विशिष्ट कवि :: ललन चतुर्वेदी

ललन चतुर्वेदी की दस कविताएं

 देह का अध्यात्म

वह सद्यस्नाता  स्त्री
जिसके कुंतल से टपक रहे हैं बूँद-बूँद जल
एक झटके से झाड़कर बाल
खड़ी हो गई है आईने के सामने
उसने विदा कर दिये हैं मन के सारे शोक -संताप
स्थितप्रज्ञ सी निहार रही है
एक -एक कर अपने अंग
अपनी काली आँखों में दे रही है अतिरिक्त काजल
सुर्ख कपोलों पर लगा रही है अंगराग
नखों पर दे रही है जतन से लालरंग
बालों में बाँध चुकी है सफेद पुष्पों का जूड़ा
पहन चुकी है मनपसंद रेशमी परिधान
एक बार  देखती है पीछे मुड़कर
शायद भूलने को अतीत
साँसों में भरना चाहती है वर्तमान
फैल गई है उसके होंठों पर मुस्कान
नखशिख पर्यन्त प्रकीर्ण हैं विविध रंग
चमक रहा है सिन्दूर तिलकित भाल
ज्यों नीलगगन में उतर आया हो इन्द्रधनुष

कहाँ है कोई क्लेश – कालुष्य
कहाँ है आत्मा, कहाँ है वैराग्य
कहाँ है देह के बिना इनका अस्तित्व
जिस दिन मिलना होगा , मिट्टी में मिल जाएगी देह
देह ही है सत्य ,देह ही है प्रेय,
बिल्कुल नहीं है हेय यह कंचन देह
जब तक है देह तब तक है नेह
नहीं सुनना कोई प्रवचन उपदेश
कोई गुरु नहीं,कोई देव नहीं,कोई पोथी नहीं
एक स्त्री ही समझा सकती  है देह का अध्यात्म ।

 

वह स्त्री ही है जो…

(संदर्भ-क्रिकेट विश्वकप 2023 का अंतिम मैच)

शुभकामनाएं, बधाई लिखने वालों की अंगुलियाँ जड़ हो ग‌ईं
तालियाँ बजाने वाले हाथ ठिठक गये अचानक
नायाब नायकों के प्रदर्शन पर निकाले जाने लगे नुक़्स

यह कोई बहुत आश्चर्यजनक नहीं था
वह पराजय अधिक पीड़क नहीं थी
पीड़क था कि वे अकेले खडे़ थे मौन
अंगुलियाँ केवल अंपायर की नहीं उठी थीं
करोड़ों अंगुलियाँ उठ ग‌ईं थी एक साथ

यहाँ कोई लोकतंत्र नहीं था
बहुमत की विजय की तो बात ही  नहीं थी
वे तो फतह कर चुके थे दस द्वार
हवाओं में एक ही जुमला तैर रहा था –
अंत भला तो सब भला !

जीत के जश्न में जुलूस में शामिल लोग
हार में चुपके से निकल ग‌ए थे
पराजय में मनुष्य पड़ ही  जाता है अकेला!

ऐसे समय में  कोई प्रेयसी ही होती है जो रखती है कंधे पर हाथ
और आँचल से पोंछ देती है आँसू की उमड़ती धार
वह स्त्री ही है जो है अभेद दृष्टि से संपन्न
और  गर्व से घोषित कर सकती है
पराजित योद्धा को सर्वकालिक नायक ।

 

उस दिन मैंने पत्नी को गौर से देखा

हमने वेदों का महत्व मैक्समूलर से समझा
बुद्ध को हमसे अधिक विदेशों में समझा गया
राम को बेहतर ढंग से फादर बुल्के ने समझाया
हमने अपनी चीजों और मनीषियों को सदैव कमतर आंका
नजदीक में खोयी हुई चीजों को ढूंढने के लिए बाहर झांका
और अब तो पड़ोसी भी रह जाते हैं अनचीन्हे
आसपास की चीज़ों की जानकारी तो और भी कम है
जिनके साथ हम रहते हैं अहर्निश उन्हें तो ठीक से समझ भी  नहीं पाते
स्वयं को जानने की कोशिश तो कभी की ही नहीं

मृग के पास है  सबसे सुंदर आंखें
और वह पागलों की तरह  वन- वन ढूंढता  है कस्तूरी
और हम तो उससे भी बौड़म निकले
जब एक दिन किसी बुजुर्ग ने बतलाया –
तुम्हारी पत्नी बहुत सुंदर है
उस दिन मैंने पत्नी को गौर से देखा।

 हत्यारे

वे वेदनाएं अबूझ रहीं
जो हमारी भाषा में रुपांतरित नहीं हो सकीं
जैसे कुल्हाड़ी के प्रहार से
विदीर्ण होते वृक्ष की कराह
लकड़हारा खुश हुआ अररा कर गिरते हुए पेड़ को देखकर
मिट्टी ने मजबूती से थाम रखा था जिनके जड़ों को
आज वह भी आ गई धरातल पर
सन ग‌ई उन जड़ों के आंसू में
पलंग पर बैठते हुए हमने सदैव आराम महसूस किया
कभी ध्यान ही नहीं आया कि
हम वृक्ष की छाती पर बैठकर बरसों से कर रहे हैं शव -साधना
जो भी आएं हमारे पैरों के तले
हमने सबको रौंधा और खुशियां मनायी
हम करते रहे उन पर अत्याचार
जिनका कोई प्रवक्ता नहीं था
जिनकी कोई जुबान नहीं थी
अपने को सभ्य घोषित करते हुए
हमें नहीं आयी थोड़ी सी भी शर्म
पेड़ अपनी जगह खड़े थे मेरे लिए छतरी लगाए
हमने पत्तों को रोते हुए नहीं सुना
हमने  नहीं सुनी असंख्य जीवों की गुहार
जो अपने प्राण की भीख मांग रहे थे

हमें घिन आने लगी है अपनी ताक़त से
केवल इन्सानों की जान लेने वाले ही हत्यारे नहीं होते
अभी असंख्य हत्यारों की शिनाख्त बाकी है।

विश्वास

मुझे मालूम है

मेरी तरफ जो गाड़ी आ रही है सौ किलोमीटर की रफ्तार में
वह मुझसे नहीं टकराएगी
जवान बाइकर मुझे बिना छुए तीर की तरह निकल जाएगा

आकाश में उड़ान भरते हुए मैं काॅफी का ले रहा हूँ आनन्द
पायलट  के लाइसेंस की वैधता का प्रश्न फिलहाल मेरे दिमाग में नहीं है

मैंने अपना प्रोफाइल खुला रखा है स्पेस में
स्वागत है सबके विचारों का
तुम्हें जिस तरह पढ़ना है, मुझे पढ़ो
और कर लो अपनी-अपनी भाषाओं में अनुवाद

मैं  खुश हो जाता हूँ ,
कहूँ तो बच्चों की तरह भरने लगता हूँ किलकारी
दिल खोलकर रख देता हूँ
अनजान लोगों से बातें करते हुए

नजदीकी रिश्ते कभी खरोंच बर्दाश्त नहीं करते
बेहतर है परिचितों और प्रेमियों से

सतर्कता बरतने की सीख का सख्ती से हो अनुपालन

एक प्यारा सा पागलपन

जीवन को बहुधा खुशगवार बनाता रहता है
हँसते हुए मैंने कभी ठगा महसूस नहीं किया
अनजान लोगों से दूर रहने की चेतावनी पर  भला कौन अमल करे
मेरा सबसे मजबूत विश्वास राह चलते हुए लोगों पर होता है ।

 कविता मन के द्वार

पहाड़ों पर गिर रही है बर्फ
मैदानों तक पहुंच चुकी है गुलाबी ठंड
कहीं दूर चल रहा है म्यूजिक कंसर्ट
मेरे कानों में पहुंच रहा है सुकून
पास की रसोई में पक रहा है बासमती
मेरी खिड़कियों से प्रवेश कर रही है सुगंध
पड़ोसी के घर आया है एक नन्हा शिशु
जुट रहे हैं इष्ट मित्र, रिश्तेदार
स्त्रियां गा रही हैं सोहर
लोग पूछ रहे हैं मुझसे –
नेवता नहीं मिला है?

कैसे बतलाऊं ?
मैं क्यों लगाऊं किसी पर आरोप
कहीं  तो हो रहा है शुभ
कहीं तो बज रहा है संगीत
कहीं तो मन रहा है उत्सव
मैं क्यों मनाऊं मातम
मैं  अखिल विश्व का स्वस्तिकामी
अनामंत्रित भी शामिल हूँ जग के सुख- दुख में

कुछ लोग छप्पन भोग खाकर
हाथ धोते हुए प्रकट कर रहे  हैं असंतोष
हाॅल में फिल्म देखने के बाद भी
कुछ लोग निकल रहे  हैं होकर निराश
एक  कवि  विज्ञापन देखकर ही झूमने लगा है
शायद कोई कविता दस्तक दे रही है उसके मन के द्वार !

 मैं उनसे मिलने जाऊँगा

मैं उनलोगों से मिलने जाऊँगा
जिनसे मिलने कोई नहीं जाता
उनके साथ खाट पर बैठूंगा और हालचाल पूछूँगा
यदि वे जमीन पर बैठे होंगे तो वहीं बैठ जाऊँगा
उनसे कुछ पुराने जमाने की कहानियाँ सुनूँगा
बिल्कुल बुरा नहीं मानूँगा उनकी किसी बात का
वे यह भी बोलेंगे कि अंग्रेज का राज अच्छा था
मैं चुपचाप सुन लूँगा
वे ब्रिटिश राज में बने लाल पुलों और इमारतों का हवाला देंगे
वे गुस्से में आज के समय को कोसेंगे और  बुरा – भला कहेंगे

मैं उनसे कोई बहस नहीं करूँगा
उनकी तजबीज पर कोई सवाल नहीं उठाऊँगा
मुझे विश्वास है  मेरे जाने और बातचीत करने से वे जरूर खुश होंगे

सुना है उनके पास अब कोई नहीं जाता
वे अकेले बैठकर कुलबुलाते रहते हैं
जब मैं चलने को उठ खड़ा होऊँगा
वे किंचित उदास होंगे
मैं थोड़ी खुशी लेकर लौट जाऊँगा
फिर मिलने का वादा जरूर निभाऊँगा
मैं उनसे मिलने बार- बार जाऊँगा।

असंभव

तुम्हारे कहने मात्र से नहीं निकल सकता शब्दकोश से बाहर
तुम क्या तुम्हारे जैसे अनेक विजेता लौटते रहें हैं मुँह लटकाए पराजित

जिद छोड़ो और मान लो मेरे बिना तेरा कोश अधूरा है
मुरझाए फूल को क्या कोई खिला सकता है
वृक्ष से टूटे हुए पत्ते को कौन जोड़ पाया टहनियों से
टूटे हुए दिल लेकर पहुँच गए कितने पागलखाने में

अपना अस्तित्व ही बचा रहे यही क्या कम है
यह जो हाड़तोड़ संघर्ष है उसी में टूट रहा है आदमी का पोर-पोर
दुःख तब और गहरा जाता है

जब आदमी के साथ आदमियत भी खर्च होने लगती है

अब तुम्हीं बताओ किन- किन देवताओं को खुश करोगे
कुछ देवता कितना भी जतन करो प्रसन्न नहीं होते
उन्हें आराध्यों की सूची से बाहर क्यों नहीं कर देते

तुमने अपने लिए ही गढ़ लिया है एक दुर्ग
और इस किलाबंदी से तुम कभी नहीं निकल सकते
एक मुक्त आत्मा रस्सियों से बाँध रही है पांवों को
दूर कोई नियति कर रही है अट्टहास

अपने ही हाथों तुमने सृजित किया है असंभव
यह कोश का ही नहीं बन चुका है तुम्हारे जीवन का भी अनिवार्य हिस्सा।

 कवि का दुःख

थोड़ा पढ़ा लिखा हूँ
इसका मतलब यह नहीं कि मेरा दुख भी थोड़ा है
दुःखी लोगों को खुश रहने की नसीहत मत दिया करो
क्यों छीनते हो उसके बटुए से जमा की गई रेज़गारी

छोटा आदमी हूँ
छोटी – छोटी बातों पर दुःखी हो जाता हूँ
जैसे बिना चप्पल के स्कूल जाती हुई लड़की को देखकर हो जाता हूँ उदास

बर्तन धोती हुई बाई के  टपकते हुए आँसू देखकर चूक जाता है मेरा धैर्य
जो पति से मार खाने के बावजूद
जमा कराती है उसी के  खाते में अपनी तनख्वाह
क‌ई बार दोपहर में बिना नाश्ता किए लगाती रहती है पोंछा
भूख की उस अज्ञात लिपि  का पाठक कैसे हो सकता है खुश ?

खून खौल जाता है जब शोहदे
राह चलते लड़कियों को देखकर बदतमीजी से बजाते हैं सीटी

उन विद्वान आलोचकों का वैदुष्य भर देता है मेरे मन में घृणा
जो अपने पुरखों को रोज  नयी- नयी गालियाँ देकर
हथियाना चाहते हैं साहित्य का सिंहासन

उन प्रवचनकर्ताओं की कुटिल मुस्कान मुझे भेदती है भीतर तक
जो हताश ग्राहकों से चमकाते हैं अपना व्यापार

जब भी किसी मॉल के पास से गुजरता हूँ
सड़कों पर टहलता हुआ दिख जाता है दुःख का  संयुक्त परिवार

समाचार चैनलों पर पेश किये जा रहें हैं विकास के रंग-बिरंगे ग्राफ
और समाचार चुभलाते चकमक चेहरे जब चकमा देते हैं लगातार
तो लगता है पढ़ना लिखना सब अकारथ

सर्वत्र अव्वल दर्जे की चाटुकारिता का फैल चुका है साम्राज्य
वह जबरे में दबाकर बैठ गयी है जग का दुख
ऐसे में क्यूं न दिखे  स्याह में भी सफेद

इस समय कविता ही है जो कर सकती है दुख की शिनाख्त
इसीलिए वह हो चुकी है तुम्हारी महफ़िल से निष्कासित
तुम्हें लग चुकी है चुटकुले की चाट
तुम कैसे समझ पाओगे एक कवि का दुःख।

दुआएं

मेरी अनगिनत दुआएं उनलोगों के लिए
जिनकी आवाज आज मैंने आज तक नहीं सुनी है

मेरी अनगिनत प्रार्थनाएं उनलोगों के लिए
जो दुखों के हिमखंड के नीचे दबे हुए हैं

मेरी हथेलियाँ उन आँखों  के कोर सहलाए
जिनके आँसू थमने के नाम नहीं ले रहे हैं

मेरी सतत शुभकामनाएं उनके लिए
जो मुझे देखते ही अपना दुःख भूल
मुस्करा उठते हैं फूल की तरह

मेरे पांव मंदिरों की ओर नहीं
उस गली की ओर मुड़ जाएं अनायास
जहाँ कोई रोज घंटों मेरी बाट जोह रहा होता है

मेरे कान खुले हुए रहें हरदम
सुनने के लिए किसी की विकल पुकार

किसी को देख नजर फेरने की नौबत न आए कभी
मेरी आँखें देखें  सबमें अपना ही प्रतिबिंब

और एक आखिरी पवित्र कामना समस्त जीवजगत के लिए
सबको मिले इच्छामृत्यु का अमोघ वरदान !

…………………………..

परिचय : ललन चतुर्वेदी का प्रश्नकाल का दौर (व्यंग्य संकलन), ईश्वर की डायरी तथा यह देवताओं का सोने का समय है (कविता संग्रह)  एवं साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं तथा प्रतिष्ठित वेब पोर्टलों पर कविताएं एवं व्यंग्य प्रकाशित है.

संपर्क: हिन्दी अनुभाग,तीसरा तल, सीएसटीआरआई,सेंट्रल सिल्क बोर्ड, बीटीएम लेआउट,मडिवाला,बेंगलूर-560068

मो नं 9431582801

 

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