विशिष्ट कहानीकार :: गीता पंडित

टर्निंग पोइंट

       – गीता पंडित

“मिस्टर रॉबर्ट, आप यहाँ विदेश में कामियाब बिजनेस मैन हैं. आपके पिता इंडियन थे इसलिए आप से ही पूछती हूँ कि यहाँ विदेश में रहने वाले आप जैसे भारतीयों का सबसे बड़ा दुःख क्या है ?”
“मिस्टर लेखक मेरे पिता इंडिया से यहाँ तब आये थे जब मैं दो वर्ष का था और आज पचास बावन का हो गया हूँ. अपने देश को, उसकी मिट्टी की ख़ुशबू को मेरे पिता बहुत मिस करते थे. उदास हो जाते थे. मैंने उस तरह इंडिया को नहीं देखा लेकिन जन्म तो वहीं लिया था. शायद, इसलिए ही मेरे मन में भारत जीवित रहता है. अभी तक जा नहीं पाया लेकिन कभी जाना है वहाँ. कम से कम एक बार तो ज़रूर अपनी जन्मभूमि को सलाम करने का मन है.”
वह क्षणभर रुके जैसे कुछ सोच रहे हों. फिर बोले
“आप भी यहाँ स्विटजरलैंड में लगभग बीस बाईस वर्षों से हैं. मेरी ही कम्पनी में आप इंडिया से यहाँ आयीं थीं. आप भी तो इंडिया को मिस करती हैं. ऐसे ही यहाँ रहने वाले दूसरे भारतीय भी अपने तीज-त्यौहार मनाकर इंडिया को अपने भीतर जीवित रखते हैं.”
“जी, बहुत मिस करती हूँ और यह भूल भी कैसे सकती हूँ कि इस जॉब ने सब कुछ बदल दिया. यही मेरे जीवन का सबसे बड़ा टर्निंग पोईंट बना.”
“ऐसा हो सकता है. हाँ, तो मैं कह रहा था कि हम एक दूसरे से बहुत अच्छी तरह परिचित हैं शायद हम दोनों का भारतीय होना भी इसका कारण रहा हो. एक दूसरे की नाकामियों और कमजोरियों को भी अच्छी तरह से जानते हैं.”
“जी”
“मगर इस समय थोड़ा जल्दी में हूँ इसलिए अभी नहीं | किसी दिन आराम से गुफ़्तगू होगी और मैं शर्तिया आपके प्रश्न का उत्तर दूँगा अगर आपके हाथ के राजमा राइस मिलें तो |”
“हाँ, हाँ, मोस्ट वेलकम मिस्टर रॉबर्ट. आपकी उर्दू का जवाब नहीं.”
“आपको इमप्रेस करने के लिए हिंदी उर्दू बोल रहा हूँ. हाहा हाहा. यह मैंने अपने पापा से सीखी थी. वह बहुत अच्छी उर्दू और हिंदी जानते थे.
“ओके, अच्छा एक बात बताइये. आप मुझे मिस्टर लेखक क्यों कहते हैं?”
“लेखक तो आप हैं ही दूसरे आपने जो किया उसे कई बार पुरुष भी करने का साहस नहीं करते. यह सम्मान है जो आपको मिलना ही चाहिए मिस्टर लेखक.”
“गुड. ओके बाय मिस्टर रॉबर्ट”
बाय, मिस्टर लेखक, जब भी तुम्हारे पास होता हूँ तो स्वयं को भूल जाता हूँ और यह भी कि मुझे एक ज़रूरी मीटिंग में जाना है जिसमें मेरी उपस्थिति अनिवार्य है और देखो तो, सुबह के दस बज रहे हैं मुझे ऑफिस में होना चाहिए था मगर मैं तुम्हारे पास बैठा ब्लैक कॉफी के मजे ले रहा हूँ सिगार के साथ. चलो शाम को मिलते हैं.’
और बाय करके वह आगे बढ़े ही थे कि जैसे उन्हें कुछ याद आया हो. वह मुड़े और उसके नज़दीक जाकर कहने लगे
‘मुझे मालूम है आप वहाँ कई बार जा चुकी हैं लेकिन कल का याद है ना सेटरडे है और आपने इस देश की सबसे ऊँची चोटी पर हमारे साथ चलने का वादा किया है. डों’ट फोरगेट.”
“मुझे याद है मिस्टर रॉबर्ट. भारतीय अपना वादा कभी नहीं भूलते.”
“हाहा हाहा, सहमत मिस्टर लेखक.”
और यह कहकर अनमने से मिस्टर रॉबर्ट अपनी गाड़ी की तरफ तेजी से मुड़ गये लेकिन वह जब भी मिस्टर लेखक को बाय कहते हैं उन्हें हल्का सा अपने दिल में दर्द का अहसास होता है. कारण कुछ भी हो सकता है मगर वह उससे कुछ नहीं कहते और अपने आपसे भी छिपाने की नाकाम कोशिश करते हैं जिसमें सफलता मिलती है या नहीं, मालूम नहीं क्योंकि दिल के मामले बड़े नाज़ुक होते है और दिल की बात मिस्टर लेखक से कह नहीं पाते तो दर्द झेलते हैं.
मिस्टर लेखक कितना समझती हैं यह तो नहीं पता लेकिन कुछ तो है जो उन्हें मिस्टर लेखक का हर सुबह कॉफी पर इन्तज़ार रहता है और वीकेंड पर शाम को भी क्योंकि पाँच दिन तो ऑफिस की भाग दौड़ में निकल जाते हैं लेकिन शनिवार और रविवार तन्हाई और अकेलेपन का अहसास कराते हैं जिनसे बचने के लिए उन्हें एक दोस्त की आवश्यकता होती है जिसके साथ होने से वह अपने आपको भूली रहें और यह कमी मिस्टर रॉबर्ट पूरी करते हैं.
वह कई सालों से मिस्टर रॉबर्ट के घर में रहती है जो दो हिस्सों में बँटा हुआ है. एक हिस्से में मिस्टर रॉबर्ट रहते हैं और दूसरे में मिस्टर लेखक. दोनों वीकेंड्स पर साथ होते हैं . सोमवार से फ्राइडे तक अपने-अपने कार्यों में व्यस्त केवल हेलो हाय और भागते-दौड़ते ही मिल पाते है या ऑफिस की मिटिंग्स वगैहरा में.
नीतू को ‘मिस्टर लेखक’ कहने के पीछे भी एक कहानी है. मिस्टर रॉबर्ट उसके साहस की प्रशंसा करते थे लेकिन जब उन्हें मालूम हुआ कि वह चुपके-चुपके लिखती भी है तो उसे नीतू की जगह मिस्टर लेखक नाम से सम्बोधित करने लगे. आज उसे यही नाम प्रिय है.
और जहाँ तक भूलने की बात है. ऐसे भी क्या कभी कोई भूल सकता है. न चाहते हुए भी अतीत करवट लेता रहता है. यादें दरवाज़ा खटखटाती रहती हैं और वह एक मासूम बच्चे सी उनमें डूबती चली जाती है.
ऐसे ही कमजोर क्षणों में मिस्टर लेखक डायरी निकालती हैं और शब्दों की पतवार से भावों की नौका में सवार होकर अतीत की उस नदी में गोते खाने की कोशिश करती है जहाँ यहाँ आने से पहले के तेइस-चौबीस साल किसी सीपी में बंद माणिक की तरह चमकते हैं जो दिखाई तो देते हैं लेकिन हाथ नहीं आते.
हाथ आयें भी कैसे ? वही तो इंडिया में उन्हें छोडकर स्विट्ज़रलैंड भाग आयी थी सदा के लिए मगर नहीं जानती थी कि सात समंदर पार आ जाने के बाद भी वह भाग नहीं पाएगी अपने आप से, उन पलों से, उन यादों से, उन ख्यालों, ख़्वाबों जज़बातों से और अपने पापा से जो केवल उसी के लिए जीवित थे.
आज भी याद है वह सब जब वह खूब खुश थी. वृंदावन की गलियों में खिलखिलाती डोलती थी अपने बबलू का हाथ पकड़े. वह मना करता तो मटककर कहती
“किसी से क्या? तू मेरा है तो मैं जो चाहे करूँ तेरे साथ और फिर हाथ पकड़ने या नाम लेने में क्या बुराई है.”
बबलू अपना हाथ छुड़ाते हुए कहता
“बुराई वुराई तो मुझे पता नहीं नीतू लेकिन तू तो जानती है कि यहाँ यह सब नहीं चलता. यह वृन्दावन है जहाँ औरतें अपने मर्द का नाम नहीं लेतीं और मुँह ढककर चलती हैं उस पर तू सरे आम मुझे बबलू बबलू बुलाती है और मेरा हाथ पकड़कर चलने की ज़िद करती है.”
“अरे, तू तो मेरा बचपन का साथी है और अब जीवनसाथी भी. तेरे साथ मेरी लगन हुई है और फिर हम एक साथ पढ़े और खेले भी हैं तो आज क्या बदल गया ? पहले भी तो नाम लेती थी. क्या हमारी शादी हो जाने से अब हम वह ना करें जिसका हमारा मन करे. अगर ऐसी ही बात थी तो शादी ना करता. हम ऐसे ही भले थे. कम से कम मन की तो करते थे.”
यह कहकर वह नकली गुस्सा दिखाती और उसका हाथ झटककर दूर दूर चलने लगती. वह आगे बढ़कर उसका हाथ कसकर पकड़ता और कहता
“अच्छा बाबा, आगे से नहीं कहूंगा. तेरा जो मन आये कर मगर नाराज मत होना.”
“क्यूँ नाराज़ ना होऊँ? तू बात ही ग़ुस्से वाली करता है.”
“वह मान जाती, दोनों फिर से इश्क़ की राह पर चलने लगते. मौसम गुलाबी होकर कानाफूसी करने लगता. गहराती शाम की रंगत बदल जाती और खिल जाती उसके चेहरे की रंगत.
ऐसे ही रंगत में लिपे पुते दिन रात कब ऐसे पलों की ड्योढ़ी पर आकर खड़े हो गये जहाँ वह वह ना रही.
रहती भी कैसे ? उसके विवाह के बाद की तीसरी करवाचौथ का दिन महंदी. बिंदी, काजल लगाये लाल रंग की साड़ी में सजी धजी चाँद को जल देने के बाद वह उसके साथ स्कूटर पर सैर सपाटे के लिए जा रही थी तो अचानक स्कूटर की एक ट्रक से टक्कर हुई और उसके बाद उसे मालूम नहीं क्या हुआ.
जब आँख खुली तो स्वयं को अस्पताल के बेड पर पाया जहाँ छत्तीस घंटे बीत चुके थे होश आने में. उसकी देह पर कई जगह पट्टी बंधी हुई थी. सर में गहरी गुम चोट थी और वह जिसके साथ उसकी साँसें जुड़ी थीं, उसका सखा, उसका प्रेमी, उसका पति उसी दिन उसे छोड़कर जा चुका था हमेशा के लिए.
उसे विश्वास नहीं हो रहा. घर में मातम है लेकिन वह मातम करने के लिए तैयार नहीं. नीतू ने उसकी मृत देह नहीं देखी. उसने तो उसे अपने साथ मस्ती से स्कूटर चलाते हुए देखा है. वह यही सब देखना चाहती है. उसे लग रहा है कि ये सब पागल हैं जो शोक मना रहे हैं. वह कहीं बाहर गया है लौट आयेगा. यही उम्मीद उसे रोने नहीं दे रही.
कई बार भ्रम भी जीने के लिए ईंधन का कार्य करते हैं. उसके साथ भी यही हो रहा है. सब आश्चर्य चकित हैं उसके न रोने पर. कुछ विस्मित हैं उसके साहस पर. कुछ अनर्गल विलाप करते से लग रहे हैं लेकिन उन सबसे बेपरवाह वह अपने में गुम है. घुटने सिकोड़कर बेड पर उल्टी होकर पड़ी है. उसे समझ ही नहीं आ रहा है कि यह सब क्या हो रहा है.
वह धीरे धीरे बुदबुदा रही है
“कहाँ हो बबलू? जल्दी आ जाओ. देखो सब मृत समझकर मातम मना रहे हैं. ऐसे छोड़कर नहीं जा सकते. आना ही होगा बबलू. आओगे ना.”
संस्कारों को रूढ़ियों की पीठ पर लादे वे सब पक्के संस्कारी लोग हैं. घने लम्बे काले बालों को उसके निरंतर मना करने के बावजूद भी जबरदस्ती स्वर्ग का रास्ता दिखा रहे हैं. मुंडा हुआ सर, सफेद साड़ी में लिपटी उसकी देह और हाथ नाक कान उजड़े हुए दयार की तरह उसे डरा रहे हैं.
मन से सफ़ेद वस्त्र पहनना सुकून देता है लेकिन ज़बरदस्ती पहनाना पीड़ा और दुःख का बायस बनता है. नीतू के साथ यही हो रहा है.
वह इस सबसे बचपन से ही डरती आई है. वृन्दावन की गलियों में, मन्दिरों में, घाटों की सीढ़ियों पर स्त्रियों के सफेद वस्त्रों में लिपटी मृत प्राय: देह को देखकर वह सदैव सहमती रही है.
उसे कभी समझ नहीं आया . उसे आश्चर्य होता और पीड़ा होती कि भरे-पूरे परिवार के होते हुए केवल विधवा हो जाने भर से स्त्री एक अवांछित वस्तु की तरह घर से उठाकर बाहर कैसे फ़ेंक दी जाती है. परिवार, समाज इतना निर्मम और बेरहम कैसे हो जाता है? उसका प्रेम, मान-सम्मान, उसकी सुरक्षा यानी उसके अस्तित्व के क्या कोई अर्थ नहीं रह जाते.
आज स्वयं भी वह उसी रूप में है तो कैसे सहे ?
किससे कहे?
क्या करे?
कहाँ जाए?
यह नियति की मार है. विधि का विधान है उचित या अनुचित न चाहते हुए भी मानना होगा मगर ये सब जो कर रहे हैं वह क्यों मान्य हो? उसके भीतर की स्त्री यह सब स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. वह अपने अस्तित्व को खोना नहीं चाहती. अंदर हाहाकार मचा है और एक द्वन्द भी जिससे निजात पाना कम से कम इस समय तो सम्भव नहीं.
उसका मन असहज है, देह पीड़ित और समय चुपचाप मूक दर्शक. घर में उसी की चर्चा होती है लेकिन उस चर्चा में वह शामिल नहीं है.
वह कुछ सुनना भी नहीं चाहती फिर भी आवाजें पीछा नहीं छोड़तीं. फुसफुसाती हुई आवाज़ में कुछ स्त्रियाँ बात कर रही हैं
“अरे, सफेद साड़ी की जगह उसे रंगीन साड़ी दे दो. अभी उसकी उम्र ही क्या है. बेचारी बच्ची है. वह सारा जीवन अकेली कैसे काटेगी ?”
दूसरी स्त्री कह रही है
“हाँ यह तो है मगर ऐसा बिलकुल मत करना. वह जवान है, सुंदर है. वह फिर से रंगीन सपने देखने लगेगी. और भी आफत आ जायेगी. बदनामी होगी वो अलग. अब उसका यही रूप ठीक है. ईश्वर को यही मंजूर था तो भोगना होगा ही.”
“ह्म्म्म…”
“देखते हैं. अब उसका कुछ बंदोबस्त भी तो करना होगा.”
“मतलब”
उसके बाद फुसफुसाहट थोड़ी देरी के लिए रुक गयी जैसे कोई आया हो. पुन: वही बात
“अरे… बंदोबस्त क्या करना है. घर के एक कौने में पड़ी रहेगी और घर का सारा काम करेगी. समझ लेना एक नौकरानी रह रही है.”
उफ्फ्फ…
एक पुरुष की इतनी महत्ता है स्त्री के जीवन में कि उसके जाने के बाद श्वास लेने तक की गुंजाईश नहीं. उसका अपना होना किसी के लिए कोई मायने नहीं रखता. पलभर में रानी से नौकरानी या दर दर की ठोकरें खाने के लिए किसी घाट की सीढ़ियों पर …या..
बेघर …बेसहारा, निरीह ओह…
कोई ज़मीन नहीं, कोई ठिकाना नहीं, कोई अपना नहीं यही सोचकर उसकी आँखों में आँसू आ रहे हैं. अंतस में ज्वालामुखी पनपने लगा है. वह इस स्थिति में स्वयं को देखने या रखने के लिए अपने आप को तैयार नहीं कर पा रही फिर…
तभी उसके कमरे की तरफ बढ़ते हुए उसके पापा कह रहे हैं
“बिटिया की अभी उम्र ही क्या है जी. उसकी दूसरी शादी कर देंगे लेकिन नौकरानी बनाकर यहाँ नहीं छोड़ेंगे या आप ऐसा करिए, अपने छोटे बेटे से उसकी शादी करवा दो.”
ओह…. दूसरी शादी…नहीं…नहीं… तो क्या बबलू सच में चला गया. यह समझते ही उसकी रंगत बदल गई. वह बदहवास सी इधर उधर देखने लगी और फिर पापा को देखते ही उनसे लिपटकर बेबसी में जोर-जोर से चीखने लगी
“पापा बबलू ऐसे नहीं जा सकता. यह सच नहीं है. वह जाता तो बताकर जाता. बिना बताए वह आज तक कहीं नहीं गया. देख लेना वह अचानक आकर सबको हैरान कर देगा. कहीं ऐसे कोई जाता है भला. आप ही बताओ पापा…क्या वह ऐसे जा सकता है ? नहीं ना…”
चलो देखो उसे आवाज़ दो ज़रा… वह सुन लेगा. आपको बहुत मानता है. आपकी अवश्य सुनेगा. पापा बुलाओ ना उसे. बुलाओ ना… ढूँढकर लाओ कहीं से भी…जाओ पापा…. जाओ. कहना नीतू याद कर रही है.”
फिर झटके से उन्हें ठेलकर अपने से अलग कर देती है.
“बबलू….बबलू…. ऐसे नहीं जा सकते. अपनी नीतू को अकेले कैसे छोड़ सकते हो. अभी तो हम ठीक तरह मिले भी नहीं और ….नहीं …नहीं …. नहीं जा सकते. वापस आओ. आ जाओ ना …आ जाओ बबलू…आ जाओ प्लीज.
चीखते चीखते वह अचेतन अवस्था में पहुंचती जा रही है. उसके पापा विचलित हो जाते हैं उनकी आँख से अश्रू बहने लगते हैं मगर धीमे से आँखें पोंछकर बिटिया के सर पर हाथ फिरा रहे हैं.
आज उसके पापा कितने विवश हैं. कभी एक समय वह भी था जब उसकी मम्मी की मृत्यु के बाद स्वयं बिटिया की हर आवश्यकता को बिना कहे ही समझ जाते थे और आज यह दिन भी है कि उसके कहने के पश्चात भी उसकी ज़रूरत पूरी नहीं कर पा रहे. पिता के लिए इससे अधिक दुखद स्थिति और क्या होगी. कोई भी पिता ऐसे में टूट सकता है. वह भी टूट रहे हैं लेकिन कुछ नहीं कर पा रहे. उनकी आँखें सजल हैं और हृदय रो रहा है. अपनी बेबसी पर भीतर ही भीतर छटपटा रहे हैं.
सच तो यह है कि पुरुष स्त्री की तरह रो नहीं पाता लेकिन दर्द तो उसे भी होता है.
वह बुदबुदा रही है जैसे अपने आपसे बात कर रही है.
“पापा यहाँ से कहीं भी ले चलो, ले चलो बस. यहाँ दम घुट रहा है.”
ठीक है. वैसे भी जवान मृत्यु होने के कारण सारी रस्में तीन दिन में निबटा दी थी. कोई तुम्हें रोकेगा नहीं. चलो बेटा, अपने घर चलो.”
“अपने घर …”
वह सोच रही है. विवाह के समय कहा था कि वह घर पराया है. अब फिर से वह अपना घर है. समझ नहीं पा रही कि घर किस तरह बदल जाते हैं या बदल जाते हैं लोग अपनी सुविधानुसार. पहले वाला घर उसका था तो पराया क्यों कहा और यह घर अगर अपना है तो अब पराया कैसे हो गया. आख़िर उसका कौन सा अपना घर है.
पापा उसे अपने घर ले आये हैं. फटी फटी आँखों से चारों तरफ देख रही है जैसे कुछ ढूंढ रही है. यहाँ उसे सुकून मिलना चाहिए था लेकिन मिल नहीं रहा. वही घर, वही पापा, वही कमरा, वही स्टडी टेबल, वही पुस्तकें, वही उसकी वार्डरोब, शू रैक, वही बेड लेकिन सब पराया सा वह स्वयं भी अब वही नहीं है.
वह अपने आपको यहाँ अजनबी सा महसूस कर रही है. कैसी अजीब बात है कि जहाँ उसका बचपन व्यतीत हुआ, जहाँ वह हँसी, बोली, रोयी, चीख़ी और हर बात पर अपनी ज़िद मनवाई वह जगह उसे अपनी लगनी चाहिए थी लेकिन ऐसा नहीं हो रहा. वह इस सबके विपरीत अलग सा महसूस कर रही है. उसे समझ नहीं आ रहा कि वह मासूम सी पापा की गुड़िया कहाँ खो गयी. कल तक तो यहीं थी हँसती मुस्कराती
तो क्या उसे खोने दिया जाए या तलाशा जाए ?
उसके मन में प्रश्न उठ रहे हैं. वह अपने बेड पर घुटने सिकोड़कर बैठी है. उसे अभी भी समझ नहीं आ रहा कि यह सब क्या हो रहा है. वह व्यथित है, पीड़ा में है. बबलू के बिना अपने आपको बिलकुल अकेला महसूस कर रही है. श्वासें निरर्थक लग रही हैं.
उसकी आँखें शून्य में गढ़ी हैं. पापा उसकी पीठ के पीछे कुशन लगाकर उसे आराम देने की कोशिश करते हैं लेकिन उसे आराम कहाँ. उसने अपनी आँखें मूँद ली हैं और कुशन के सहारे अधलेटी स्थिति में पड़ी हुई है.
समय ने उसे बेआराम कर दिया है. वह न सो पा रही है और ना ही जग पा रही है लेकिन एक अजीब सी हालत है जिसमें वह अपने आपको खोने के लिए तैयार नहीं. उसके भीतर निरंतर समवाद चल रहा है. ऐसे जीवन की उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी तो जी कैसे सकती है.
ऐसे नहीं जीना है यह सोचते ही अचानक वह अपना लैपटॉप उठाती है और ईमेल खंगालने में जुट जाती है. उसके चेहरे पर कई भाव आ जा रहे हैं. वह मायूस होती जा रही है लेकिन तभी एक ईमेल को देखकर वह खुशी से उछल पड़ती है जैसे मुँह माँगी मुराद मिल गयी हो. वह ऊपर आँख उठाकर ईश्वर का शुक्रिया अदा करती है और की बोर्ड पर उसकी उंगलियाँ फिसलने लगती हैं.
डीयर सर,
थैंक्स फॉर प्रोवाइडिंग मी दिस जॉब. आय एम ईगर टू जॉइन | सी यू सून. प्लीज अरेंज एयरटिकट फॉर मी सो दैट आय मे रीच इन टाइम.
सो नाइस ऑफ़ यू.
थैंक्स
नीतू
और सेंड पर क्लिक कर देती है लेकिन यह क्या अभी तक जहाँ मुर्दनी छाई हुई थी वहाँ अब जीवन के चिन्ह दिखाई दे रहे हैं. कल जहाँ सूरज अस्त हो गया था वहीं आज सुबह लेकर वह फिर से उपस्थित है.
नया देश, नये लोग, जाने क्या होने वाला है? भविष्य किस तरफ खींच रहा है वह नहीं जानती. वह कभी भी अकेली कहीं नहीं गयी और अब विदेश जाना है वह भी अकेले. थोडा डर भी लग रहा है लेकिन इस दयनीय स्थिति से बचने के लिए यह डर कुछ भी नहीं.
हुआ यूँ कि नीतू ने एम कॉम किया है. जब जॉब करने नहीं दिया गया तो वह कम्प्यूटर में डिप्लोमा करने लगी और कोर्स कम्प्लीट होते ही उसने ऐसे ही गूगल खंगालते हुए जॉब के लिए एप्लाई करना शुरू कर दिया घर पर किसी को बताने की आवश्यकता नहीं समझी क्योंकि उसे वह जॉब करना ही नहीं था. वह केवल अपने को आज़मा रही थी.
लेकिन लकीली कुछ समय पहले स्विट्ज़रलैंड की एक मलटी नेशनल कम्पनी ने ऑन लाइन इंटरव्यू भी ले लिया जिसका परिणाम यह ईमेल है.
यूँ तो नवंबर की शुरुवात है मगर उमस कुछ ज़्यादा हो गयी है इसलिए वह ए.सी. को 18 टेम्प्रेचर पर कर सोने की कोशिश करती है लेकिन नींद तो परदेसी हो गयी है. बुलाने पर भी आमंत्रण स्वीकार नहीं करती.
और फिर आज का दिन उसके लिए विशेष है. अगर नींद आती तब भी वह सो नहीं पाती क्योंकि वह जानती है कि बहुत जल्दी यह घर फिर से पराया हो जाएगा और फिर घर ही क्या यह देश भी.
पापा को सम्भालना है बस. वह बहुत प्यार करते हैं.
पापा से कैसे कहा जाए. iवह बहुत अकेले हो जाएँगे और बाहर भेजने के लिए सहमत भी नहीं होने. क्या किया जाए फिर?
लेकिन यहाँ रहना अब मुमकिन नहीं. उसे जीना है और कैसे जीना है इसका चुनाव अब वह स्वयं करना चाहती थी और उसने कर लिया स्विट्ज़रलैंड का जॉब स्वीकार कर.
स्विट्ज़रलैंड में उसे नयी ज़िंदगी मिली है.
मिस्टर रॉबर्ट ने उसे अपनी तरह जीने के अवसर दिए हैं. आज वह जो कुछ भी है मिस्टर रॉबर्ट की वजह से है. अगर उस दिन उनका ई मेल न मिला होता तो मालूम नहीं आगे क्या होता.
पता नहीं वह क्या करती लेकिन यह तय था कि वह किसी की दया पर निर्भर नहीं रहती.
सच बात तो यह है कि पहले वह कृतज्ञ थी लेकिन अब मिस्टर रॉबर्ट से प्रेम करने लगी है जिसे उसने अभी तक भी स्वीकार नहीं किया है मगर आज वह बांध तोड़कर उड़ना चाहती है मिस्टर रॉबर्ट के साथ.
वह जानती है, मिस्टर रॉबर्ट बहुत पहले से उससे प्रेम करते हैं जिसे उसने महसूस किया है मगर वह इसे नकारती रही है
लेकिन अब नकारना सम्भव नहीं.
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परिचय :: गीता पंडित की कहानियों विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती है

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