मोहम्मद :: हरि भटनागर

मोहम्मद

  • हरि भटनागर

इस काॅलोनी में मैं एकदम नया था। अपरिचित। किसी से जान-पहचान न थी।

इसके पहले मैं जहां रहता था, वह जगह जुमेराती नाम से जानी जाती थी । जगह अच्छी थी,घर से बाहर निकलते ही बाज़ार था। आस- पास के लोगों से घरोबा- सा था। बस एक ही दिक़्क़त थी,सुबह से ही शोर-शराबा शुरू हो जाता था। सुबह-सुबह जब हम मीठी नींद के सुरूर  में  होते, ठीक उसी वक़्त शोर उठने लगता । दरअसल यह जगह ज़्यादातर कबाड़ियों की थी जो सुबह होते ही किसी तोड़-फोड़ में लग जाते। और शोर का ऐसा कानफोड़ बवंडर उठता जो हमें सोने न देता। ख़ैर, जैसे -तैसे हमने तीन एक साल वहां निकाले। सुखद संयोग है कि अब इस काॅलोनी में आ गया हूँ।

यह काॅलोनी  कलियासोत नदी के किनारे बसी है। नदी तो  दूर-दूर तक कहीं दिखती नहीं। हां, गंदे नाले का विस्तार ज़रूर दीखता है। एक तरफ़ काॅलोनी का दूर-दूर तक फैलाव है तो  दूसरी तरफ़ जंगल का। बीच में यह नाला है जो ठहरा हुआ-सा लगता, गंदगी से भरा जो जंगल और काॅलोनी के विस्तार को अपने में समेटे नि:शब्द गतिमान है। नाले पर एक पुल है जो काॅलोनी को शहर से जोड़ता है। इस काॅलोनी से लगी सैकड़ों काॅलोनियां हैं जिनका जन – सैलाब प्राय: सुबह-शाम पुल पर दीखता ।

इस काॅलोनी में  जो फ्लैट मैंने किराए पर लिया, वह  तीसरी मंजिल पर  था जो दो तरफ़ को खुलता था । एक तरफ नाला और जंगल , दूसरी तरफ़ काॅलोनियों का अंतहीन सिलसिला। हम पति-पत्नी दोनों तरफ़ खड़े होते और ख़ुश होते।

दो-तीन दिनों में हमारा सामान जम गया।बहुत ही कम सामान था जो दोनों कमरों में समा गया ।ड्राइंग रूम और किचन भी अच्छे से सेट हो गए ।

फ्लैट के पास ही,नीचे एक किराना दुकान  थी।शहर में कहाँ भटकता फिरूँ, इसलिए ज़रूरत की सारी चीज़ें मैं इसी दुकान से ले आता।

शुरू में किराना दुकान से आए सामानों की पत्नी ने कोई शिकायत नहीं की,किन्तु दिन गुज़रते वह भुनभुन करने लगीं। भुनभुन की वजह  मैं जानना चाहता , माथा सिकोड़ती वह कुछ न बोलतीं। लेकिन एक दिन वह कह बैठीं- इस दुकान का सामान अच्छा नहीं है । दिखता तो कंपनी का है मगर अंदर घपला नज़र आता है। ये मसाला देखो,ये चाय, है तो  ब्रांड की  लेकिन बेस्वाद! टेस्ट- फ्लेवर ही नहीं। भगवान जाने कहां से लाता है!कहीं बैरागढ़ से तो नहीं!

बैरागढ़ शहर की एक ऐसी जगह थी जहां के बारे में आम धारणा थी कि नकली माल असली बना के बेचे जाते हैं। आप असली- नकली में फरक नहीं कर सकते। चाहे दवाइयां हों,मसाले, शराब या कोई भी सामान। सब में घपला नज़र आता । सामानों पर भारी छूट मिलती , इसलिए लोग खरीद लेते ।

पत्नी की बात का मैं कोई जवाब न देता।गहरी सांस खींचकर  रह जाता। पास में ही थोड़ा आगे बढ़कर किराने की कई दुकाने थीं लेकिन पता नहीं क्या था कि भीड़ इस दुकान पर उमड़ती। ख़ैर, एक दिन मैंने एक बृद्ध सज्जन से बस यूँ ही पूछ लिया कि किराना की यहाँ अच्छी और विश्वसनीय दुकान कौन सी है? मतलब सही-साट सामान कहां मिलेगा? वे सज्जन भुक्तभोगी थे। शायद मेरी इस पीड़ा से गुजर चुके थे,  मेरा मंतव्य ताड़ गए। हल्की मुस्कान के साथ एक पल मुझे देखते रहे, फिर कुछ सोच कर बोले – इस काॅलोनी के आख़िरी छोर पर एक दुकान है, अग्निहोत्री करके बंदा है,आप वहाँ से लो, सही-साट सामान देता है । ये दुकान  तो मुझे भी पसंद नहीं। ख़ैर, आप एक बार वहाँ जाके देख लो।

उस सज्जन की बात सच निकली।उस दुकान का सामान अच्छा था। पत्नी भारी खुश हुईं।

अब सारा सामान उस दुकान से आने लगा।

जिस दुकान से सामान आने लगा, उसके मालिक का पूरा नाम ज्ञात नहीं, हां, सब उसे अग्निहोत्री कहकर पुकारते। काफ़ी मशहूर  दुकान थी वह।

दुकान सुबह छे बजे के आसपास खुल जाती। संभवतः दूध बिक्री के कारण। सुबह छे बजे की खुली दुकान रात दस बजे तक आबाद रहती। तीन शिफ्टों में चलने वाली इस दुकान में सुबह छे बजे से  लेकर दोपहर बारह बजे तक अग्निहोत्री का दूसरे नम्बर का लड़का, बजरंगी बैठता। बारह से शाम छे बजे तक पहला लड़का, आर्यन । इसके बाद अग्निहोत्री खुद आ जाते और दुकान बढ़ाकर जाते।

सुबह दुकान पर दूध के साथ किराना- सामान ख़रीद की भयंकर मारा-मारी होती। बजरंगी तत्परता से सबको  निपटाता। इस बीच मोबाइल पर किसी से बात करते हुए वह पे टी एम पर चौकन्नी निगाह रखते हुए छोटी – सी डायरी में हिसाब भी  लिखता जाता ।

पहले दिन सुबह जब मैं दुकान पर पहुंचा, बजरंगी ने दोनों हाथ जोड़ के  सिर नवा के अत्यंत विनम्रता के साथ मेरा  स्वागत किया। ऐसा कर उसने मुझसे  क्षण भर रुकने का निवेदन किया ताकि हल्ला करती भीड़ को निपटाकर आराम से मेरे  आदेश का पालन किया जा सके।वह जान गया था कि मैं नवागन्तुक हूँ और उसका ग्राहक बनना चाहता हूँ।

दसेक मिनट में वह ख़ाली हो गया और मेरी ओर

मुस्कुरा कर देख रहा था जैसे कह रहा हो- हुकुम करें।

बजरंगी यही कोई बीसेक साल का होगा।चेहरे पर घनघोर दाढ़ी-मूंछें ।चौड़े माथे पर लम्बा तिलक। बड़ी- बड़ी काली आंखें ।लम्बे घुंघराले बाल जो आंखों को ढंके रहते जिन्हें वह हल्का झटका दे परे करता रहता।

फ़िलहाल मैंने  रोजाना दो पैकेट दूध लेने और हर महीने किराने के बढ़िया सामान ख़रीदने  की ख़्वाहिश ज़ाहिर की।

सिर झटकता मुस्कुराता वह बोला- सामान की गारंटी है भाई!बस एक बार आप लेके देखें।  गड़बड़ होने पर जो सजा चोर की ,वह मैं झेलने को तैयार।

विनम्रता में मैंने सिर नवाया।

वह आगे बोला- आप आंख मींच कर सामान ले जाएं। और आपको सामान ढोने की जरूरत भी नहीं। मेरा बंदा पहुंचाएगा। वह आपकी सेवा के लिए है। बस आप पर्ची भर दे दें। पर्ची की भी जरूरत नहीं। वाटसेप पर भेज दें। माल आपके दरवाज़े पर होगा …

सहसा रुक कर अपने माथे पर हल्की चपत- सी लगाता वह बोला-अरे, मैंने यह तो पूछा नहीं कि आपका दौलतख़ाना कहाँ है?

मुस्कुराते हुए जब मैंने अपनी बिल्डिंग आश्रय का नाम लिया, ठहाका लगाता वह बोला-बो बिल्डिंग…नाला फेस!

मैंने हँसते हुए कहा – आश्रय में आश्रय लिया है।

आंखें मीचता हँसता वह बोला-वहां से सब कुछ दिखता है। ख़ूबसूरत नदी का ख़ूबसूरत नाला! मेरा भी उसमें फ्लैट था। पापा ने बेच दिया। ख़ैर, आप  किस मंजिल पर हैं ?

– तीसरी ।

– बढ़िया। बहुत ख़ूब।

जैसा कि कहा है अग्निहोत्री या कहें बजरंगी की दुकान से सामान आने लगा। सामानों की पर्ची पत्नी मुझे थमा देतीं या सीधे वाटसेप कर देतीं। दुकान का बंदा किसी भी वक़्त सामान पटक जाता।पैसे नगद भुगतान होते या पे टी एम से ।

पत्नी सामानों को देख खुश होतीं ।खुश इसलिए कि अच्छे सामान के साथ अच्छा रिवेट मिल रहा था। इसके पहले जुमेराती या किसी अन्य दुकान से कभी कोई छूट न मिली। तीज-त्योहार पर बजरंगी खुद छोटी-मोटी गिफ्ट भी दे जाता।

सामानों की तरफ़ से मैं पूरी तरह निंश्चित था।हां, दूध मैं खुद लाता। वह भी सुबह। सुबह की सैर से लौटते वक़्त। बजरंगी ने दूध का कार्ड बना दिया था।

आश्रय में रहते हुए एक साल गुजर गया। इस दरम्यान बहुत से लोगों से परिचय हो गया।औपचारिक संबंधों के साथ कुछ लोगों से गहरी दोस्ती भी हो गई।पत्नी की भी कई महिला-मित्र हो गईं। उनके साथ खाने-पीने का सिलसिला भी जुड़ गया। जुमेराती के दोस्त-एहबाबों से दफ्तर की व्यस्तता  या दूरी के चलते ज़्यादातर फोन पर ही बातों के जरिए मिलना- जुलना  हो पाता।

बजरंगी की दुकान अब लोगों से मेल- मिलाप का ठीहा हो गयी थी जहाँ हम सुबह की सैर के बाद थोड़ी देर के लिए ही सही इकट्ठा होते। हँसी-मज़ाक़ के साथ हम देश-विदेश की राजनीति पर टीका- टिप्पणियां करते। बजरंगी भी किसी मुद्दे पर अपनी बात रखने में कभी पीछे न रहता।

बजरंगी से  पहले जो औपचारिक दूरी थी,धीरे -धीरे ख़त्म हो गई थी। उससे धौल- धप्पा या कहें हँसी- मज़ाक़ भी होने लगा।पहले जो सामान वह अपने बंदे के हाथ भेजता था, अब बंदे के इधर-उधर होने पर खुद दे जाता। उसकी धज के कारण मैं उसे बाबा कहने लगा जिस पर वह भारी खुश होता।

लेकिन यह हँसी-मज़ाक़ एक दिन ऐसा भारी पड़ेगा जिसकी मुझे कत्तई उम्मीद न थी।

हुआ यह कि सुबह की सैर पूरी करके उस दिन मैं  दूध लेने के लिए ठीहे पर आ खड़ा हुआ। दुकान पर दूध और किराने का सामान ख़रीदने वालों की भीड़ थी। सभी को सामान मिल जाने की जल्दी थी। एक-एक कर सभी को बजरंगी निपटाता जा रहा था।आख़िर में जब एक भी ग्राहक न रहा, बजरंगी ने मुझे देखा और मुस्कुराया । उसे मुस्कुराता देख मैं भी मुस्कुराया। बजरंगी मुझे देख संभवतः इसलिए मुस्कुराया जैसे कह रहा हो- आप भीड़ जैसे नहीं हो।दूध के लिए इंतज़ार किया, धन्यवाद। आइए और दूध लीजिए। पन्नी खोलिए। मैं पैकेट लिए खड़ा हूँ।

दरअसल मैं बजरंगी को देख मुस्कुराया जरूर था, लेकिन इस मुस्कुराहट के पीछे कव्वाली की एक कड़ी थी जो मेरे रोम-रोम में बज रही थी।दोस्तों के साथ चलते हुए भी मैं उस कड़ी को अंदर ही अंदर गुंजाए हुए था और इस समय भी उसी के उल्लास की तरंग में था।

पन्नी लिए मैं बजरंगी के सामने आ खड़ा हुआ। बजरंगी  ने दूध की थैलियां निकालीं और मुस्कुराते हुए कहा-पन्नी तो  खोलिए मालिक!कहाँ खोए हैं?

पन्नी का मुँह खोलते हुए मैंने उसे प्यार से देखा और उसी उल्लास की तरंग में कव्वाल के अंदाज़ में कड़ी गा उठा- भर दे झोली! भर दे झोली मेरे या…

सहसा बजरंगी ज़ोरों से चीखा-इसके आगे मत बोलना। मैं बो कतई नहीं हूँ। न होना चाहता हूँ।आपने जुर्रत कैसे की मुझे ऐसा कहने की।आपकी जगह कोई दूसरा होता तो मैं अभी तक फाड़ खाता…

बजरंगी ने दूध के पैकेट वापस कैरेट में फेंक  दिये और मुझे जलती आंखों देखने लगा। घुंघराले काले बालों के पीछे आंखें लाल थीं और चेहरा विकृत। सहसा वह काउण्टर पर  मुक्के मारने लगा।उसका समूचा शरीर गुस्से की आग से जल-सा रहा था।

बजरंगी से मुझे ऐसे व्यवहार की उम्मीद न थी।

मुझ पर घड़ों पानी पड़ गया। काटो तो ख़ून न था।

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संपर्क –  1955 में जन्म. प्रारंभिक जीवन सुल्तानपुर , उत्तरप्रदेश में  गुज़रा. अपने कॅरियर की शुरुआत जबलपुर में दैनिक पत्रों से की.रूस के पूश्किन सम्मान समेत देश के राष्ट्रीय श्रीकांत वर्मा पुरस्कार, दुष्यंत कुमार सम्मान, वनमाली कथा एवं पत्रकारिता  सम्मान से सम्मानित।रूस, अमेरिका और ब्रिटेन की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक यात्राएं. विश्व हिन्दी सम्मेलन,सूरीनाम (2003) तथा न्यू यार्क, (2007) में हिस्सेदारी.

mob.9424418567.

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