विशिष्ट गीतकार :: अंजना वर्मा
यह समय खामोश रहने
का नहीं है
इस तरह हैवानियत का
खेल जो खेला गया
आदमी की असलियत
वह खोल करके रख गया
और हाकिम सोचते हैं
चाल अब ऐसी चलें
जल रहे हैं लोग इन पर
रोटियां हम सेंक लें
दरिंदगी पर भी सियासत
हो रही है
नारियों के चीर हरने
को कहें पुरुषार्थ जो नर
डूबकर कुकृत्य में भी
जी रहे जो सिर उठाकर
भार पर्वत और सागर
का उठाती है धरा
किंतु स्त्रीपीड़कों को
झेल पाना है सज़ा
त्रास में जीती-तड़पती
यह मही है
किसी का अपराध हो तो
भोगना स्त्री को पड़ता
दंड हो या खेल, तन तो
औरतों का ही उघरता
छल-कपट या बहाने से
लूट ली जाती है नारी
कहाँ पशु भी क्रूर ऐसे
नहीं ऐसे अनाचारी
क्यों पिशाची सिलसिला
रुकता नहीं है?
यह समय खामोश रहने
का नहीं है
(2)
दिल के भीतर रोशनी हो
तो अँधेरा क्या करेगा?
ज़िंदगी जिसमें भरी हो
मौत को वह जीत लेगा
हो अगर लहरें भयंकर
हाथ से पतवार छूटे
देखकर विकराल नदिया
बाँध धीरज का न टूटे
हिम्मतों के पुल से चलकर
किनारा तुमको मिलेगा
सोच लो की बीज का
संघर्ष कितना है भयंकर
हरे कोमल अंकुरों से
भेदता भू को निरंतर
बीच छोटा भी हो लेकिन
वृक्ष बनकर ही रहेगा
मंजिलें मिलती हैं उनको
जो कभी थकते नहीं है
जंगलों के रास्ते से
गुजरते डरते नहीं हैं
समर में जमकर रहो तो
विजय का सेहरा बँधेगा
(3)
बदल गई दुनिया और
बदल गए गाँव
दिखती नहीं है कहीं
बरगद की छाँव
आती थी हवा तब
खुशबू अपार लिये
कोसों दूर-दूर का
चंदनी गुबार लिये
दौड़ती आती थी
द्वार- द्वार जाती थी
कोनों-कोठारियों में
ज़रा सुस्ताती थी
लेकिन न रुकती थी
कहीं एक ठाँव
बदल गई दुनिया और
बदल गए गांव
अमराई बच्चों के
लिए बड़ी खास थी
खट्टे टिकोलों में
कैसी मिठास थी
इमली के पेड़ के
भूत से भयाते थे
पर उसी रस्ते से
आते थे जाते थे
कांटे तो कई चुभे
कहां रुके पाँव?
बदल गई दुनिया और
बदल गए गांव
घर के किवाड़ कहां
बंद हुआ करते थे ?
जन से जन रिश्ते में
बंधे हुए रहते थे
खुले हुए आंगन थे
खुले हुए दिल के
लोग रहा करते थे
बहुत हिल-मिल के
अब तो बंद हो गया
नेह का बहाव
बदल गई दुनिया और
बदल गए गांव
फेसबुकों पर सिमटी दुनिया
अपने ही दूर हुए हैं
उन रिश्तों के आगे सब
रिश्ते नासूर हुए हैं
धरती के उसे छोर से होता
उनका कहना-सुनना
कटकर अपने ही लोगों से
खामोशी को बुनना
घटते शब्दों के आगे सब
मजबूर हो गए हैं
माया-दर्पण का आकर्षण
उत्सव-सा रंगीन हुआ
पर एकाकी बना आदमी
भीतर-भीतर दीन हुआ
उम्मीदों के कलशे
चकनाचूर हो गए हैं
पानी सूख रहा है अब रस
बचा नहीं है कुछ भी
अंतस की झीलें सूखी हैं
आंखें भी है सूखीं
छंदहीन जीवन के रूखे
सब दस्तूर हो गए हैं
(5)
नहीं सोना नहीं चांदी पास में
इक परिंदा उड़ रहा आकाश में
यह खुला नभ है उसीका
जहां तक पर नापते हैं
अकेले आकाश में भी
कहां पंछी काँपते हैं?
लहू में उड़ना घुला जब
गगन उनके हाथ में
इक परिंदा उड़ रहा आकाश में
पेड़ में जब फल पकेगा
प्रथम तो खग ही चखेगा
यही कुदरत का नियम है
देख नृप भी चुप रहेगा
कौन छीनेगा लिखा है
जो भी जिसके भाग में
इक परिंदा उड़ रहा आकाश में
झूमते ये पेड़-पौधे
खेत और खलिहान सारे
बिन लिखे ही नाम उसके
फूल-फल- बागान सारे
कौन रोकेगा उसे कब
कहो तो किस बात में?
इक परिंदा उड़ रहा आकाश में
ये खुशी की तितलियां हैं
नहीं कारा में रहेंगी
जिस चमन की प्यास होगी
वहीं जाकर रस पियेंगी
खुशी है स्वच्छंद बोलो
बंधेगी किस पाश में ?
इक परिंदा उड़ रहा आकाश में
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