कला का प्रयोजन क्या है :: डॉ सतीश कुमार राय

कला का प्रयोजन क्या है 
                       – डॉ सतीश कुमार राय
अस्टे फिशर ने लिखा है-“कला इसलिए जरुरी है कि आदमी दुनिया को समझ सके और बदल सके। साथ हो, कला इसलिए भी जरुरी है कि उसमें जादू (आकर्षण) अंतनिहित होता है ।” स्पष्ट है कि कला का पूरा विधान हो समष्टि-सापेक्ष होता है। कला सम्बंधी अवधारणाओं को लेकर भारत और यूरोप में मतभेद हो सकते हैं कितु कला की प्रासंगिकता को लेकर नहीं। कला के जितने भी आयाम हैं, सबने मानवीय संवेदना को सहेजा है और उसकी वास्तविक शक्ति अपनी जातीय स्मृतियों, संस्कारों और सरोकारों को पहचानने में बिम्बित हुई है। देश और काल के वदलते हुए स्वरुपों और मूल्यों का भी कला की सर्जन-प्रक्रिया पर प्रभाव पड़ता रहा है जिसका उदाहरण है उपब्यकाओं में अकित आकृतियाँ, मन्दिरों, राजप्रासादों और मकबरों के भित्तिचित्र है। लालकिला, ताजमहल, रांची के स्तूप, अंजता-एलोरा को स्थापत्य कला तथा अनेक देवी- देवताओं की कलात्मक मूत्तियाँ आदि के जरिये हम उस युग-विशेव की सामाजिकता तथा सांस् कृतिकता का अध्ययन कर सकते हैं। इन कला-प्रदेयों में भावना का उद्रेक है, सायंक कल्पना- शीलता है, जोवन है, आस्था है, चेतना और तन्मयता है। यद्यपि भारत की गौरवपूर्ण कला के विषय में हमारा ज्ञान अधूरा है। क्योंकि अनेक कलाकृतियाँ प्राकृतिक आपदाओं तथा बाहरी आक्रमणों के कारण नष्ट भी हुई हैं। फिर भी भारतीय कला-यात्रा का अपना समूह एवं मूल्यवान इतिहास रहा है।
पर इघर एक जोरदार बहस चल रही है कि क्या कला का उपयोग व्यावसायिक लाभ के लिए किया जाना चाहिए या नहीं? आर्थिक उदारीकरण एवं विश्व बाजार की विकसित हो रही अर्थ- व्यवस्था ने समकालोन भारतीय कला की दुनिया में एक अजीब सी सनसनी पैदा कर दी है। 95 के जन में अमरीका के प्रतिष्ठित व्यवसायो कलादीर्घा ‘सेदवो’ ने हरपिट्ज और चेस्टर के निजी संग्रह से लेकर भारतीय पेटिंग्स की नीलामी को थो। इस झोलामी में भारतीय कलाकारों ने दोनों हाथों से डोलर बटोरे। वहां भारतीय कलाकारों ने लगभग दो सौ चिवों की नीलामी के माध्यम से बारह लाख डालर कमाएँ। इसी नीलामी दीर्घा में हेनरी मतोसका चित्र ‘द हिन्दूपोज’ विकासो की ऐतिहासिक कलाकृति ‘ऐ’जिल फेस, लियोनादों द पिची’ की कृतियाँ भी बिकी। हाल ही में पौजा और बर्गर बनाने वाली एक चचित कम्पनी ने अपने उत्पाद बेचने के लिए ‘लियोनादों द विसी’ को एक कलाकृति का इस्तेमाल किया है। ‘द विसी’ को इस कलाकृति में ईसामसीह सलीब पर चढ़ाये जाने की पूर्व रात्रि को अपने शिष्यों और मित्रों के साथ भोजन करते हुए दिखाए गये हैं। इस दृश्य की विशेउता यह है कि भोजन में सम्मिलित लोगों को प्रसन्नता तो है लेकिन उन पर अवसाद को करुण छाया भी है क्योंकि सबको पता है कि यह अंतिम मिलन है और कल ईसा को सलोव पर चढ़ा दिया जायेगा। इस जटिल मानवीय भाव को व्यक्त कर पाने के कारण ही ‘द बिसी’ की यह कल्पकृति अद्वितीय, महान और कालजयी समझी जाती है। लेकिन बाजार के नजरिये से पीजा बनानेवाली अंतर्राष्ट्रीय कम्पनी क्लार्क समूह ने ईसा के शिष्यों को पीजा खाते और शोतल पेय पोते दिखा दिया है। इस पर विवाद 36 खड़ा है। विवाद के दो पहलू है। एक तो यह कि क्या यह लियोनार्दों के बौद्धिक अधिकारों का हनन है ? दूसरे यह है कि क्या कला का दुरुपयोग है ? लेकिन इनका जबाब दुड़ना आसान नहीं है। न जाने कितने सौंदर्य प्रसाधनों के विज्ञापनों में ‘मोनालिसा’ का प्रयोग है? अजता-एलोरा की मूत्तियों के चित्र, वैदिक मंत्रों, राष्ट्र- पुरुषों के संदेश, और कामसूत्र जैसी पुस्तकों के उद्धरण के इस्तेमाल बेरोकटोक जारी है। बड़े-बड़े पूंजीपत्तियों के ड्राई ग-रुमों में महान कलाकृतियाँ दोख जायगी, जिनका कला से कोई लेना-देना नहीं है। वे कला का व्यावसायिक इस्तेमाल कर रहे हैं।
कुछ माह पूर्व हो, दिल्ली के ‘आर्ट टुडे’ गैलरो में भारतीय कला-जगत के भीष्म पितामह मकबूल फिदा हुसैन ने सिनेतारिका माधुरी दीक्षित के ऊपर बनाये गये चित्रों की एक विशाल प्रदर्शनी आयोजित को थी। गैलरी के भीतर माधुरी दीक्षित थी, हुसैन के चित्र थे और आमंत्रितों का एक रेला भी। इस रेला में कलाकार, पत्रकार, रंगकर्मी, समोक्षक, कला-संग्रहक और उद्योग- पति वगैरह थे। सही मायने में यह एक तमाशा भी था और हुसैन को अब तमाशों में दिलचस्पी होने लगी है। कारण कि दुर्भाग्य से हुसैन जैसा चित्रकार भी व्यावसायिकता और बाजारवाद के इसी दलदल में फंसा नजर आता है। नई पीढ़ी के कलाकारों के लिए यह बाजारवाद ज्यादा खतरनाक है। वह उन्हें उनकी पूरी परंपरा से अलग कर रहा है। बाजार को अगर वाटर कलर चाहिए तो अमुक का अनुसरण कर लो और अगर ऑयल पेटिंग चाहिए तो अमुक की तरह काम कर लो-आपूत्तिपरक सौंदर्यबोध का नया विस्तार। दरअसल जिसे वह कला का बाजार समझ रहा है, वह एक पूरी बाजार संस्कृति का दबाव है जिसमें विज्ञापन का खास महत्त्व है। देखना यह है कि यह असलियत भारतीय कलाकारों को समझ में कब तक आती है ?
अस्सी वर्षीय हुसैन की द्रुतगति और कला-सजगता को भला कौन नहीं सराहेगा। इसमें दो राय नहीं है कि भारतीय कला को लेकर देश-दुनिया में जो बहस चल रही है, उसमें हुसैन की साझेदारी महत्वपूर्ण रही है। हुसैन की अपनी चित्रभाषा है और अपनो चितलिपि । मौसम, भारतीय संगीत, भारतीय नृत्य, मंदिर-मूत्तिशिल्प, ग्रामीण जीवन, पर्व, लोक, खिलौने, गुफाकाल से आधुनिक काल तक को यावा, रंग और ‘इमेजरी’ हुसैन की कला में बार-बार आते रहे हैं। यहाँ तक कि रागमाला, महाभारत, रामायण, राजस्थान, मैसूर, बनारस, कश्मीर आदि अनेक शृंखलाएँ, गांधी, आपातकाल, मदर टेरेसा आदि विपुल भण्डार हैं हुसैन के, जिनके प्रेरणा-प्रभाव से कला-दीर्घाए खुली है और हजारों की संख्या में लोग कला की ओर उन्मुख हुए हैं। एक समय था जब छाता, जूता, लालटेन, चौपाल बरगद का वृक्ष आदि के माध्यम से हुसैन ने गाँव को कस्बों के स्मृति-चित्र अंकित किये तो हमें उन पर गर्व होता था। वहीं हुसैन अब माधुरी के मांसल यौवन को चित्रों में अंकित कर रहे हैं। अब चर्चा यह होती है कि हुसैन के कौन सी पेंटिंग्स कितने में खरीदी गयी। हुसैन स्वयं इसके लिए कम दोषी नहीं है। कला की चमक-दमक में कला खोती जा रही है। माधुरी-हुसैन के संगमवाले दिन एक भगदड़ दिखायी दे रही थी। लगता था लोग हुसैन के चित्रों को नहीं, माधुरी के लावण्य एवं तेन्पगो देहयिष्टि को समीप से देखने को आकुल हों। कलाकार को इसकी स्वतंत्रता है कि वह जो चाहे बनाये। पर, जो कुछ बनाया जा रहा है, उन्हें वास्तव में देखने और परखने का माहौल बनाना भी जरुरी है या नहीं? जब कलाकार अपनी कला बेचने बाजार में जाता है और नीलामियों में व्यापारीगण ऊंचे दामों में खरीदते हैं तो उस समय कला का प्रयोजन क्या होता है ? हुसैन ने प्रसिद्धि के बाद मध्यवर्गीय समाज के मौलिक चेतना के परिमार्जन के लिए कोई महत्वपूर्ण काम नहीं किया है। गौरतलब है कि अमरीका में जिन भारतीय कृतियों की नीलामी हुई उसका साठ प्रतिशत हुसेन के हिस्से आया। उनकी एक शीषक विहीन कृति लगभग सत्तरह लाख रुपये कमाने का गौरव प्राप्त को ।
सच यह है कि आज को खुले विश्व बाजार-व्यवस्था में जो आर्थिक तौर पर प्रभुत्व सम्पन्न है वही सांस्कृतिक-कलात्मक स्तर भी प्रमुक्त है। आधुनिक भारतीय कला ने भी शैली संरचना के धरातल पर अगर पश्चिम से कुछ आयातीत किया है तो इस लए नहीं कि पश्चिम की कलाएँ श्रेष्ठ हैं पर न कि पश्चिम की नाथिक क्षमता अधिक है। भारतीय कला-ससार में अपने सांस्कृतिक मूल्यों की अर्थपरकता के लिए पश्चिम की सत्यापन-मुहर लगवाने को बेचैनी आथिक दवावों से पैदा हुई है। भारत की परिस्थितियाँ अद्ध पूँजीवादी है जिसका गहरा गठजोड़ सामंतवाद से है। यह गठबंधन गुइ कला-बाजार के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। इन अद्ध-पूजीपतियों के पास बड़े पैमाने पर काले धन की मौजूदगो है जिनके जरिये एक समानांतर अर्थ-व्यवस्था-सी चल पड़ी है। इन नव- धनाढ़यों के पास न तो कोई कला-चेतना है और न ही उसके रख-रखाव की सजगता। बस उन्हें ड्राइंग-रुम की दीवारों के रंग के अनुरुप कोई पेटिंग चाहिए। ऊंचे दामों पर इन पेटिग्सों की खरीदगी उनके सामंती अहं को तुष्ट करती है। यहीं कला के नैतिक पक्ष से जुड़ा एक प्रश्न खड़ा होता है। यह छिपा नहीं है कि यह नवधनाड्य वर्ग तरह-तरह के घोटालों, रिश्वतों और संपों से पैसा कमा रहा है और यह पैसा उनमें कई तरह को लालसा पैदा कर रहा है। यह लालसा एक बोर फिज, बी० सी० आर० एयरकन्डिशनर बगैरह से जुड़ी है तो दूसरी ओर घर के परदे और फर्दा पर बिछी कालोन से मंत्र करती हुए पेटिग्स से। यानी कलाकृति इस वर्ग के लिए अन्य उपभोक्ता वस्तुओं को तरह महज एक वस्तु है। इन कृतियों के खरीददारों में इन चित्रों के महत्व का किचित अहसास भी नहीं है। वे सिर्फ एक स्टेटस सिंबल को तरह इन्हें खरीदते हैं। अतः, संभव है कि कुछ वर्षों के बाद इन कला कृतियों में सील न लग जाय या चिवों के रंग उड़ जाये। मगर इन खतरों से बेखबर हमारे कलाकार खुली बाजार व्यवस्था में प्रवेश पाने को उत्कंठित एवं आकुल दिखायी दे रहे हैं। रचने से पहत्वपूर्ण है रचने के लायक बने रहना। जो भयावह परिस्थितियाँ बनती जा रही है, वह पूरी कला की दुनिया को नष्ट कर देगी। नंगघड़ग बच्चों अथवा किसी आदिवासी महिला का पूरी तरह स्तन खोलकर, वात्सल्य-पूरित भाव से अपनी संतान को दूध पिलाते हुए हृदय का चित्रांकन और उस चित्र को व्यापारिक घरानों को मुँहमागी कीमत पर बेचना कला के प्रयोजन के सामने सवाल खड़ा करता है। किसी नतीजे पर पहुंचना आसान नहीं है। लेकिन हम इस बहस में उलझना जरुर चाहते हैं। आप भी विचार कीजिए कि आखिर कला का प्रयोजन क्या होता है ?
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परिचय ::  डीन मानविकी, विश्वविद्यालय परिसर मुजफ्फरपुर (बिहार)

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