डॉ शांति कुमारी:शिक्षा, सृजन और सरोकार की संवेदना :: डॉ.संजय पंकज

डॉ शांति कुमारी:शिक्षा, सृजन और सरोकार की संवेदना 

  • डॉ संजय पंकज

ग्रामीण सामाजिकता में पली-बढ़ी कोई स्त्री जब शिक्षा और सृजन के क्षेत्र में आती है तो उसके योगदान महत्वपूर्ण, विशिष्ट और परिवर्तनकारी होते हैं। गांव की प्रकृति और उसके परिवेश में परस्पर जो सामंजस्य होता है उसका प्रतिफलन व्यक्ति के विकास और व्यक्तित्व के निर्माण में दृष्टिगोचर होता है। स्त्री की शक्ति प्राकृतिक रूप से सजग, संवेदनशील और सकारात्मक होती है। वह जहां कहीं जिस परिवेश में भी होती है उससे सहज स्वाभाविक रूप से जुड़ जाती है। यह जुड़ाव व्यावहारिकता, कुलीनता और आत्मीयता के स्तर पर होता है। शारीरिक तौर पर कोमल, कमनीय और सुकुमार-सी स्त्री भी भीतर से समयानुसार जितना मजबूत हो जाती है वह अपने आप में विस्मयकारी होता है। वह अपने कर्तव्य और दायित्व को भलीभांति समझती जानती है। उसके अस्तित्व में आग और राग का समानुपात होता है इसीलिए वह न तो अपने कर्तव्यों से विमुख होती है और न ही दायित्वों के निर्वहन में पीछे रहती है। हर मोर्चे पर वह अपनी प्रतिभा के साथ क्षमता भर डटी रहती है। डॉ शांति कुमारी एक ऐसी स्त्री-अस्मिता की विशिष्ट पहचान बनी जो गांव की सादगी, निष्ठा और श्रद्धा के साथ जीवनपर्यंत काम करती रहीं।
डॉ शांति कुमारी एक सफल शिक्षिका, यशस्वी शिक्षाविद, मनीषी विदुषी, चिंतनशील लेखिका, कुशल गृहणी और जन जागरूकता अभियान की जागृत प्रहरी थीं। भारतीय नारी युगो से घर की चारदीवारी में कैद रहकर, पुरुष सत्ता के पराधीन होकर जब तक मशीन बनी रही वह अनेकानेक त्रासदियों को झेलने और सहने के लिए अभिशप्त हुईं। उसे रूढ़ियों और संकीर्णताओं से चाहे जैसे भी हो जब कभी भी बाहर निकलने का अवसर मिला तो उसने अपनी प्रतिभा और क्षमता का पूरा सदुपयोग करते हुए समाज के गतिशील निर्माण में अपनी भूमिका को स्थापित किया। शांति कुमारी प्रेम, स्नेह, सद्भाव और भाईचारे के ग्रामीण वातावरण में निर्द्वंद्व पलती-बढ़ती गईं। उनके परिवार और समाज का उन्हें पूरा सहयोग मिला। उनके गतिशील चरण पथ के संकटों से लड़ते जूझते हुए निरंतर आगे-आगे बढ़ते रहे। उच्च शिक्षा के लिए गांव से शहर आने के बावजूद उनसे उनकी सादगी नहीं छूटी। उच्चतम शिक्षा और डिग्री हासिल करके भी वे अपनी जड़ से सदा जुड़ी रहीं। मां, मातृभूमि और मातृभाषा उनके संस्कार और संस्कृति में गुड़ चींटियों की तरह समाविष्ट रहीं। एमए, पीएचडी, डीलिट की डिग्रियों और उपाधियों का उन्होंने शैक्षणिक और सामाजिक सदुपयोग किया। एक शिक्षिका के रूप में ज्ञानसंपन्न कई शिक्षित पीढ़ियों का निर्माण किया तो गृहणी के रूप में अपने घर गृहस्थी की देखभाल करते हुए मां के गौरव को सुशोभित किया और अपनी संतानों को ज्ञान की दृष्टि से संपन्न किया। पुत्री डॉ भावना के मन, प्राण, आत्मा में वह जिस संपूर्णता से उतर गईं उसी का परिणाम है कि लगातार साहित्य सृजन करते हुए डॉ भावना न केवल अपने यश का विस्तार पूरे हिंदी जगत में कर रही हैं बल्कि इस जनपद को भी गौरवान्वित कर रही हैं।
डॉ शांति कुमारी के भीतर जो आग थी उसके तपिश और आंच ने उन्हें वयस्क शिक्षा के प्रति अलख जगाने की शक्ति दी तो उनमें अंतर्निहित राग ने उन्हें अपनी भाषा बज्जिका और आंचलिकता से अटूट रूप से जोड़ दिया। स्त्री-शक्ति असीम होती है – “एक स्त्री/ इतना भी कमजोर नहीं होती है/ कि वह आग से अपना रिश्ता तोड़ ले/ और इतना/ बेपरवाह भी नहीं होती है/ कि राग के अछोर को वह छोड़ दे।” कई कई रचनात्मक स्तरों पर पूरी सक्रियता से काम करते हुए डॉ शांति कुमारी ने अपनी लेखनी तथा स्याही को कभी मलिन नहीं होने दिया और लगातार साहित्य की विभिन्न विधाओं में लिखती रहीं। उनकी पुस्तक ‘बज्जिका लोककथा साहित्य’ एक गंभीर शोधकार्य है जिसमें उनकी जिज्ञासु और खोजी प्रवृत्ति तथा तत्वदर्शी और मीमांसा दृष्टि का व्यापक और अंतरंग परिचय मिलता है। भारतीय संस्कृति की संवाहिका लोक आस्था होती है। इसी लोक आस्था में हमारी पारिवारिकता, सामाजिकता, राष्ट्रीयता और वैश्विकता सन्निहित होती है। लोक और परंपरा एक ऐसी जड़ है जिससे कट कर हम पूरा प्राणवान नहीं बने रह सकते हैं। डॉ शांति कुमारी को अपनी जड़ पर पूरा विश्वास था। वे अपनी जड़ से नाभि- नालबद्ध रहीं तभी तो बज्जिका लोककथा साहित्य जैसा गंभीर कार्य संपन्न करने में सफल हुईं। इस सफलता का श्रेय उस पूरे परिवार, समाज और जनपद को जाता है जिसने एक स्त्री के लिए उसकी प्रतिभा को विकसित होने का समुचित अवसर उपलब्ध कराया और उसे पूरा स्पेस दिया।
डॉ शांति कुमारी कार्य, कर्तव्य और सृजन के जिस क्षेत्र में रही पूरी ईमानदारी से रहीं और अपने कौशल से उसे गौरवान्वित किया। शिक्षा के क्षेत्र में उनकी सक्रियता और योगदान के लिए उन्हें संस्था, संगठन, समाज और सरकार के स्तर पर बार-बार सम्मानित किया गया। जिस शिक्षा संस्थान में वे रहीं उसके चतुर्दिक विकास और सौंदर्य पूर्ण वातावरण निर्माण के लिए उन्होंने राजनेताओं और समाज के अग्रणी लोगों से भी बराबर सहयोग लिया। उन्हें सहयोग देने में कोई उनकी कर्मठता को देखते हुए कभी पीछे नहीं हटे। समाज के हर व्यक्ति का विश्वास जीतना बहुत बड़ी बात होती है और यह तभी संभव है जब आदमी अपनी नैतिकता तथा निष्ठा के साथ सबसे जुड़ा होता है। डॉ शांति कुमारी का जुड़ाव हर उस समाजोपयोगी संदर्भ तथा कल्याणकारी विषय से रहा जो विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। शिक्षा और साहित्य यह दो ऐसे विषय और क्षेत्र हैं जिसमें विकास की संपूर्ण सकारात्मक दिशाएं परिलक्षित होती हैं। शिक्षा और साहित्य का जन्मजात तथा नैसर्गिक संस्कार डॉ शांति कुमारी में था इसीलिए उन्होंने विषमताओं के बावजूद बहुत दूर तक सार्थक और महत्वपूर्ण किया जिसकी आज भी पहचान और चर्चा है।
लोक भाषा और लोक साहित्य का क्या महत्व है यह अब किसी से छिपा हुआ नहीं है। लोक भाषा अवधी भाषा में लिखा गया रामचरितमानस और ब्रजभाषा में लिखा गया सूरसागर कितना प्रभावशाली है कहने की आवश्यकता नहीं है। भारत की अनेकानेक लोक बोलियों और भाषाओं के बीच विश्व को गणतंत्र का संदेश देने वाले जनपद बज्जि संघ की मातृभाषा बज्जिका का आज अपना एक सम्मानित स्थान है। बज्जिका भाषा को गौरव दिलाने वाले व्यक्तित्वों में डॉ शांति कुमारी का अन्यतम स्थान है। इनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। खड़ी बोली हिंदी में बहुविध लेखन करते हुए भी बज्जिका के लिए जो उनका समर्पण था वह प्रेरक और अनुकरणीय है। मिलने जुलने वालों से वे समान अधिकार के साथ दोनों भाषाओं में बात करती थीं। बज्जिका में जब वह बात करते थीं तो लगता था कि हमारे घर की कोई वरीय सदस्य पूरे वत्सल भाव में हमारी ऊर्जा को लगातार उद्बोधित और जागृत कर रही हैं। अनेक भूले बिसरे मुहावरे जिस सुघरता से डॉ शांति कुमारी के वाक्य विन्यास में प्रयुक्त होते थे वह अद्भुत होता था। लोकोक्तियां और कहावतें उनकी जुबान पर बसी होती थीं। राग-अनुराग से रंजित प्रेमिल संवाद का सुख- श्रवण जिसने किया और आत्मीय स्वाद जिसे मिला वह आज भी नमी और ऊष्मा की तरंगों पर लहराता हुआ अनकही ताजगी को महसूस करता है। सृजन और स्नेह का आनंद सदा अनकहा होता है। डॉ शांति कुमारी का जीवन स्वयं से ज्यादा औरों के लिए कार्य समर्पित रहा। उनके द्वारा संपन्न किए गए कार्यों तथा उनके सानिध्य में बिताए गए समय का स्मरण कार्य संकल्प के अभियान पर जाने के लिए प्रेरित करता है।
डॉ शांति कुमारी संवेदना से लबालब भरी हुई ममतामयी मां थीं जिनका उत्कर्ष उनके दादी और नानी रूपों में भी जिन्होंने देखा बार-बार देखा। अपने पास तक हर आने जाने वाले से वे निष्कलुष संवाद करती थीं जिसमें अपनत्व भरा होता था। व्यवहार का माधुर्य भला किसे नहीं प्रभावित करता है। जिसकी प्रवृत्ति और पहचान सृजनशीलता हो तो उसके स्नेह सानिध्य में आते ही आत्मीय लय का संस्पर्श स्वत: हो जाता है। यही लय अंतर्मन को छूती है और एक दूसरे को अटूट रूप से जोड़ती है। डॉ शांति कुमारी ने जोड़ा परिवार को, समाज को, साहित्य को, अतीत और वर्तमान को, लोक और आलोक को। एक स्त्री की सबसे बड़ी शक्ति उसकी करुणा होती है। यह करुणा अपने फैलाव में सब कुछ को धरती की तरह समेट-सहेज कर रखती है। धरती के साथ चाहे हम जिस तरह का क्रूर और हिंसक बर्ताव करें लेकिन बदले में वह हरियाली और जीवन ही देती है। स्त्री, प्रकृति और धरती समचरित्र होती हैं। इन्हें हम जितना मान सम्मान देंगे, हम इन्हें जितना ही बचाएंगे हमें वापसी में इनसे सब कुछ कई कई गुणा ज्यादा मिलेगा। जीवन के होने और फैलने की केंद्रीय परिधि होती हैं स्त्री, प्रकृति और धरती। स्वयं को बचाने के लिए भी इन्हें बचाना होगा। हमारी भारतीय परंपरा में मातृसत्ता सर्वोच्च शिखर पर समादृत होती हैं। डॉ शांति कुमारी एक ऐसी मातृशक्ति थीं जिनकी प्रकृति में धरती की सहिष्णुता और हरियाली रचने तथा जीवन देने की स्वाभाविक स्थिति थी। उनके स्नेह सानिध्य में बिताए गए समय आज भी जीवंत हैं और उन जगहों पर जहां-जहां डॉ शांति कुमारी का होना होता था जाने पर ऐसा लगता है कि अभी वह आएंगी और हालचाल पूछते-पूछते खाने पीने की बात करेंगी। मां स्मृति शेष नहीं होती है वह अपनी संततियों में विस्तार पाती है। डॉ शांति कुमारी एक ऐसी मां थीं जो अपनी सतत सृजनशीलता के बलबूते पर अपनी स्वतंत्र पहचान रखती थीं और उनकी अस्मिता आज भी सांस लेती है उनकी संतानों में, उनके शब्दों में, उनके परिवेश में और उनके द्वारा संपादित किए गए कार्यों में। डॉ शांति कुमारी शिक्षा, सृजन और सरोकार की गहरी रागात्मक संवेदना थीं जिनकी स्मृति हमें स्पंदित और सजग करती हैं साथ ही संवेदनशील बनाती हैं। वह मां थीं, धूप थीं, चांदनी थीं, अहर्निश प्रवाहित अमृतधारा थीं जो रंग, गंध और उजाला सिरजती रहीं। —
मां बेटी बीवी बहन, मां के कितने रूप!
सुबह दोपहर शाम की, चढ़ती ढलती धूप!!
शब्दों में ब्रह्मांड बंध, बंधे गीत संगीत!
अपना अर्थ लगाइए, मां है शब्दातीत!!
दुनिया भागमभाग है, दुनिया एक तनाव!
दुनिया में ही मां मिली, दुनिया भर की छांव!!

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सपंर्क – ‘शुभानंदी’
नीतीश्वर मार्ग, आमगोला
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