माँ तुम्हारा धन्यवाद… :: आद्या भारद्वाज

माँ तुम्हारा धन्यवाद…
(आद्या भारद्वाज द्वारा अपनी नानी माँ पर लिखा संस्मरण)

मैं अपनी नानी माँ डॉ शांति कुमारी को ‘माँ’ कह कर बुलाती थी। घर में सभी लोग उन्हें माँ ही कहते थे। मैं जब छोटी थी तब मैं अपना अधिकतर समय अपनी नानी के साथ ही बिताती थी। सुबह में हम दोनों करीब एक ही समय पर उठते। तब हम माँ के घर में यानी कि बैरिया के आवास नगर मुहल्ले में रहा करते थे। वे दिन बड़े खूबसूरत थे। हम प्रत्येक सुबह घूमने जाया करते थे। दादर हमारे घर के बहुत करीब था। वहाँ बाँध के किनारे खूब फूल खिले होते थे। हम वहाँ घूमने के कई अलग-अलग मार्ग से जाते। हम दादर पहुँच कर बाँध होते हुए न्यू पुलिस लाईन जाते। हम न्यू पुलिस लाईन की ब्रेकर भरी गलियों से गुजरते थे, जिनके आसपास इतने पेड़ पौधे और पुष्प होते कि हमें ऐसा लगता जैसे किसी जंगल को पार कर रहे हों। यहाँ हम प्रायः फूल चुनने आते। यहाँ अलग-अलग फूल जैसे चंपा, लिली इत्यादि खूब खिले होते। हम जाड़े में पुलिस लाईन के मंदिर भी जाया करते थे, जिनके आसपास सुगंधित फूलों के पौधे हुआ करते थे। मंदिर के पास में बेल का भी पेड़ था। मुझे 3 या 5 पत्तों के समूह वाला बेलपत्र ढूंढने में अत्यंत आनंद आता था। पाँच पत्र वाला बेलपत्र बड़ी मुश्किल से मिलता था। कभी-कभी हम न्यू पुलिस लाइन के मैदान में लगे बेल के वृक्ष से बेलपत्र तोड़ने जाते। कभी हम बैरिया गोलंबर पर भी चले जाते। माँ के साथ मेरा घर के आसपास घूमना लगा ही रहता था। प्रातः भ्रमण में हमारा काफ़ी समय निकल जाता। पर, चिंता की बात नहीं थी, क्योंकि हम लोग काफ़ी सुबह निकलते थे और स्कूल के लिए समय पर पहुँच जाते थे। यह सब सर्दियों में होता था। सर्दियों में स्कूल 9 बजे से होते थे। गर्मियों में इतना भ्रमण संभव नहीं था, क्योंकि स्कूल ही सुबह 6 बजे से होता था। यही वज़ह थी कि मैं गर्मी में कभी-कभी ही माँ के साथ दूध लाने जा पाती थी और फूल चुनने माँ को अकेले ही जाना पड़ता।
प्रकृति के पास जो आनंद का सागर है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। तब सुबह का समय बड़ा ताजगी भरा और व्यस्त होता था। घर हमें समय पर ही पहुँचना होता था ताकि हम ‘हरि शरणम्’ द्वारिकाधीश का दर्शन कर सकें। यह संस्कार चैनल पर हर सुबह और दिन में भी ‘आज का दर्शन’ नाम से आता था। यह कार्यक्रम सिर्फ 5 मिनट तक चलता था, जो प्रायः ७ बजे के आसपास होता था। यह कार्यक्रम देखना दिन की शुरुआत के लिए अनिवार्य था। अगर न देखा तो मुझे पूरे दिन बुरा लगता रहता था। जो भी हो यह हरि शरणम् देखने की आदत तो हमारी हमेशा ही बनी रही। चाहे हम माँ के घर से जीरोमाइल, आद्या हाॅस्पिटल वाले घर में क्यों न आ गए होंI मैं तो माँ को हरि शरणम् छूट जाने के बाद कभी-कभी मोबाईल पर भी हरिदर्शन दिखा देती थी। हाँ! 4G internet और स्मार्टफोन का युग भी आ चुका था। हरि शरणम् में कोई असली मूर्ति लाइव नहीं दिखाते, यह कंप्यूटराइज्ड होता था। परंतु माँ को ऐसा नहीं लगता था।
हम लोग हर सुबह शुद्ध दूध लाने जाते थे। मुख्य रास्ते के किनारे पीपल के वृक्ष के दाएं होकर एक मार्ग जाता था। उसी मार्ग में दूधवाले का घर था। हम जहाँ से दूध लाने जाते वहाँ पर कई खरगोश थे। खरगोश से बच्चों को विशेष लगाव होता है। खरगोश वाले घर के पास में ही स्पाइडर लिली की एक झाड़ थी। यह काफ़ी घनी और रोड से थोड़ी हटकर थी। हम इससे फूल हमेशा तोड़ लाते थे। फिर मैं माँ की ऊँगली पकड़े दूध वाले के घर में जाती और खरगोश को देखकर अत्यंत प्रसन्न हो उठती। बाद में माँ ने एक दूसरे दूध वाले से (उनके पास भी खरगोश थे) कृष्णा और श्वेता नामक दो खरगोश ले लिए। उनकी माँ (ऐसा हम सोचते हैं), का नाम हमने लालिमा रख दिया। पर, कुछ दिनों के बाद लालिमा को हमने वापस लौटा दिया। क्योंकि हमारे पास बहुत खरगोशों को रखने की जगह नहीं थी। यह दूधवाला पीपल के वृक्ष से बाई वाली गली में थे, जिसे हमने बाद में दूध लेना शुरू कर दिया था। दूध लाने के समय हमारे साथ कई रोमांचक किस्से हुए हैं। दूध लाने हमारे साथ हमारा पालतू कुत्ता राॅकेट भी जाता था। अब बड़े-बड़े कुत्ते हमारे पीछे पड़ जाते। कभी कुत्ते हमारे रॉकेट को दबोचने आते …कभी राॅकेट उनपर झपटता। माँ उसको बचाने बाद में डंडा लेकर जाने लगी। मैं इन कुत्तों और एक सांड की वजह से अकेले दूध लाने से थोड़ा डरती थी। लेकिन जो भी हो इन भयानक परिस्थितियों से हम बिना किसी क्षति के बाहर आ जाते। मैं माँ के साथ में दीपक किराना भी जाया करती थी। हमारे साथ में रॉकेट भी जाता। हाँ! दिन में कई बार मैं दीपक किराना जाती और हर बार साथ में रॉकेट भी जाता। रॉकेट के लिए माँ ₹2 वाला बिस्कुट या ₹3 वाला Parle-G, जो बाद में ₹5 का हो गया था, अवश्य खरीदती थी। उसके लिए साथ में दूध और चूरा भी खरीदा जाता। रॉकेट हमारे यहाँ ही खाना खाता और फिर घूमने निकल जाता।
हम बहुत पदयात्रा किया करते थे। नवरात्रि में माँ के साथ मैं बैरिया गोलंबर वाले मंदिर तक पैदल जाती। पहले वहाँ मेला भी लगा करता था। बलून, बाँसुरी, बतासा, चुनरी, फूल, चाऊमीन, गुपचुप आदि की कई दुकानें लग जाती थीं । मुझे याद है उसी रोड में एक दूध की डेयरी और कई किराने की दुकानें भी थीं। बहुत बार हम बैरिया से फल खरीद कर भी लाया करते थे। पर ,जल्द ही हमारा निकलना बंद हो गया। माँ के पैरों में दर्द रहने लगा ।

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माँ हर दिन दोपहर को सोया करती थी। मैं स्कूल से लौटती तो हमेशा किसी व्यक्ति की तलाश में रहती थी, जो मेरी बातें अच्छी श्रोता की तरह सुन सके। जब भी स्कूल में कुछ नया सीखती , उसके बारे में बताना चाहती थी। कोई भी कहानी जो मुझे अच्छी लगती चाहे वह हिंदी, संस्कृत या अंग्रेजी की हीं क्यों न हो, मैं माँ को अवश्य सुनाती। मैं बहुत बार माँ को सोने नहीं देती थी। जबर्दस्ती इतिहास की किताब निकालकर माँ को भारत की स्वतंत्रता से जुड़ी घटनाओं या फ्रेंच रिवोल्यूशन के बारे में बताती। इतिहास में सभी चीजें इतनी जुड़ी हुई हैं कि किसी विषय पर बात खत्म ही नहीं होती। माँ मेरी बातें बहुत देर तक सुनती। जब मैंने नौवीं कक्षा में हिंदी की जगह संस्कृत भाषा को चुना तो माँ को उतना अच्छा नहीं लगा। पर बाद में जब मैं माँ को संस्कृत व्याकरण और संस्कृत में संधि, समास और कैसे मूल शब्दों में उपसर्ग-प्रत्यय जोड़कर नए शब्द बनते हैं, के बारे में बताती तो माँ जानकर बहुत हर्षित होती थी। माँ को मैं संस्कृत में मेरे पाठ्यक्रम में जो श्लोक थे उन्हें सुनाती। उनकी संधि और अन्वय और उनका अर्थ बताती। कभी संस्कृत की कविताएँ सुनाती। मैंने संस्कृत विषय तो ले लिया था पर मैंने हिंदी पढ़ना नहीं छोड़ा। अपनी ही कक्षा की हिंदी पुस्तक खरीद कर पढ़ती थी।उसे माँ को भी पढ़ने को देती थी। मेरी सारी हिंदी की किताबें हमेशा माँ के कमरे में ही होती।
हिंदी की किताब में कुछ कविताएँ अवधि या उर्दू भाषा के मिश्रण में लिखी होती थीं, जिन्हें समझना बहुत कठिन था। उनमें से कुछ दोहे और कविताएँ मुझे समझ में नहीं आती थीं। माँ मुझे उनका अर्थ बताती। माँ को बहुत सारी कविताएँ याद थीं। जिन्हें माँ ने दूसरी-तीसरी कक्षा में पढ़ा था, वह भी। माँ के साथ मेरा समय बहुत अच्छा बीतता था।
माँ के पास एक सूरदास के दोहों की किताब थी, जो माँ ने लाईब्रेरी से ली थी। हमारे पास एक लाइब्रेरी है। मैंने लाइब्रेरी से किताबों की लेनदेन का एक रजिस्टर बना लिया था और उसमें से जो किताबें कोई अपने कमरे में ले जाता, उनके बारे में लिखती। लाइब्रेरी के कुछ नियम थे, वह अब भी हैं। पर अब उन्हें मानने वाला कोई नहीं। उन नियमों में से एक महत्वपूर्ण नियम यह था कि किताब को ४ दिन के भीतर वापस लौटाना हैं, नहीं तो फाइन लगेगा। माँ को अब तक बहुत फाइन लग चुका है। जिसके पैसे लाइब्रेरी को अभी तक नहीं मिले। मैं हर कुछ दिनों पर, माँ के कमरे में जाकर किताबों की एक नई श्रृंखला प्रस्तुत करती और उन किताबों के बारे में बताती । मैं माँ से कहती कि कोई किताब ले लो.. माँ को मैं अंग्रेजी की किताबें भी दिखाती और उसकी कहानी संक्षिप्त में बताती। माँ को किताबें चाहिए हो या नहीं या भले ही माँ ने वह किताब पहले ही पढ़ ली हो, मैं माँ को किताब जरूर दे कर लौटती। ‘वापस पढ़ लो माँ, अब मैं पुनः इसे कहाँ ले जाऊँगी।’ खाता-बही का काम करने में मुझे बड़ा मन लगता। मैं माँ को रसीद भी देती और माँ से उनपर हस्ताक्षर भी करवाती। यानी माँ लाइब्रेरी की मुख्य पाठक थी। माँ को मैं अपनी सारी नई किताबें दिखाती। यह सब करने में मुझे बड़ा मजा आता। फिर मेरी दसवीं की परीक्षाएँ आ गईं, तो मैं व्यस्त हो गई। कोरोना की वजह से परीक्षाएँ बाद में रद्द भी हो गई।

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माँ सुबह में खरगोश को घास तोड़ कर देती। पहले हमारे पास दो खरगोश थे। श्वेता और कृष्णा। कृष्णा मम्मा को प्रिय था और श्वेता माँ को। श्वेता माँ के चारों तरफ घुमा करती थी। माँ ताली बजाती और गाती- “श्वेता गोल- गोल घूमे, श्वेता गोल- गोल घूमे, श्वेता गोल-गोल घूमे, श्वेता गोल‍…”। जब ठंड का मौसम होता तब श्वेता पिंजरे से बाहर आने पर माँ के कमरे के आगे रखे मैट पर आकर बैठ जाती। कृष्णा और श्वेता एक साथ कभी बाहर नहीं निकाले जाते। अगर कभी वे दोनों एक साथ बाहर निकल आते तो एक दूसरे से युद्ध शुरु कर देते। वे एक दूसरे के फर को नोच डालते और बहुत काटते। उन्हें छुड़ाना मुश्किल हो जाता।माँ उन्हें छुड़ाने के लिए परेशान हो जाती। उन्हें जो भी छुड़ाने जाता उसके ऊपर हमला कर देते थे। जैसे-तैसे दोनों को अलग किया जाता। श्वेता थोड़ी आक्रामक और क्रोधी थी, कृष्णा उसकी तुलना में थोड़ा कोमल था। वह पढ़ने-लिखने में बहुत रुचि रखता था। जब मम्मा गज़लें लिखती, तब वह उनके पास जा कर बैठ जाता। कलम भी दाँतों से पकड़ लेता था। श्वेता माँ के बेड पर कई बार चढ़ जाती थी – चाहे बैरिया हो या जीरोमाइल।श्वेता बहुत ज़ोर से काटती थी और कृष्णा धीरे से। जब हमारा जीरोमाईल वाले घर में गृह प्रवेश हुआ था, तब एक माह तक दोनों खरगोश माँ ही के पास थे। मैं माँ के पास स्कूल से लौटते समय रुकती और खरगोशों से मिलती। फिर माँ और खरगोश दोनों ही जीरोमाईल आ गए। कृष्णा तो एक घाव के कारण हमें छोड़ कर चला गया पर, श्वेता अचानक एक दिन प्राकृतिक रूप से मर गई। वह बूढ़ी हो गई थी। मैं जब उसे सुबह में खाना देने गई तो, वह शिथिल पड़ी हुई थी। मैं माँ को बुलाई। माँ देखते ही समझ गई कि वह मर गई है। फिर हम लोग बहुत रोए, बेचारी श्वेता सुंदरी। माँ उसे ‘मोटकी’ बुलाती थी।
फिर हमारे पास माधवी आ गई। जो बड़ा ही निर्मल और प्यारा स्वभाव का खरगोश है। उसे भी माँ रोज खाना खिलाया करती और स्नेह करती थी।

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माँ के दिन का अधिकतर समय पूजा पाठ में ही बीत जाता। माँ सुबह से उठकर पूजा पाठ करती। पूजा घर साफ करने और पूजा की तैयारी करने में ही कई घंटे लग जाते। माँ फिर स्नान करके और कई घंटे पूजा पाठ करने में व्यतीत करती। मैंने माँ से कई भजन और गीत सीखें हैं। टीवी पर जब भी कोई अच्छा और नया भजन आता, माँ उसे रिकॉर्ड कर लेती और उसके बोल लिख लेती। दिन भर घर में भजन और आरती टीवी पर चलते रहते। पूरे समय टीवी खुला रहता। अब तो कानों को उनकी आदत हो गई थी। घर का वातावरण बहुत सकारात्मक और पावन रहता था। इनमें से ही कई भजन मैंने सीखे थे। कई प्रार्थनाएँ मेरे स्कूल में गाई जाती थी, जो मैं माँ को सुनाती। जन्माष्टमी और शरद पूर्णिमा और सरस्वती पूजा आदि में मैं माँ के साथ भजन गाती। जन्माष्टमी को हम ‘राधा ढूंढ रही किसी ने मेरा श्याम देखा, राधा तेरा श्याम हमने गोकुल में देखा…’ या
‘इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर हो ना…’;
‘हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करें ,दूसरों की जय से पहले खुद की जय करें…’;
हर देश में तू, हर भेष में तू…’;
‘अच्युतम् केशवम् कृष्ण दामोदरम् राम नारायणम् जानकी वल्लभम्…’;
‘कौन कहता है भगवान आते नहीं, तुम मीरा के जैसे बुलाते नहीं…’;
जैसे अनेक गीत गाते… मुझे गाने में बहुत आनंद आता। माँ हमेशा गाने के समय मुझे बुला लेती थी।

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मैं जब सुबह उठकर पढ़ती थी तो माँ मुझे ड्राई फ्रूट खाने को देती थी और खुद फुले हुए ड्राई फ्रूट खाती थी। उन्हें खाकर मैं पुनः पढ़ने में लग जाती। मेरा बहुत ख्याल रखती थी माँ। माँ के साथ मेरा समय बहुत सरलता से बीत जाता था। माँ के साथ ही मैंने साइकिल चलाना भी सीखा। माँ मुझे हर रोज साइकिल सिखाने ले जाती थी। जब मैं छोटी थी तब मेरे साथ कबड्डी भी खेलती थी। ऐसी बहुत सारी यादें हैं जो मैं लिख सकती हूँ जैसे माँ के साथ टी.वी. देखना, सर्दियों में धूप सेंकना आदि। परंतु स्थानाभाव के कारण रुकना पड़ रहा है। अंत में मुझे बस यही लिखना है कि मैंने माँ से बहुत कुछ सीखा है और सबसे महत्वपूर्ण चीज़ जो मैंने सीखी है वह है- शिक्षा का महत्व। एक महिला जब शिक्षित होती है तो पूरी पीढ़ी शिक्षित होती है। अगर माँ शिक्षित नहीं होती तो शायद आज मैं हिंदी में यह संस्मरण नहीं लिख पा रही होती। माँ तुम्हारी बहुत याद आती है । तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद…
तुम्हारी प्यारी
आद्या भारद्वाज (बाबू) इकलौती नातिन

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