डाॅ शान्ति कुमारी यानी संकल्प से सिद्धि तक :: भावना

डाॅ शान्ति कुमारी यानी संकल्प से सिद्धि तक

  • भावना

माँ और बच्चे के बीच में हमेशा दो भाव काम करते हैं ।पहला ‘वानरी भाव’ और दूसरा ‘मार्जारी भाव’।
”बन्दर का बच्चा अपनी पूरी शक्ति लगाकर अपनी माँ का पेट पकड़े रहता है, ताकि गिरे न… उसे सबसे अधिक भरोसा माँ पर ही होता है और वह उसे पूरी शक्ति से पकड़े रहता है। (वानरी भाव)
दूसरा ”उस बिल्ली के बच्चे की भाँति , जो अपनी माँ को पकड़ता ही नहीं, बल्कि निश्चिन्त बैठा रहता है कि माँ है न, वह स्वयं ही मेरी रक्षा करेगी, और माँ सचमुच उसे अपने मुँह में टांग कर घूमती है। ” (मार्जारी भाव)
मेरी भी स्थिति अब तक कभी बिल्ली के बच्चे की तरह थी तो कभी बन्दर की तरह।बचपन से अबतक माँ ने मुझे बिल्ली के बच्चे की तरह दाँत से लगाये रखा।जब मुझे इस सुरक्षा कवच की आदत हो गयी तो माँ ने….
खैर, विधि के विधान के आगे न किसी की चली है ,न चलेगी।
अभी रात के 12:00 बजे हैं ।मैं हमेशा की तरह सबके सोने के बाद अपनी कलम उठाये भावनाओं का बीज रोपने के लिए शब्दों की जमीन को तोड़ने फोड़ने की कोशिश में लगी हूँ ।माँ होती तो भगवान का दीपक जलाने के बहाने मेरे कमरे में आती एवं सो जाने की हिदायत देती! कभी मुझे सोच में डूबे देख मुस्कुरा कर अपने कमरे में चल देती। उसे मेरी दिनचर्या पता थी ।मेरा देर रात तक जगना उसे कभी पसंद नहीं था।वो सुबह तड़के उठकर भगवान का बर्तन धोती ,मंदिर का पोछा लगाती और कोई न कोई प्रार्थना गाती रहती। सुबह जगते ही वो सबसे पहले टीवी खोल देती थी।वह कहीं भी रहे उसके कान में टीवी के प्रवचन और कीर्तन की आवाज आती रहनी चाहिए। दिन-रात भगवान का भजन कीर्तन करते रहना उसका स्वभाव हो गया था।वह पिछले एक दशक से कुछ अधिक ही भगवानमय हो गई थी। उन्हीं को निहारते सोना और उन्हीं को निहारते जागना। मैं उसकी अतिशय भक्ति से कई बार परेशान हो जाती थी। जाड़े की सुबह में जबकि बिहार का तापमान अमूमन 2 या 3 डिग्री होता है ,में भी अपने किसी भी अनुष्ठान को उसने छोड़ा नहीं। सुबह- शाम मंदिर को पोछना, भगवान के बर्तन धोना अनवरत जारी रहा। बाल गोपाल जिसे वो कान्हा कहती थी , भोजन कराना ,उनकी आरती करना कुल मिलाकर यही दिनचर्या बची थी उसकी ।
मैं सोचती कि कर्म को अपना धर्म समझने वाली माँ इस तरह कैसे हो गई? दिमाग पर बहुत जोर देने पर बचपन का कुछ पल सामने आता है, जब हम तीनों भाई बहन चार, पांच और छह बरस के रहे होंगे। मुझे लगता है कि याददाश्त की यही सीमा होती होगी! शायद उम्र के बढ़ते ही अपने बचपन ( 1 से 4 वर्ष) के बीच का कार्यकाल आंखों से अदृश्य ही नजर आता है। फिलहाल जितना याद है उस हिसाब से माँ शाही मीनापुर( मेरा ननिहाल ) में ही शिक्षिका थी ।यह मुजफ्फरपुर जिला के औराई थाना का एक समृद्ध गाँव है, जिसे आप आदर्श गाँव भी कह सकते हैं। आदर्श गाँव कहने का मेरा मतलब उस गाँव से है जहां सिंचाई के लिए नदी, पोखर, इंडा तथा चापाकल तक उपलब्ध हो ।पठन-पाठन हेतु प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय हो। गांव के पास अपना पुस्तकालय, वाचनालय हो तथा खेलने के लिए एक बड़ा मैदान हो, तो ऐसे गाँव को मैं आदर्श गाँव न कहूँ तो क्या कहूँ? हाँ !तो जहां तक मुझे याद है कि मेरे घर के बगल में एक पोखर था और पोखर के ठीक सटे हमारा चापाकल ।जहाँ माँ हम तीनों भाई- बहन को बाल्टी में पानी भर- भर कर स्नान कराती और बदन पर खूब सारे पाउडर( क्यूटि क्युरा) लगाकर स्वच्छ धुले कपड़े पहना विद्यालय जाने के लिए तैयार कर देती ।हम तीनों भाई-बहन नहाने के क्रम में खूब रोते। माँ स्नान कराने के लिए अक्सर मार्गो साबुन का इस्तेमाल करती। हम सब आँख में लगने के डर से पहले ही रोने लगते ।रोने- धोने पर माँ का थप्पड़ खूब लगता। फिर माँ सारे कपड़े धोकर स्वयं स्नान करती ,पूजा करती और खाना खा कर ,हम सबों को लेकर स्कूल चली जाती ।हमने नानी और मौसी से सुना है कि जब हम बहुत छोटे थे तब हमारे लिए माँ ने 3 -3 नौकरानियाँ नियुक्त कर रखी थी ताकि हमारी देखरेख में कोई कमी न रह सके । माँ पूजा-पाठ तब भी करती थी पर, इतनी ज्यादा नहीं। तब उसकी व्यस्तता किसी सुपरवुमैन की तरह की थी। कहने के लिए दो हाथ ही थे पर वह माँ दुर्गा की तरह कई हाथों से एक साथ काम करती थी। खूब पढ़ने की ललक ने ही एक आठवीं पास लड़की को उच्च शिक्षा की सर्वोच्च उपाधि तक की यात्रा करवा दी ।स्कूल से पढ़ा कर आना, हमारी होमवर्क करवाना, फिर रात का खाना तैयार करना, सभी को खिलाना और फिर देर रात तक डिबिया की रोशनी में पढ़ना ।यह काम कोई सुपरवुमन ही कर सकती है।
माँ 1984 में शिवहर बालिका उच्च विद्यालय में पदस्थापित हुई। हम लोगों को एक नया परिवेश मिला। माँ की व्यस्तता प्रधानाध्यापिका के पद संभालते ही और ज्यादा बढ़ गई थी। पिता पुलिस विभाग में कार्यरत होने की वज़ह से बहुत ही कम आते थे ।ऐसे में ,माँ पर अपने विद्यालय को अच्छे से संचालन के अलावा हम तीनों भाई-बहन पर भी ध्यान देना पड़ता था। माँ एक बेहद अनुशासन प्रिय शिक्षका थी।हिंदी की कक्षा में वे अपने पाठ के दरमियान खूब अच्छी-अच्छी प्रेरक कहानियां सुनातीं। लड़कियां उसे ‘रोल मॉडल’ की तरह देखती थीं। माँ को हमेशा लगता कि हम हर विषय में पारंगत हों।हिंदी की मेरी कॉपी जाँचते वक्त कई बार मेरे सिर पकड़कर लालटेन पर दे मारती । गुस्से में आग बबूला हो जाती । फिर प्यार भी करती। उसने कभी बेटा- बेटी में फर्क नहीं किया ।ईमानदारी से कहूँ, तो सबसे छोटी होने के नाते सर्वाधिक प्यार- दुलार मुझे ही मिला ।सर्वाधिक पौष्टिक भोजन भी मुझे ही दिया गया। माँ ने अकेले हम तीनों भाई बहन को पाला- पोसा एवं शिक्षित किया। नैतिकता और सच्चाई को स्वयं जीते हुए हमें भी इन्हीं राहों पर चलना सिखाया। नैतिकता कब हमारे नस -नस में समा गयी ,पता ही नहीं चला। आज आलम यह है कि मेरी बेटी धोखे से दुकान से एक समान अधिक आ जाने पर ,उसे शीघ्र लौटा देने को आतुर हो जाती है। उसके पैसे वापस देने के लिए हमसे जिद करती है। मेरी माँ अपनी नातिन के इस रूप को देखकर खूब प्रसन्न होती थी ।उसे लगता था कि उसने एक सच्चे और ईमानदार पीढ़ियों को जन्म दिया है और यही एक सार्थक परवरिश का उत्स भी है ।
मैट्रिक करने के बाद मैं अधिकांश छात्रावास में ही रही। मैं होमसिकनेस की वज़ह से हमेशा बीमार पड़ जाती। माँ मेरी अस्वस्थता का समाचार पाते ही शिवहर से अविलंब मेरे मुजफ्फरपुर स्थित छात्रावास में पहुंच जाती और ठीक होने पर ही जाती ।मेरी सहेलियाँ मेरा मजाक उड़ातीं। वे माँ से भी कहतीं कि “आंटी आप इतना परेशान क्यों होती हैं ?हम भी यहाँ अकेली रहती हैं! हमारी माएँ कहाँ इस तरह आती हैं ?”पर माँ किसी की नहीं सुनती!
मेरी जरा सी तकलीफ उसे बर्दाश्त नहीं होती। मेरी तबीयत खराब होते ही तरह-तरह के पौष्टिक फल, हॉर्लिक्स और ड्राई फ्रूट्स लेकर पहुंच जाती थी। माँ की गोद मेरे लिए जन्नत थी। माँ को देखना खुदा को देखना था।मेरी किसी भी तरह की समस्या का निदान माँ के पास अवश्य होता था।

माँ की शादी एक संयुक्त परिवार में हुई थी। मेरे पापा उन दिनों पुलिस डिपार्टमेंट में कार्यरत थे।उनके चार भाई और एक बहन थीं।माँ का ससुराल यानी कि मेरा घर ढोली पूसा के पास बलुआ गाँव में है ।यह गाँव बूढ़ी गंडक के किनारे अवस्थित प्राकृतिक संपदा से भरा -पूरा गाँव है।हाँलाकि शिक्षा की दृष्टि से मेरे ननिहाल शाहीमीनापुर से यह गाँव थोड़ा कम अब भी है।माँ ने शादी के बाद अपने परिवार और टोले के बच्चों को पढ़ाई की तरफ मुखातिब किया। माँ की शिक्षा से प्रेरणा लेकर यहाँ की महिलाएँ भी नौकरी पेशा में जाने लगी हैं।माँ को बड़े चाचा (अमीन साहब के नाम से प्रसिद्ध) बहुत मानते थे।मुझे याद है वे मीनापुर और शिवहर में प्रायः आम और लीची लेकर आते थे।छोटे चाचा और चाची का आलम यह है कि माँ के नहीं रहने पर अबतक उनके आँसू सूख नहीं रहे। चाचा हमेशा कोशिश करते हैं कि हमें माँ पिता की कमी न महसूस हो। यह सब माँ के त्याग और समर्पन का ही प्रतिफल है।माँ प्रत्येक व्यक्ति का बहुत ख्याल रखती थी।वो अपने गाँव की सर्वाधिक पढ़ी- लिखी महिला थी ।अतः उसके गाँव पहुँचते ही मेला जैसा लग जाता था।गाँव की तमाम महिलाएँ अपना सुख-दुख उन्हीं से शेयर करतीं ।उन्हें अपनी हर समस्या का हल माँ में ही नजर आता।
माँ की तबीयत खराब होने पर छोटे चाचा ,चाची ,नीरू भैया,नागेन्द्र भैया ,विजय भैया ,राजीव, चंदन के अलावा घर की सभी बेटियाँ जिस तरह माँ के स्वास्थ्य के लिए चिंतित रहीं ,वह उनके प्रेम की पराकाष्ठा थी ।
मेरे दोनों भाइयों और भाभियों ने भी माँ की बहुत सेवा की ।छोटे भाई अमीरेश और छोटी भाभी व्यवसायिक व्यस्तता की वज़ह से जामनगर लौटने पर भी मन से यहीं रहे।दिन भर में चार -पाँच बार फोन करना और माँ का हौसला बढ़ाना जैसे उनकी दिनचर्या में शामिल थी। उन्होंने माँ की सेवा के लिए एक लड़की भी रख दी थी ताकि मुझे ज्यादा परेशानी न हो ।बड़े भाई ने कोरोना काल में यहीं होने की वज़ह से सेवा करने में कोई कसर नहीं छोड़ा। बड़ी भाभी ने भी बिल्कुल बेटी बनकर सेवा किया।यही वज़ह है कि वे न मुझे आँखों से ओझल देखना चाहती थीं ,न भाभी को।मेरी बेटी आद्या , मेरा भतीजा सौरेश और मेरी भतीजी राशि अपनी नानी व दादी को पल भर भी नहीं भूलती। माँ हमेशा बच्चों के सामने बच्चा ही बन जाती थी।स्वाभाविक है कि वे अपनी प्यारी दोस्त को कैसे भूले!

2001 में मेरी शादी हुई ।शादी के बाद मैं अपने पति के साथ मेडिकल कॉलेज में ही रहती थी। माँ हमेशा फल वगैरह लेकर आती ।उसने ही कन्यादान किया था। अतः हमारे यहाँ का कुछ खाना वगैरह नहीं खाती। अपना पानी भी साथ लेकर आती थी। एक बार वह स्कूल में ही बहुत बीमार पड़ गई ।उसे सीधा मेडिकल वाले फ्लैट में ही आना पड़ा। अब स्वस्थ होने पर खाना कैसे खाए?ऐसी परिस्थिति में पड़ोसी डॉक्टर उमेश राज जी के यहाँ से उनका खाना आता, जिसे वह पैसे से खरीद लेती थी। जब मेरी बेटी का जन्म हुआ तो उसने उसे सोने का हनुमानी दिया ।तब ही अन्न-जल ग्रहण करना शुरू की।
इस तरह की परंपराओं का निर्वाह करना उसे बहुत पसंद था ।उनका मानना था कि परंपरा हमें अपने पुरखों से जोड़ कर रखती है। हाँ! वह परंपरावादी जरूर थी पर, रूढ़िवादी बिल्कुल नहीं। किस दिन क्या पहनना चाहिए , किस दिशा की यात्रा करनी चाहिए इत्यादि सारी बातें जानने के बाद भी वह प्रत्येक दिन यात्राएँ करती रही ।
“होई हई सोई जो राम रचि राखा/ को करि तर्क बढ़ावहि साखा ” उसके जीवन का मूलमंत्र था। वह हमेशा कहा करती -“राम झरोखा बैठ के सब के मोजरा लेत/ जा की जैसी चाकरी ताकि सो फल देत”। इसलिए इंसान के कृत्यों या उसके कुकृत्यों पर कभी ध्यान नहीं देना चाहिए। कोई दूसरा तुम्हें बुरा कहे तो तुम्हें उसके जैसा नहीं होना चाहिए बल्कि अपनी अच्छाई पर कायम रहना चाहिए। वे कहतीं ” फूल का काम खुशबू देना है और साँप का काम काटना ।”जो जिसका नैसर्गिक गुण है ,वह उसे छोड़ कैसे सकता है?
माँ अपने घर की बड़ी लड़की थी ।उनके बाद उनके तीन भाई थे।तीनों भाइयों के लालन -पालन में माँ का योगदान अविस्मरणीय है।माँ अपने भाईयों के अलावा शिक्षक होने की वज़ह से पूरे टोले और गाँव की बहन थी।जितना सम्मान माँ को पूरे गाँव से मिला ,वह दुर्लभ है।माँ ने त्याग ,निष्ठा और ईमानदारी के बल पर उबड़- खाबड़ रास्तों पर कोलतार बिछाया और हमारे चलने के लिए बाधा रहित सड़कें दीं।

शादी के बाद साधारणतया लड़कियाँ अपने ससुराल में रम जाती हैं और अपनी माँ के सानिध्य से वंचित हो जाती हैं। पर, मेरी शादी यूँ तो पूर्वी चंपारण में हुई पर पति डॉ अनिल कुमार उन दिनों इंटर्नशिप (एस के एम सी एच ,मुजफ्फरपुर से )कर रहे थे। इसलिए मैं मुजफ्फरपुर में ही श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज के छात्रावास में अपने पति के साथ रहने लगी थी । एक ही शहर में रहने की वज़ह से लगभग रोज शादी के बाद भी हमारा मिलना-जुलना होता रहा।मेरी शादी के बाद मेरी सासू माँ को ब्रेस्ट कैंसर हो गया। ऐसे वक्त में, माँ ढाल बनकर हमारे परिवार के सामने खड़ी रही। हमेशा मुझे सासू माँ की सेवा करने की प्रेरणा देती रही ।खूब सारे फल वगैरह लाकर उन्हें खिलाने बोलती ।कई बार स्वयं उनके लिए खूब सारा फल लेकर उनसे मिलने भी आती ।ससुर जी का ब्रेन हेमरेज हुआ और उन्हें पैरालाइसिस भी हो गया।
शादी के बाद हमारा जीवन अत्यंत संघर्ष में बीत रहा था। पर ,माँ हमेशा मुझे मानसिक रूप से मजबूत बनाती रही। सारी जिम्मेदारियों को पूरी निष्ठा के साथ निभाते हुए अचानक ही बड़ी हो गई थी। सास एवं ससुर जी दुनिया छोड़ कर चले गए। घर की बड़ी बहू होने के नाते संपूर्ण जिम्मेदारियों को निभाते हुए एक चुलबुली लड़की अचानक प्रौढ हो गई। उस समय के संघर्ष की दास्तान लिखते हुए रोंगटे खड़े हो रहे हैं ।
पति हाउस जॉब के बाद एम एस( मास्टर ऑफ सर्जरी) करना चाहते थे ,जिसकी परीक्षा काफी कठिन होती है। सास- ससुर की बीमारी, पति ,देवर एवं ननद की पढ़ाई के बीच मेरा लेखन कार्य कहाँ गुम हो गया पता ही नहीं चला ?मैंने खुद को वक्त के हाथों का एक प्यादा समझकर वक्त पर छोड़ दिया था । पर,माँ हमेशा समझाती ‘देखना सब ठीक हो जाएगा’ ।यह सुनते ही मैं फफक पड़ती थी।कई बार मेरी हिम्मत जवाब दे जाती ।आखिर इस संघर्ष का कहीं तो कोई अंत होगा?
मेरी बेटी का जन्म होते ही लगभग सब कुछ सामान्य होने लगा ।पति का पी एम सी एच,पटना में एम एस के लिए दाखिला हुआ। तब मैं माँ के पास ही रहने लगी । उन दिनों मेरा पी एच डी का काम भी चल रहा था ।मेरी छोटी ननद मेरे ही साथ मेरी माँ के पास रह कर इंटर की पढ़ाई कर रही थी। एम एस करने के बाद पति ने भी मुजफ्फरपुर में प्रैक्टिस शुरू कर दी। इस तरह विवाह के उपरांत भी माँ के साथ ही रही ।
2018 में हमारा खुद का हॉस्पिटल बन गया तथा हम अपने जीरोमाइल स्थित हॉस्पिटल सह घर में आ गए। हम लोगों के वहाँ से आते ही माँ अकेली पड़ गई और लगातार बीमार रहने लगी। यूँ तो बीमार वो पहले भी रहती थी ।पर,हमलोगों के साथ रहने की वज़ह से उसका इलाज शीघ्र हो जाता था। पर अब बीमारी के साथ उसके पास अकेलापन ने भी जगह बना ली। माँ अब और बीमार रहने लगी। उसे बेटी के यहाँ आ कर रहना पसंद नहीं था। पर ,हमेशा तबीयत खराब रहने की वज़ह से उसे एक दिन अपना घर छोड़कर मेरे साथ रहने आना पड़ा ।थोड़ा सा स्वस्थ होती तो पुनः अपने घर जाकर साफ -सफाई करवाना नहीं भूलती ।उसे अपने घर से बहुत लगाव था। लगाव हो भी क्यों न? एक स्त्री होकर उसने नौकरी करते हुए जमीन खरीदी और उस पर मकान बनवाया। उस मकान की हर इक ईंट में उसकी मेहनत समायी हुई है। विद्यालय से आते ही राजमिस्त्री एवं ठेकेदार ‘लतीफ’ से पूरे दिन के काम का लेखा-जोखा लेना, कितना सामान घटा है और क्या- क्या जरूरतें हैं ?सभी को समझती- बूझती देर शाम को घर आती थी। घर ,विद्यालय, भवन निर्माण सब कुछ एक साथ करती किसी सुपरवुमैन की ही तरह वो काम कर रही थी। वह इस पूरे संघर्ष में बिल्कुल अकेली ही रही ।ईंट ,बालू ,सीमेंट मंगवाने में मेरे पति ,देवर ,नंदोई वगैरह जरुर मदद करते रहे पर, ज्यादातर काम वह स्वयं किया करती थी।
माँ की पहचान बहुत अनुशासन प्रिय शिक्षिका के रूप में रही है। मैट्रिक तक की शिक्षा मैंने माँ के विद्यालय से ही ग्रहण की है ।अतः यह बात दावे के साथ कह सकती हूँ कि उस समय शिवहर बालिका उच्च विद्यालय की शिक्षा नेतरहाट एवं हजारीबाग सेंट्रल स्कूल की तरह की थी। एक भी घंटी लीजर होने का सवाल ही नहीं उठता था ! अगर कोई शिक्षक कक्षा से अनुपस्थित पाये जाते तो वह उन्हें कक्षा लेने के लिए बोलने में थोड़ा भी संकोच नहीं करती थी। सफाई की घंटी, प्रार्थना की घंटी, पढ़ाई की घंटी, खेलकूद की घंटी एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम की घंटी ।प्रत्येक घंटी में प्रत्येक शिक्षक की उपस्थिति अनिवार्य हुआ करती थी। लड़कियों का सर्वांगीण विकास उसका सपना था। वह पढ़ाई के अलावा वाद- विवाद प्रतियोगिता, नाटक, अंत्याक्षरी, काव्य पाठ, कहानी लेखन इत्यादि प्रतियोगिता हमेशा इनर स्कूल एवं इंटर स्कूल आयोजित करवाती। उस वक्त लड़कियाँ विज्ञान कांग्रेस में स्टेट लेवल तक पहुंचा करती थी । 84 से 2000 तक का कार्यकाल अगर मैं यह कहूँ कि बालिका उच्च विद्यालय का ही नहीं पूरे शिवहर जिला के विद्यार्थियों के लिए स्वर्णकाल था ,तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
उसी पढ़ाई और माहौल का नतीजा है कि उसकी विद्यार्थी देश-विदेश में अपनी प्रतिभा का डंका बजा रही हैं ।मेरे कॉलेज में जाने पर माँ दिन -रात विद्यालय की छात्राओं के हित में ही सोचा करती। मुझे हमेशा लगता था कि यह मेरी माँ है , यह मुझ पर ध्यान क्यों नहीं देती ?।पर, वह मुझ अकेली की माँ नहीं बल्कि 300 बच्चियों की माँ थी। अपने कर्तव्य के आगे किसी की नहीं सुनती थीं ।मुझे तेज बुखार आने पर भी अपने विद्यालय के बच्चों को मेरे पास भेज देती। उसे भाषण या काव्य पाठ सिखाना पड़ता ।वे बच्चियाँ मेरे निर्देशानुसार तैयारी में जुट जातीं।
माँ को मैंने राष्ट्रीय पर्व 15 अगस्त एवं 26 जनवरी को बहुत उत्साह से मनाते देखा है। इसकी तैयारी में वो महीनों से जुटी रहती ।बचपन में ,मैंने उसे मीनापुर में , किशोर होने पर शिवहर में, युवा होने पर घर की छत पर तथा बाद में आद्या हॉस्पिटल की छत पर झंडोत्तोलन करते देखा है। देशभक्ति उसके रोम- रोम में समाहित थी। बच्चों को पढ़ाते हुए हमेशा महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस ,खुदीराम बोस, विवेकानंद ,गौतम बुद्ध आदि महापुरुषों की कथा सुनाया करती थी। वह न केवल कक्षा का ज्ञान बल्कि चरित्र निर्माण को भी उतना ही महत्व देती थी। उसके अनुसार जीवन में व्यवहारिक शिक्षा का भी बड़ा महत्व है। वह एक कुम्हार की तरह थी, जो धीरे-धीरे अपने हाथों की चोट से जीवन रूपी मिट्टी को मुलायम बनाती जाती थी।
कभी-कभी सोचती हूँ कि मैं विज्ञान की विद्यार्थी साहित्य कैसे रचने लगी? तह में जाने पर पता चलता है कि माँ ने बचपन में ही हमें किताबों से मित्रता करना सिखा दिया था। किताबें हमारी कमजोरी हो गयी थीं। सातवीं- आठवीं कक्षा में जब गुड्डे गुड़ियों के साथ खेलने की उम्र होती है ,हम पुस्तकालय में अपना समय बिताने लगे। माँ का दिया यह गुण मुझसे होते हुए मेरी बिटिया आद्या में प्रवाहित हो रही है ।
लोग कहते हैं कि मेरी माँ नहीं रही ,तो खुद में एक अपराधी -सा भाव आता है । माँ हमेशा गाती थी “जेक्कर नाथ भोले नाथ ऊ अनाथ कैसे हो” …
लेकिन भोले नाथ साथ हैं फिर भी अनाथ ही खुद को महसूस करती हूँ।सच कहूं! तो रात में वह सबसे ज्यादा याद आती है। दिन भर घर- बाहर के जरूरी कामों में व्यस्त रहती हूँ तो ,लगता है यहीं कहीं होगी !पर आवाज क्यों नहीं देती ? मुझ पर चिल्लाती क्यों नहीं?
बीमार होने पर वह ज्यादा डर गई थी। यही वजह है कि वह मुझे कुछ मिनटों के लिए भी अपनी आँखों से ओझल होने देना नहीं चाहती थी ।कई बार इस वज़ह से मैं गुस्सा भी करती थी ।अब लगता है कि मेरे गुस्सा की सजा ….
मेरी माँ मुझे देकर चली गई। नानी हमेशा कहा करती थी कि ” एक दिन के रोगी त सब करे खोजी / सौ दिन के रोगी त कोन करे खोजी यानी कि एक दिन बीमार हो तो सब पूछते हैं पर अगर कोई हमेशा के लिए बीमार हो जाए तो लोग पूछना भी छोड़ देते हैं ।अब मैं सोचती हूँ ,तो खुद में हजार कमियाँ नजर आती हैं ।लगता है कि काश !मैं ऐसा करती ।काश! मैं वैसा करती ।काश! मैं ऐसा करती…. तो माँ आज जिंदा होती !
मैं जानती हूँ कि विधि के विधान के आगे किसी का कुछ चल नहीं सकता ।भारतीय जनमानस के आस्था के केंद्र राम अपने पिता दशरथ की मृत्यु को रोक पाने में सफल नहीं हुए तथा भगवान कृष्ण अभिमन्यु वध को रोक नहीं पाए तो मैं भला कैसे रोक सकती थी! हमें नचाने वाला कोई और है ,हम तो बस नाचते रहते हैं।
कोई भी समय के चक्र को अभी तक रोक नहीं पाया है ,इसे मैं इसे बखूबी जानती हूँ। मैं यह भी समझती हूँ कि कोई भी घटना घटने के पहले अपने चारों तरफ वातावरण तैयार करती है। मनुष्य तो उस काल के गति का माध्यम भर है। सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ प्रोफेसर श्रीरंग शाही हमेशा कहते थे कि” होनी होकर रहेगी ।अनहोनी कभी नहीं होगी”। सब कुछ जानते हुए मन इतना व्यथित क्यों होता है? नहीं जानती!
क्यों इतने आँसू बहते रहते हैं, कुछ भी नहीं पता? बार-बार उसका संघर्ष याद आता रहता है। काश! माँ मुझे समझ पाती और हमारी झोली में अपना कुछ और वक्त दे पाती! सच कहूँ, तो मैंने सोचा ही नहीं था कि वह बूढ़ी हो गई है ।अभी तक उसके एक भी दांत टूटे भी तो नहीं थे! मुझे कभी कहती कि कमजोरी महसूस हो रही है तो ,मैं उसे कहती कि कम से कम 15 दिन समय से खाना पीना खा लो। अगर फिर भी कमजोरी लगे तो मैं बाहर इलाज के लिए ले जाऊँगी। पिछले चार-पाँच साल से उसे खून कम बनने की शिकायत थी ।इसके लिए सारी जाँच भी करवा ली गयी थी। पर, सब नॉर्मल रिपोर्ट आ रही थी ।यही वज़ह थी कि मैं उसे खाने पीने पर ध्यान रखने की सलाह देती थी। पर, वह मेरी बातों पर बिल्कुल ध्यान नहीं देती। जब तबीयत खराब होती तो दो-चार दिन रूटीन बिल्कुल ठीक रहता। फिर वही बात।
पूजा-पाठ करते- करते उनकी आध्यात्मिक चेतना का पूरा विकास हो चुका था। वह साल दो साल पहले से ही हमेशा मर जाने की बात कहतीं ।और मैं हमेशा उन्हें और 20 साल जिंदा रहने की बात कह, चुप करा देती। शायद उनके मन में यह विश्वास हो गया था कि उनके परिवार में लगभग सभी लोग 70 से 80 के बीच इस धरती से प्रस्थान कर गये हैं इसलिए अब उनका भी वक्त आ गया है।मेरे बाबूजी यानी नाना जी भी 80 साल में दुनिया छोड़ गए थे । नानी भी 75 साल तक ही जी पाई थी तथा मेरे पापा भी 75 साल में दुनिया छोड़ गए ….तो माँ को भी ऐसा लगने लगा था कि मेरी बारी अब आने ही वाली है। पर, मेरे गुस्सा करने के डर से वो मुझे यह सब नहीं बताती थीं । हाँ ! एक तरह से उन्होंने अपना पैकिंग शुरू कर दिया था ।
थोड़ा खुद संयमित करके सोचती हूँ , तो लगता है 72 की उम्र बहुत कम भी तो नहीं होती!
वो क्रिकेट की बड़ी शौकीन थीं। एक दिन वह इंडिया और पाकिस्तान का वन डे मैच देख रही थीं। कपिल देव भारत के टीम के कप्तान थे। उन्होंने उस मैच में 72 रन बनाया और आउट हो गये ।हालांकि भारत की टीम हार गई थी। पर, कपिल की बल्लेबाजी देखने लायक थी। माँ ने हँसते हुए कहा था कि कोई बात नहीं ।कपिल ने 72 रन की शानदार पारी खेली है, यह बात अलग है कि टीम हार गई।
हाँ माँ! तुमने भी एक शानदार पारी खेली है। जिस पर सदियाँ गर्व करेंगी। मैं इस बात पर आजीवन गर्व करती रहूँगी कि मैंने तुम्हारे गर्भ से जन्म लिया है। अगर पुनर्जन्म होता हो तो मेरी उस परमपिता परमेश्वर से यह प्रार्थना है कि मुझे पुनः तुम्हारा गर्भ मिले ।मेरी हर एक गलतियों के लिए तुम मुझे माफ कर दो और मुझे पुनः अपनी ममता की छाँव दे दो।

भावना

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Previous post हिन्दी ग़ज़ल के बढ़ते आयाम-मूलभूत तथ्यों की पहचान :: अनिरुद्ध सिन्हा
AANCH Next post लघुकथा :: चित्तरंजन गोप ‘लुकाठी’