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लघुकथायें :: मधुकर वनमाली
मधुकर वनमाली की दो लघुकथायें
जोतिया-ढोरिया
उस का नाम जोतिया था, और बेटी का ढोरिया। सब्जी की टोकरी लिए भोर में ही टोले में आ जाती। मां के चूल्हे के निकट बैठ वहीं सब्जियाँ तौलती। बदले में धान तौलकर रख लेती। सर्दियों में दादी की अलाव के पास बैठ घंटों बतियाती।
उसकी बेटी मुझसे ६-७ साल बड़ी रही होगी। बड़ी रहस्यमय दिखती। सिक्कों की माला पहनती..एक रुपए,दो रुपए,आठ आने सब। न, पनटकिया नहीं था तब। और मुझे बोलती, मेरे यहां गेंदा के पेड़ पर सिक्के लगते हैं। लोभवश मैंने एक बार सिक्कों पर झपट्टा मार दिया। हाथ तो आने से रहे, वह भागकर दादी को बता आयी, और चपत..।
एक बार मजाक में सबने पूछा –
“बेटा मधुकर, लगन किससे करोगे ?”
“ढोरिया से।”
” क्यों बे ?”
“उस के पास बहुत पैसे हैं। मेला घूमेंगे।”
“पर, वो तो मुसलमान है।”
” मुझे दीदिया की तरह लड़की लगी। उसके तो बाल भी लंबे हैं न!”
बचपन बीता। गांव छूट गया।
इधर कुछ दिन पहले गांव जाना हुआ। नज़रें उसे तलाशती रहीं। पर उधर सब्जी बेचने कोई आया ही नहीं। दबी जुबान में एक मित्र से पूछा-
“सब्जी कहां से लेते हो?”
“बगल के कस्बे में बाजार लगता है न।”
” वो सब्जी वालियाँ नहीं आतीं ?”
“नहीं।”
“क्यों ?”
“पिछले साल झंडा और ताजिया एक ही दिन था। हमलोगों ने बहुत रोका, मगर माने नहीं वो लोग।अब इधर उन लोगों का आना बंद करा दिया गया है।”
भौजिया
“काका,ओ काका।चलो न पानी बढ़ रहा है।”
“नहीं रे मनोजवा,अब कहीं नहीं जाना।”
“इ सब रिजरवायर एरिया में है। कुछ नहीं बचेगा काका।”
“तू जा रे। इ बागमती के धार नाहीं,हमरी भौजिया है।हमका लेने आए रही है।”
“भौजिया?”
“हां,भौजिया, तुम्हारी अम्मा।भोरे सुखनीनिया में आके कही उ हमका माफ कर दिहिस है!”
” का कहते हो काका। उ त हमरा के छोड़ के के रामलीला मंडली में भाग गई थी न!”
“नहीं रे।उ त सती रही। मां समान।सब हमार गलती रही।”
“काका?”
” हां रे। बड़का भैया अरुणाचल में शहीद हो गए। हम और भौजिया मिल जुल के खेती पथारी करते। मां थी हमरी। बदजात महुआ की ठरक में बहुत अपराध हो गंवा हमसे।”
“क्या काका?”
“हम ओकरा छुए रहे। पाप सवार हो गया रहा। उसी बखत कोरा में लेके चल दी तुम्हें। बहुत आरजू मिन्नत किए।तो तुम्हें चौकी पर लिटा गई। हम समझे अभी गुस्सा में तोहार ननिहाल गोथवारा जाई।मगर अगले दिन तिनकोनवा मन में तैरती मिली।भगवत्ती नहीं, उसकी देह।”
“काका!”
“हां रे।आज उसका बेटा,मनोजवा चीफ इंजीनियर हो गवां है न।इस लिए खुश हैं। इलाका का भलाई कर दिया बिटवा। बागमती को बांध दिया। लोग खुशहाल रही,देख रे भौजिया।”
“काका छोड़िए पुरानी बातों को। बांध के उसपार आपको जमीन दी है न सरकार ने।”
“नहीं रे। हमार मुक्ति इहे चौंर में होई। इ हमार भौजी माई के अंचरा है। ऐ भौजिया फेर से लइका बुझ के गोदी खेलाव रे।”
पानी बढ़ता गया।चीफ इंजीनियर साहब पीछे हटते रहे। बुढ़वा न माना। फिर से बच्चा बन गया। भौजिया की गोद में गले तक डूब गाता रहा-
” भौजी रे भौजी भौजी
नुआ पियरका गे
चैती इजोरिया नियर
मुंहबा सुनरका गे
हमरो के लेले चलिहा
एमकी नहिरका गे।”
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परिचय : मधुकर वनमाली बिहार में विद्युत विभाग के अधिकारी हैं. साहित्य की विभिन्न विधाओं में इनकी रचनायें प्रकाशित होती रहती हैं.