिर से निकल आएँ शरार।
दोस्ती के नाम पर फैलीं मेरी बाँहें मगर,
क्यों तेरे हाथों में फिर लहरा रहे ख़ंजर कटार।
रंग-रोग़न मैंनें अपने घर में तो करवा दिया,
पर दिखाई दे रही दीवार में अब भी दरार।
नफ़रतों के दौर में कह तू मुहब्बत की ग़ज़ल,
इम्तिहाँ फिर ले रही है आज सदियों की सहार।
इश्क़ के दरिया में डूबा जो कलंदर बन गया,
तो ‘अमर’ किसके लिए तुझको बनाना है हिसार।
6
दिन में वो तारे दिखाते कुछ नहीं कहते मगर हम,
आग पानी में लगाते, कुछ नहीं कहते मगर हम।
अब वही तो सूर्य है जुगनू ने करवा दी मुनादी,
ख़ौफ़ में सब गिड़गिड़ाते, कुछ नहीं कहते मगर हम।
मनचले और मसखरे ही दाद पाते बज़्म में हैं,
सब उन्हें सर पर बिठाते, कुछ नहीं कहते मगर हम।
ज़ह्र फैलाती सियासत लोग भी करते हिमाक़त,
नफ़रतों के गीत गाते, कुछ नहीं कहते मगर हम।
महफ़िलों में इन्क़िलाबी गीत पढ़कर वो निकलते,
पाँव पर हैं लड़खड़ाते, कुछ नहीं कहते मगर हम।
अब सितारे आसमाँ से गिर ज़मीं पर धूल खाते,
तज’रबे हैं ये सिखाते, कुछ नहीं कहते मगर हम।
राह सच की जो पकड़कर बीहड़ों से हैं गुज़रते,
तीर उनपर सब चलाते, कुछ नहीं कहते मगर हम।
क़ैद हम उनके क़फ़स में क़त्ल जिनने है किया पर,
वो हमें क़ातिल बताते, कुछ नहीं कहते मगर हम।
राहे-उल्फ़त के सफ़र में आरज़ू शबे-वस्ल की है,
क़ह्र वो अब रोज ढाते, कुछ नहीं कहते मगर हम।
छोड़ दीं जिनके लिए संसार की ख़ुशियाँ ‘अमर’ ने,
सिर्फ़ ख़्वाबों में वो आते, कुछ नहीं कहते मगर हम।
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परिचय :: अमर पंकज (डॉ अमर नाथ झा) दिल्ली विश्वविद्यालय के स्वामी श्रद्धानंद महाविद्यालय में प्राध्यापक हैं. इनकी कई ग़ज़लें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं.
पता – 307, रिचमंड पार्क
सैक्टर – 6, वसुंधरा
ग़ाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश
पिन – 201012