विशिष्ट गीतकार :: रंजना गुप्ता
रंजना गुप्ता के तीन गीत
नदी की पीड़ा
तुम क्या जानो पीर नदी की
कितनी बार सिसक कर रोई
जंगल जंगल घाटी घाटी चलती
रही कभी न सोई
बँधी किनारों की क़िस्मत से
दुबली हुई शोक में डूबी
पर्वत ने जब जब ठुकराया
वापस लौटी ऊबी ऊबी
कहाँ कहाँ अपमानित होकर
लहर लहर में आह समोई
तन्वंगी हो गई बिचारी
लिपटी तट से क्षुब्ध मना सी
मरुथल की जलती रेती में
जैसे कोई निर्वसना सी
माँझी ने ही कोख उजाड़ी
पाप की गठरी सिर पर ढोई
भँवर भँवर मरजाद समेटे
सागर तक जाना फिर होगा
नदिया ने तो सदा आज तक
खंडित मर्यादा को भोगा
कृश काया अब दीन हीन है
आँसू आँसू धरा भिगोई
व्यापार
व्यापार में अब शुद्धता
मानक नहीं है
युद्ध ही अनिवार्य है
इस काल में
संधियों की लिपि कोई
लिखता नहीं है
ढीठ उन्मादी शिविर
प्रतिबद्ध है
मृत्यु का वादी यहाँ
बचता नहीं है
इससे ज़्यादा कुछ
भी भयानक नहीं है
भूख का संताप
पीढ़ी को मिला
क्रूर कामी ये समय
रुकता नहीं है
भूल शतरूपा की थी
या मनु बिका
कुछ हुआ पर क्या हुआ
दिखता नहीं है
टिड्डी दल आपात् हैं
अचानक नहीं हैं
हड्डियों में शेष
कुछ अवशेष हैं
कितने बचे सिमटे हुए
ठठरी से दिन
पूस की रातें
आषाढ़ी बारिशें
झुग्गियों में कट गये
कथरी के बिन
त्रासदी का सच है झूठा
कथानक नहीं है
दम घुटता है
जीने की इस खींचतान में
भीड़भाड़ वाली दुकान में
दम घुटता है
निष्कर्षों के क्षण बोझिल हैं
संवादों के पल गोठिल हैं
यहाँ राम न माया मिलती
बस शबरी के जूठें फल हैं
दलदल से धँसती ढलान में
दहशत के इस घमासान में
दम घुटता है
गेहूँ के संग पिसता है घुन
नीरो की बजती वंशी धुन
केश खींचता कोई दुशा:सन
क्षमा नीच के हैं सब अवगुन
पीड़ा के इस आख्यान में
काले कोयले की खदान में
दम घुटता है
दुनिया के ये गोरख धंधे
गाँठ के पूरे अक़्ल के अंधे
लाभ हानि से यश अपयश से
निर्विकार अब मेरे कंधे
ग़लत सही वाले निशान में
संवेदों के इस मसान में
दम घुटता है
सहज वृत्त जीवन का खींचा
मन को ले मुठ्ठी में भींचा
मगर संतुलन साध न पाया
समतल भी दिखता है नीचा
ऊँचे ऊँचे इस मकान में
मौला अब तेरे जहान में
दम घुटता है
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परिचय : रंजना गुप्ता की कई कविता-संग्रह और गीत-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. इन्हें कई संस्थाओं से सम्मान भी मिल चुका है.
संपर्क – C/172 निराला नगर – लखनऊ
मोबा…9936382664