लघुकथा :: शंभुनाथ मिस्त्री

अकेलापन
– शंभुनाथ मिस्त्री
पड़ोस के दयाल का बुलावा बहुत अचम्भित करने वाला तो न था ; किन्तु इस तरह दयाल विरले ही कभी बुलाता था। दरवाजे से प्रवेश करते ही लालदे ने देखा, दयाल बैठक में अकेला निढाल पड़ा हुआ था।
” अरे, क्या हुआ ?”
” नहीं लालदे, कुछ हुआ-उवा नहीं।”
“तो फिर इस तरह अकेले पड़े…..कोई दिखता नहीं”…..
“बच्चों को लेकर मायके “……
ओऽऽ….तो अब समझ में आ गया था लालदे को कि क्यों…….। जनाब को समय गुजारना था, सो बुलवा लिया था।
फिर वो सब बातें हुई थीं जो आपस में कभी होती नहीं थीं। वे बातें भी जो दयाल ने बड़े झिझक से कहीं और वो बातें भी जो लालदे ने सुनकर भी अनसुनी कर दी।वो सब बातें भी हुईं जो एक पड़ोसी के नाते नहीं , मित्रवत अंतरंगता के नाते की जा सकती थीं।
कुछ बातों से रस मिला तो बाकी की बोरियत से अपने माथे को झटकने के लिए बहाने बनाकर रात नौ के पहले ही लालदे अपने घर लौट आया था।
आज लालदे को , उस दिन की एक-एक करके सब बात दयाल की , घूरने लगी थी। किन्तु आज दयाल की किसी भी बात से बोरियत जैसी कोई अनुभूति नहीं हो रही थी। पता नहीं क्यों ? शायद दयाल की स्थिति से स्वयं गुजरने के कारण या फिर किसी और कारण…….। दयाल कहीं बाहर गया था, सो वह दयाल की तरह बुलावा तो नहीं भेज सकता था , पर दयाल का प्रतिबिम्ब सामने कर उस दिन की उसकी स्थिति का बड़ी बारीक अध्ययन तो कर ही रहा था……
हठात….किशोरवय में खेले गये उस गिल्ली-डण्डे का घाव की तरह टीसने वाला दृश्य उभर आया जिसमें रनरनाकर चारा मारने का परिणाम बड़ा भयानक रूप से सामने आया था।चरनवाँ के माथे पर गिल्ली जा लगी थी और माथा फूट गया था। घर लौटने पर हंगामा……..
किसी तरह झटका इस याद को तो……..पता नहीं नारायण पोद्दार कहाँ से उभर कर सामने आ गया। कॉलेज का सहपाठी।बुज्जम फ्रेण्ड। लीजर पीरियड में दोनों कॉलेज से कुछ दूरी पर पहाड़ी में चट्टान के नीचे की छाया में बैठकर कर पूरा लीजर शादीशुदा जिन्दगी की बातें किया करते। बेचारा…….. गर्मी की छुट्टियों में घर गया तो लौटकर आया ही नहीं। खबर जो आयी तो कॉलेज में कंडोलेंस मनाकर उस दिन की छुट्टी……….पता लगा शादीशुदा था। पत्नी को प्रेमी के साथ कुछ लोगों ने पकड़ा था। ढेर सारी बातें सुनने को मिली होगी…….. नारायण ने खुद झूलकर अपनी जान दे दी।
ऊफ…… नारायण……… सामने लालदे की नजर एक टिकटिकिया पर जा टिकी। टकटकी लगाये थी। बहुत आहिस्ते…. आहिस्ते दीवार पर रेंग रही थी। ठीक अपनी आँख के सामने दीवार के कोन पर किसी शिकार को देख लिया था। कितनी चतुर… चालाक। कितनी तेज… तर्रार। एकदम निकट जाकर ही झपट्टा मारेगी। उसके पैंतरे में लालदे का ध्यान रम जाता ; कहीं जो उसी जगह दीवार-घड़ी पर नजर न पड़ती। अरे , नौ बजने जा रहे हैं। चलते वक्त पत्नी की हिदायत याद आयी……घर पर ही बनाकर खा लिया करना….। अब तो , रात के नौ बज गये ‌।
मन हुआ कि चलें बाजार। होटल जाकर खा लें। टहलना भी हो जायेगा। फिर मन बदला…….न……..अॉडर कर देता हूँ अॉनलाइन……….पर पत्नी की हिदायत……
पता नहीं लालदे कितनी देर इसी उधेड़बुन में रहा………….।
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परिचय : शंभुनाथ मिस्त्री की लघुकथा और कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती है. इनका एक साझा संकलन भी प्रकाशित हो चुका है.
संपर्क – कुम्हार पाड़ा, दुमका-814101. झारखंड)

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