विशिष्ट कहानीकार :: डॉ.पूनम सिंह

भँवर

  • डॉ पूनम सिंह

‘‘मेल चाइल्ड —- नो, इट्स फिमेल।’’

सास ने जानना चाहा था तो फेमिली डॉक्टर भारती भारद्वाज ने बहुत ही सहजता से कह दिया था। साथ ही यह भी संभावना व्यक्त की थी कि जुड़वा बेटियाँ हैं।

‘‘ओह नो, दो-दो लक्ष्मियों को मैं कहाँ स्थापित करूँगी डाक्टर ! मुझे गणेश-कार्तिक की पूजा करनी है, लक्ष्मी में प्राण-प्रतिष्ठा आप न कराएँ प्लीज।’’

डॉ० भारती भारद्वाज अपनी स्कूली क्लासमेट, गर्ल्स स्कूल की प्रिंसिपल उमा तिवारी के इस लक्षणा व्यंजना वाली भाषा पर खिलखिला पड़ीं।

उन्होंने भी परिहास के स्वर में उत्तर दिया – ‘‘बिना लक्ष्मी के गणेश की पूजा नहीं होती है प्रिंसिपल साहिबा जानती हैं न आप।’’ फिर थोड़ी गंभीर होते हुए बोली – ‘‘यह पहला प्रिगनेंसी है उमा, इससे छेड़छाड़ करना उचित नहीं। दो शिशुओं के कारण केस भी कॉम्प्लीकेटेड है। मैं कोई रिस्क लेना नहीं चाहती। दूसरी बात यह भी है कि इट इज नॉट योर रिस्पॉन्सिबिलिटी, यह तो तुम्हारे बेटे का दायित्व है, तुम क्यों बेकार में परेशान होती हो।’’

‘‘मेरा बेटा क्या मुझसे अलग है भारती ! जब बेटियों के लिए वर ढूढ़ने में उसके जूते की तल्ली घिसेगी तो क्या मुझे दुःख नहीं होगा।’’

‘‘आश्चर्य हो रहा है, गर्ल्स स्कूल की इतनी रिप्यूटेड प्रिंसिपल, महिला उत्थान के लिए इतने सामाजिक कार्य करने वाली तुम जैसी प्रबुद्ध महिला भी क्या लड़की के जन्म को लेकर ऐसी बातें सोच सकती हैं ?’’

मुझे गलत मत समझो भारती, लेकिन सामाजिक विडंबना तो यही है। बिना एड़ी रगड़े, पगड़ी उतारे हमारे समाज में बेटियों का ब्याह क्या संभव है ? तीन-तीन बेटियों को ब्याहते मैंने जो झेला है, वह तुम भी जानती हो। तुम ही बताओ, आज शादी-ब्याह में संबंध (समान बंधन) कुल-खानदान की बातें कोई अहमियत रखती है क्या ? हम वर के लिए सीधे बाजार जाते हैं – मीना बाजार, सुपर बाजार या गुदड़ी हाट। क्या मैं गलत कह रही हूँ ?’’

डॉ० भारती सखी की बातों पर हँस पड़ी, ‘ ‘अच्छा कहा तुमने, सुपर बाजार या गुदड़ी हाट। बात तो ठीक है, लेकिन हम जैसी पढ़ी-लिखी महिलाओं को बेटे-बेटी के फर्क को इस तरह डिफाइन या जस्टिफाइ नहीं करना चाहिए। फिर यह पहला प्रिगनेन्सी है, एक बार बेटे से भी राय ले लो उमा !’’

‘‘बच्चे मुझे क्या राय देंगे ?आज जब मेडिकल साइंस ने इतनी सुविधाएं दी है तो अनवांटेड बोदरेशन लेना बेवकूफी नहीं है क्या ?’’

‘‘यह तुम क्या अनर्थ बक रही हो उमा। अल्ट्रासाउण्ड अनवांटेड बोदरेशन को खत्म करने के लिए नहीं है। तुम अच्छी तरह जानती हो यह वैधानिक जुर्म है।’’

‘‘खूब जानती हूँ, लेकिन शहर के अधिकांश नर्सिंग होम के बाहर मैंने अपनी आँखों से पढ़ा है – 299 रुपए में सुरक्षित गर्भपात। ऐसे साइनबोर्ड का क्या अर्थ है डॉ० साहिबा ?’’

डॉ० भारती भारद्वाज कुछ कहती तभी बगल के ड्रेसिंग रूम से साड़ी पहनकर विभा उस कमरे में प्रवेश कर चुकी थी और दोनों के असमंजस भरे चेहरे को देखकर आशंकित हो गई थी ।

कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं है।

उसके चेहरे की निरीहता को देखकर डॉ० भारती ने हँसते हुए कहा, ‘‘बी चियरफुल विभा, तुम एक साथ ट्वीन बेबीज की माँ बनने वाली हो। अपनी सेहत का खयाल रखना और बराबर चेकअप कराती रहना, ओ० के०।’’

‘‘अच्छा उमा हम फिर मिलते हैं, डोन्ट वरी एण्ड टेक केयर आफ हर।’’

डॉ० दूसरी पेशेंट को एग्जामिन करने के लिए घंटी बजा चुकी थी।

विवश होकर उमा तिवारी को उठना पड़ा। लेकिन डॉ. भारती की अवमानना से मन बहुत खिन्न था।

उस दिन के बाद से अचानक घर का तापमान बहुत बढ़ गया था। कुछ नहीं जानते हुए भी विभा बहुत कुछ समझ गई थी और मन ही मन बहुत भयभीत थी। वह सहमी-सिकुड़ी सी घर का सारा काम काज करती रहती, लेकिन सासु माँ का पारा चढ़ा ही रहता। सुबह अगर किसी दिन उसे उठने में थोड़ा भी विलंब हो जाता तो घर का सारा परिदृश्य ही बदला नजर आता। रसोई में सासु माँ कठोर मुद्रा में युद्ध-स्तर पर काम करती दिखती। कलछुल, छोलनी, बेलन, चिमटा सब उनके आक्रामक तेवर का आभास देते। विभा डरते-डरते रसोई में पैर रखती – ‘‘हटिये माँ जी, मैं कर लूँगी – रात को ठीक से नींद नहीं आई इसलिए।’’

उसकी बात बीच में ही काट कर ऊँची आवाज में कहती – ‘‘काहिल नहीं हूँ मैं। जब तक देह है, दो रोटी के लिए मोहताज नहीं रहूँगी किसी पर। जाओ, तुम्हें सुतवास लगा है, जी भर कर सोओ, मैंने कर लिया है सब कुछ।’’

विभा भीगी बिल्ली की तरह उनके पीछे डोलती रहती, लेकिन वह दिन फिर उसके लिए सहज नहीं हो पाता।

सासु माँ का यह रूप विभा के लिए अप्रत्याशित नहीं था। वह जब से इस घर में आई है, उन्हें इसी रूप में बोलते देखा है। पहले उसे आश्चर्य होता था कि एक पढ़ी-लिखी नौकरी पेशा स्त्री भी क्या इतनी कंजरवेटिव हो सकती है, लेकिन धीरे-धीरे उसने जान लिया कि एक स्त्री के मन की ग्रंथियाँ सामाजिक रूढ़ियों से अधिक जटिल और आक्रामक होती हैं और उसे लेकर तो सासु माँ के मन में केवल गाँठ और ग्रंथियाँ ही हैं।

सास के एकछत्र राज में विभा ने बिना उनकी अनुमति के अनाधिकार प्रवेश किया है। इस दुःसाहस की सजा तो उसे मिलनी ही थी। राजीव नौकरी पर जाते हुए उसे साथ नहीं ले गया। एक चैलेंजिग टास्क की तरह उसने उससे कहा था – ‘‘विभा, तुम्हें माँ के साथ रह कर उनका मन जीतना है। हमने उनके अरमानों का खून किया है, प्रायश्चित तो हमें करना ही होगा।’’

लेकिन सासु माँ का मन जीतना एक साम्राज्य जीतने से अधिक कठिन था विभा के लिए। राजीव ने उससे प्रेम-विवाह किया था। तिलक दहेज के नाम पर फूटी कौड़ी भी नहीं, एक छोटी-सी अटैची में कुछ साधारण से कपड़े और किताबें लेकर जिस दिन वह इस घर की चौखट पर खड़ी हुई थी, सासु माँ ने कलेजा पीटते हुए कहा था – ‘‘यह क्या किया तुमने राजीव ? मेरे सारे अरमानों पर पानी फेर दिया। जीवन के जलते रेगिस्तान में तू ही तो गुलमोहर का पेड़ था मेरे लिए। आज आँखों के सामने वह भी धू-धू कर लहक गया। अब किसके सहारे रेत का यह सफर तय करूँगी बेटा !’’

उनका कलेजा पीटना और रोना देखकर राजीव के पीछे खड़ी विभा अपराध-भाव से ग्रसित हो गई थी। राजीव माँ को बाँहों में भर कर समझा रहा था – ‘‘विभा तुम्हारे सपनों के अनुरूप है माँ, उसे प्यार से अपना लो।’’

‘‘यह साधारण-सी नैन नक्श वाली किरानी की बेटी मेरे सपनों के अनुरूप है, जिसके कारण मेरा बेटा बागी हुआ – अपनी मर्जी चलाई – मेरी इच्छा-अनिच्छा को नजरअंदाज किया और कहता है, मेरे सपनों के अनुरूप है।’’

आग्नेय नेत्रों से घृणा का ज्वार उड़ेलती वे धम-धम पैर पटकती चली गई थीं। एक धधकती अग्निकुंड के समीप खड़ी विभा अपने चारों ओर अरमानों की चिंदियाँ उड़ते देख रही थी।

ऐसी विषाक्त मनोंभूमि में अपने लिए जगह बनाना और प्रेम का विरआ उगाना विभा के लिए सचमुच एक चैलेंजिंग टास्क था।

लेकिन राजीव ने कहा था इसलिए उनका मन जीतने, उन्हें मनाने के लिए वह भरसक प्रयास करती रही। उनकी उपेक्षा, अपमान और घृणा सहकर भी उसने यह सब कुछ किया, जिसे करते हुए नदी के दो पाट की तरह वह खुद अपने भीतर बँटी रहती थी। उन्हें गठिये का दर्द रहता है – स्नान के लिए गर्म पानी चाहिए, उन्हें प्रतिदिन स्कूल जाना है, उनके कपड़े धुले प्रेस किए होने चाहिए, हर दिन उन्हें एक तरह का साग-पात नहीं खाया जाता,  उनकी स्वाद संरचना तो समझना ही होगा। उनके अतिथियों, सगे-संबंधियों की लंबी जमात है आव-भगत में कोई कसर नहीं होनी चाहिए। अव्यवस्थित घर उन्हें बिलकुल पसंद नहीं, गृहस्थी में सुगढ़ता की झलक तो दिखानी ही होगी। विभा हाड़-मांस की एक जीवित मशीन बन गई थी उस घर में। फिर भी सासु माँ का हृदय विभा के लिए कभी भी संवेदनशील नहीं हुआ।

आहिस्ता-आहिस्ता जीवन की एकरसता से विभा का तादात्म्य होता चला गया। राजीव को लेकर भी उसके मन में एक अटूट जड़ता का भाव व्याप्त होने लगा। उसका आना-जाना रूटिन वर्क की तरह उसके जीवन का एक अभ्यस्त हिस्सा-भर होकर रह गया। जिन्दगी जीते हुए उसे यही लगता जैसे वह एक ठहरा हुआ सफर तय कर रही है।

इस मनः स्थिति में पहली बार जब उसकी परती जमीन पर एक बीज अँकुराया तो उसे लगा जैसे बसंत की निस्सीम हरीतिमा उसके भीतर उग आई है। एक सूक्ष्म स्निग्ध पारदर्शी पुलक से उसका तन-मन उल्लासित हो उठा।

उस दिन राजीव के आते ही उसने बाँहों में भरकर उसे पागलों की तरह प्यार किया था – ‘‘आज मैं बहुत खुश हूँ राजीव, बहुत खुश। तुमने मुझे जीने का एक खुबसूरत बहाना दे दिया। अब जिंदगी मेरे लिए अर्थहीन नहीं रही। यह देय एक ढाल है मेरे लिए। बधिक समय के सारे बाण अब इससे टकराकर लौट जाएँगे। हमारे प्रेम की बगिया में अब क्रौंच बध नहीं होगा राजीव, मैं माँ बनने वाली हूँ – सुना तुमने – मैं माँ बनने वाली हूँ – मैं माँ बनने वाली हूँ – मैं —’’

राजीव हतप्रभ था – ‘‘कहीं यह पागल तो —’’

‘‘हाँ-हाँ मैं खुशी से पागल हो गई हूँ, सचमुच पागल।’’

वह राजीव को अपनी दोनों बाँहों में कसकर चूमती रही – इतना – इतना कि वह बेसुध हो गया।

जाते वक्त उसने माँ से कहा था – ‘’एक बार विभा का चेकअप कराकर डॉ० से परामर्श ले लेना माँ, मैं अगले महीने आऊँगा।’‘

 

अगले तीन महीने विभा के जीवन के स्वर्णिम काल थे, शायद पोते की संभावना को लेकर सासु माँ के मन में एक कल्पना साकार होने लगी थी, तभी तो उनके भीतर का भूगोल बदलने लगा था। स्कूल जाते वक्त वो हिदायत देकर जाती – ‘‘समय पर खाना खा लेना, दोपहर को आराम करना, तो विभा की आँखें छलछला आतीं। उसके एकाकी जीवन में यह अप्रत्याशित प्यार – इतना मनुहार कहाँ से छलक आया ?’’ जिंदगी उसे नीम की मिठी निबौरियों-सी लगने लगी थी।

उसने राजीव को पत्र लिखा – ‘‘हमने र्फोस्ड टास्क पूरा कर लिया है राजीव एक ! एक सल्तनत जीतने जैसी खुशी और गर्व हो रहा है खुद पर। इन दिनों माँ मुझे तुमसे अधिक प्यार करने लगी हैं।’’

तब उसे कहाँ मालूम था कि उसका भ्रम इस तरह टूटेगा और स्नेहिल धार अचानक सुनामी धार में बदल जायेगी।

 

डॉक्टरी रिपोर्ट में दो जुड़वा बेटियों की संभावना ने भगीरथ की धार को फिर विपरीत दिशा में मोड़ दिया था। उसकी लहरें बहुत आक्रामक हो गई थीं। विभा को देखते ही सासु माँ के भीतर वितृष्णा का लावा फूटने लगता।

‘‘पता नहीं कितने जन्मों का बैर चुकाने आई है चुड़ैल। एक ही बार में कुत्ते बिल्ली की तरह दो-दो बेटियाँ जनेगी। जीवन-भर कोल्हू का बैल बना पिसता रहेगा मेरा बेटा। पत्थर पड़े ऐसी कोख पर – तिवारी खानदान के सूर्य को राहू बन कर ग्रसने आई है भठियारिन – जब से इसने कदम रखा है इस घर में, जाने कैसा मातमी सन्नाटा पसर गया है चारां ओर।

‘‘हे सोखा बाबा ! मैंने कुल देवता की पूजा में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी, फिर ऐसा दिन क्यों दिखा रहे हो प्रभु ! हाय ! कैसा पौरा लेकर आई है कुलच्छिनी – हे प्रभु ! रक्षा करो – रक्षा करो।’’

विलाप, प्रलाप और शाप का यह क्रम विभा की जिंदगी में एक नियमित दिनचर्या की तरह घटित होने लगा था। वाणी की लुकाठी से बहू को झुलसाने में उन्हें अपार तोष मिलता था। वे हर वक्त आग उगलती रहतीं – विभा का तन-मन फफोलों से भरता जाता। उस क्षण सासु माँ के कलेजे को बहुत ठंडक पहुँचती थी।

विभा का वश चलता तो वह अजन्मी ही रख लेती अपनी बेटियों को अपनी कोख में, लेकिन वह क्या करे प्रकृति उसके वश में नहीं। गर्भ में पल रही बेटियाँ तो नौ महीने बाद इस धरती पर आएँगी ही, तब क्या होगा ? पिछले दिनों सासु माँ का ठकुराइन वाला विद्रुप रूप देख वह दहल गई थी। उनकी हिंसक बातों का आतंक उसे पल-भर भी चैन नहीं लेने दे रहा था। नींद में भी वह गर्जना उसके कानों में गूंजती रहती – ‘‘आग लगे ऐसी बेशरम ढीठ जवानी में, पहले तो मेरे सीधे-सादे बेटे को फाँस कर ब्याह रचाया – अब दो-दो बेटियों को एक साथ कलेजे पर बिठा कर मूँग दलना चाहती है हरामखोर ! कान खोल कर सुन ले, हमारे खानदान में बेटियों से वंशबेल नहीं लतरती। कुल-खानदान बेटे से चलता है, अगर बेटा नहीं जनेगी तो आमरण अनशन पर बैठ कर बेटे का दूसरा ब्याह रचाऊँगी, नमक डालकर तेरी कोख खँगाल दूँगी – तू देखती रहना।’’

वह भीतर तक हिल गई थी। भय, आतंक, आशंका का एक वजनी पत्थर उसके कलेजे पर बैठ गया था। उसकी चेतना विस्मृति की किसी अंधी सुरंग में भटकने लगी थी।

‘‘दाई सौरी घर से निकल कर कहती है – बेटी है, रखना है ?’’ पुरूष निर्णय देता है – ‘‘नमक चटाकर या अफीम का घोल पिलाकर खत्म कर दे।’’ दाई उल्टे पैर लौट जाती है। प्रसूति गृह में बहू की हाहाकार करती आँखों पर अपनी हथेली रखती हुई कहती है – ‘’इस खानदान में स्त्रियाँ वारिश के लिए बार-बार गर्भ धारण करती हैं – बेटियाँ जनती हैं और अपनी आँखों के सामने उनका कारुणिक अंत देखती हैं। यह कोई पहली अनहोनी घटना नहीं है बहूरानी, ठकुराइन हो – कलेजा मजबूत करो।’‘

विभा की पूरी देह झुरझुरी से भर गई थी। उपन्यास में पढ़े ठाकुर घराने की यह क्रूर वारदात क्या उसके जीवन का भी एक अध्याय बनने वाली है ? उसने दोनों हाथों से कसकर अपनी कोख को थाम लिया था। तुम्हारा घर कसाईखाना नहीं हो सकता राजीव और न तुम वह ठाकुर, लेकिन तुम्हारी माँ ?

 

सासु माँ को लेकर विभा का मन एक घने कुहासे से भरता जा रहा था। उसे आश्चर्य होता, जो स्त्री घर के भीतर घोर पुरातन और अमानवीय दीखती हैं – बाहर की दुनिया में वही कुछ और कैसे हो जाती हैं ? उस दिन डॉक्टर आंटी के क्लिनिक में वे किस भाषा में बोल रही थीं ?

‘‘बेटियाँ हैं तो क्या ! अपना भाग्य लेकर आ रही हैं – अपनी नियति बदलेंगी, क्या यह उनकी अपनी सोच थी ?’’

सिटी केबल पर ‘महिला दिवस’ के आयोजन में नारी सशक्तीकरण पर जोरदार भाषण देती उसकी सासु माँ के आह्वानी स्वर उसकी चेतना को झकझोरने लगे थे – ‘‘क्रूर पितृसत्तात्मक  विधान से टकराने के लिए आज स्त्री को आत्मदाह करने की जगह एकजुट होकर सामाज-दाह करने की जरूरत है तभी इस देश के सामाजिक, सांस्कृतिक संरचना में परिवर्त्तन हो सकता है।’’

तालियों की गड़गड़ाहट से गूँजते सभागार में विसंगतियों से भरे इस छद्म चेहरे को विभा आश्चर्य से देख रही थी। यह क्रांतिकारी विचार क्या सचमुच उनके हैं या वे अनुवाद की भाषा बोल रही हैं।

विभा घंटों सोचती रहती, यह कैसा मुखौटा है, चेहरे के ऊपर दूसरा चेहरा ? क्या ये दोनों चेहरे आपस में टकराते नहीं ? इनमें कोई तर्क-वितर्क नहीं होता ? विभा उनके चरित्र में दो परस्पर विरोधी प्रवृतियों की ऐसी पराकाष्ठा को देखकर दंग रहती।

सासु माँ के विद्रुप चेहरे के कई कोण ऐसे थे जो उसके अचेतन में बसे कई चेहरों से मेल खाते थे। विभिन्न कोणों में विभक्त वह चेहरा उसके भीतर माँ, चाची, फुआ, मौसी, मामी में एकरूप होते हुए समाज के और भी कई-कई चेहरों में एकाकार हो जाता था। उस समय निषेध और वर्जनाओं के कितने स्वर एक साथ उसके कानों में गूँजने लगते –

‘‘सुना तुमने ! सिंधुबाला को फिर बेटी हुई – छठी बेटी।’’

‘‘हे भगवान ! गत पर गत खाली बेटी जनमाये जा रही है करमजली।’’

‘‘वह क्या करे – घर वाले को हर हाल में एक बेटा चाहिए।’’

‘‘हाय ! बेचारी सिंधुबाला -’’

‘‘देखो तो जरा ! ऊँट की तरह गर्दन उठाये किस तरह चल रही है बेशरम। ऊँची एड़ी की सेन्डिल पहन,  छाती पर बमगोले रख ऐसे चलती हैं ये लड़कियाँ जैसे किला फतह करने जा रही हों।’’

‘‘खीं – खीं – खीं -’’

‘‘जानती हो, पाठक जी की विधवा बहू क्या गुल खिला रही है इन दिनों ?’’

‘‘हाँ-हाँ, पता है — देवर पर भाभी सवार वाला बहरुपिये का खेल चल रहा है उनके घर में।’’

‘‘देवर पर भाभी सवार ?’’

‘‘हाँ भाई, हाँ देवर पर भाभी सवार।’’

‘‘खीं – खीं – खीं, ही – ही – ही, हें – हें – हें’’

ऐसी बातों पर सम्मिलित हँसी का कोरस कितना आह्लादकारी होता है –

विभा को अपनी स्मृतियों के गलियारे में आज भी रुक्मिणी चाची, अहिल्या फुआ, मंजू मौसी, शीलादी की चटकारे लेकर सामाजिक नैतिकता और विद्रूपता की बखिया उघेड़ती इस तरह की हँसी की अनुगूँज सुनाई देती है और विभा को लगता है, सासु माँ की तरह ही ऐसी हँसी का चेहरा भी दोहरा है। ऐसे चेहरों की खुफिया हँसी से न जाने क्यों उसे बहुत डर लगता है। बघनखे पहनकर गुदगुदी लगाने वाले इन चेहरों से वह पूछना चाहती है कि ये अपने पक्ष में हैं या विपक्ष में ?

विभा के भीतर यह प्रश्न हमेशा ध्वनित होता है, लेकिन गेंद की तरह अपने ही भीतर द्वन्द की दीवारों से टकराता और लौटता हुआ। वह कभी पूछ नहीं पाती इन चेहरों से कि ऐसी कुरूप और वीभत्स हँसी वे क्यों हँसते हैं – किस पर हँसते हैं ?

उस दिन भी नहीं पूछ पाई थी, जिस दिन आदित्य मामू की बेटी नंदिनी के मरने के बाद प्रामाणिक तथ्यों के साथ उसकी मार्मिक कथा का पोस्टमार्टम पूरे मुहल्ले की स्त्रियाँ कर रही थीं —

‘‘मैं तो पहले से जानती थी नंदिनी का पति नामर्द है।’’

गीता मामी फुसफुसाती हुई शीला दी के कानों में कह रही थी – ‘‘उसकी जांघों के बीच मरी हुई बिछौती डालकर उससे कहता था – इसमें जान डाल नहीं तो तुझे जान से मार डालूँगा।’’

उधर सास कहती थी – बांझिन, मैं अपने बेटे का दूसरा ब्याह रचाऊँगी, मुझे वंश चाहिए, इस दो तरफा रस्साकसी से भागकर ही वह मायके आई थी और माँ से कहा था कि अब वह हरगिज ससुराल नहीं जायेगी।’’

‘‘हिजड़े के साथ रहकर मैं उन्हें बेटा कहाँ से दूँ माँ, बोलो ?उस नरक में अब मैं कभी नहीं लौटूंगी – हरगिज नहीं।’’ उसने रो-रो की अपनी माँ से कहा था।

‘‘लेकिन मेरी जेठानी को तो जानती ही हो, – भृकुटि तान ली थी, ससुराल नहीं जायेगी तो क्या जीवन भर मायके की ड्योढ़ी अगोरेगी ?भाई-भावजों की चाकरी करेगी ? माँ-बाप की कब्र खोदेगी ? अच्छा बुरा जो भी है अब वही तुम्हारा घर है। तुझे जाना ही होगा नंदिनी।’’

दूसरे दिन उसे जबरदस्ती ससुराल भेज दिया गया था। फिर गैस से आग लगने और मरने की खबर के साथ एक सनसनाती खबर यह भी आई थी कि नंदिनी गर्भवती थी।

‘‘पता नहीं ससुर-जेठ किसके साथ मुँह काला किया था उसने।’’

कथा का पोस्टमार्टम करती मुहल्ले की स्त्रियों ने घृणा से मुहँ सिकोड़ते हुए एक स्वर से कहा था –      ‘‘छिः-छिः जवानी की आग भी कहीं इस तरह लगती है देह में।’’

‘‘खीं-खीं-खीं – फिर वही कोरस हँसी जो गर्म शीशे सी पिघलती विभा के कानों को सुन्न कर गई थी।

लेकिन उस दिन भी प्रतिरोध का कोई स्वर उसके मुँह से नहीं निकला था। पथराये होठों पर एक मुर्दा चुप्पी व्याप्त थी पर मरी हुई नंदिनी के शब्द उसके आस-पास जीवित थे – ‘‘विभा, तुमने साहस दिखाया – राजीव को पा गई, मैं डरपोक निकली रमण को खो दिया, लेकिन इस बार माँ ने मुझे धक्के देकर घर से निकाला है। मैं अपने आप को किस तरह सहेजूँ – कैसे स्थिर करूँ ? – विवाह के बाद रमण से मिलने आज मैं पहली बार जा रही हूँ – उस नरक में जीने के लिए मुझे एकबार यह दुःसाहस करना ही होगा। मेरे संकल्प का एक कल्प क्षण, जो जीवन से होड़ लेने जा रहा है – तुम उसके लिए दुआ करना।’’

लेकिन मैंने उसके लिए कोई दुआ नहीं की – उसकी अदम्य जिजीविषा का वह चरम क्षण जो नियति के विरूद्ध अपने साहसिक प्रेम का सत्य लेकर समय और समाज के कटघरे में खड़ा हुआ था –  उसके पक्ष में एक शब्द भी नहीं कहा, यह जानते हुए भी कि नंदिनी ने कोई पाप नहीं किया – मैं उसके पाप की कथा में शरीक रही  – क्यों, आखिर क्यों ? क्या ऐसी तटस्थता, ऐसी निरपेक्षता औरत होने की नियति से पैदा होता है ? विभा के भीतर एक हुक सी उठी।

नंदिनी की दर्दनाक याद विभा की चेतना को आँधी की तरह झकझोर गई थी। एक दुधमुँहे उजास की प्रतीक्षा करती नंदिनी सामाजिक मर्यादा की भेंट चढ़ा दी गई और एक दुधमुँहे उजास की प्रतीक्षा करती आज मैं भी अंधेरे का सफर तय कर रही हूँ। इस सफर में आज राजीव भी मेरे साथ नहीं – ना आगे, ना पीछे – फिर इस अंधी सुरंग में मैं अपने को क्यों दफन कर रही हूँ ? निष्क्रिय चेतना से आक्रांत मेरा व्यक्तित्व इतना निरीह क्यों हो गया है ? क्यों नहीं मैं विरोध करती, चिखती-चिल्लाती हूँ ? एक संधि-रेखा पर अपने वजूद की तलाश करती क्या मैं तिल तिल कर अपने को होम नहीं कर रही ?

विभा के भीतर ऐसे कई सवाल असहमति के धरातल पर फन काढ़कर उठ खड़े होते। वह राजीव से इनका समाधान चाहती, परन्तु वहाँ अटूट नीरवता और निस्संग जड़ता देख, उसे अपनी उपेक्षा का बोध भीतर तक हिला देता। फिर वह उससे एक शब्द भी नहीं कह पाती, लेकिन उसका भीतर हाहाकार करता रहता – ‘‘क्या पिंजरे में बंद तोते की जिंदगी जीने के लिए मैंने तुमसे प्यार किया था राजीव ? क्या मैंने पत्नी की एक बासी देह-भर होने के लिए तुमसे शादी रचाई थी राजीव ? तुम्हारी उपेक्षा और वितृष्णा से पथराई जा रही है मेरी कोख की हरीतिमा। क्या यह तुम्हारे प्रेम का हिंसक रूप नहीं है राजीव ?’’

मैं दो बेटियों की माँ बनने वाली हूँ – तिवारी खानदान के भविष्य पर एक प्रश्नचिन्ह बनकर खड़ी हो गई हूँ – कहीं यह तो तुम्हारी तटस्थता और उदासीनता का कारण नहीं ? उसके भीतर दर्द की एक तीखी लहर उठती। नहीं हरगिज नहीं – पुरूष सत्ता के पोषक तुम नहीं हो सकते। तुमने मुझे बहुत चाहा है, फिर तुम्हारा प्रेम मेरे लिए आतंक क्यों हो गया है राजीव ?

प्रेम के मोहभंग को स्वीकारना विभा के लिए बहुत कठिन था। लेकिन अपने को समझाना उसके लिए उससे भी कठिन था।

वह एक जटिल मनःस्थिति में थी – जिस प्रेम को ‘क्रांतिबीज’ कहकर राजीव सामाजिक ढाँचे में परिवर्त्तन की बातें करता था, वह अग्निबीज बुझ कैसे गया ? और अगर वह सुलग रहा है तो कहाँ है वह आग – वह ताप – वह दाह ?

वह बेचैन होकर देख रही थी – रूढ़ियों और वर्जनाओं के इतने सारे गढ़ और मठ के भीतर सभी अपने ही जाने-पहचाने चेहरे हैं। सब कितने क्रूर और अमानवीय ? किससे शिकायत करे, किससे कहे वह ? आज कितना कुछ हो रहा है चारों तरफ – नारी मुक्ति आंदोलन, स्त्री-विमर्श, अस्तित्व की घोषणा में देह मुक्ति का वितंडावाद, लेकिन ऐसे गढ़ और मठ की एक भी ईंट क्यों नहीं खिसक रही है।

विभा ने प्रेम विवाह करके एक जगह से ईंट खिसकाई भी तो दूसरी जगह उससे ऊँची चाहरदीवारियों के भीतर कैद हो गई। इन दीवारों से टकराकर वह न जाने कितनी बार सागर की उत्ताल लहरों सी वापस लौटी है – फिर दौड़ी है – फिर लौटी है और अंततः लहरों के आवर्त्त में एक भँवर बनकर रह गई है – भँवर के इस वृत में उसकी कोख की जुड़वा बेटियाँ भी गोल-गोल घूमती लहरों के थपेड़े खाती बेदम हो रही हैं।

इस भँवर में कौन सुनेगा उनकी गूँगी चीख, किसे दिखाई देगा यह साईलेन्ट मर्डर ?

वह उदभ्रांत सी जोर-जोर से चीखती घर की चौखट से टकरा कर लहूलुहान हो गई थी।

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परिचय : डॉ पूनम सिंह की कहानियों और कविताओं की कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैँ. इनके साहित्यिक अवदानों के लिये बिहार सरकार का महादेवी वर्मा पुरस्कार सहित अन्य सम्मान मिल चुका है.

संपर्क – गन्नीपुर, मुजफ्फरपुर

 

 

 

 

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