विशिष्ट कहानीकार :: रूबी भूषण

अनसुलझी व्यथा

  • रूबी भूषण

नारी को हमेशा मजबूत पक्ष के रूप में दर्शाया जाता रहा है या फिर बिल्कुल दबी-कुचली दुःख से पीड़ित समाज द्वारा प्रताड़ित। साथ ही उन्हें कई नामों से भी सुशोभित किया जाता है। सुलोचना, मधुरभाषिणी, विमला, अबला इत्यादि।
इस घटना का आरम्भ करीबन दस वर्ष पूर्व हुआ था जब मेरे घर के पड़ोस में एक बंगाली परिवार आकर बसा था। ‘मुखर्जी फैमिली’ घर में सबसे सीनियर मुखर्जी जो करीब पचहत्तर वर्ष के होंगे, उनकी पत्नी वह भी पैंसठ पार के आसपास थी। दो पुत्रियाँ और एक पुत्र। एक पुत्री को देखकर लगता था कि वह शादीशुदा है और एक कुंवारी। पुत्र का क्या नाम था, ठीक से न मालूम लेकिन सभी उसे खोखन-खोखन कहकर पुकारते थे। पड़ोस में कोई आकर रहे और पड़ोसियों को उनके बारे में जानने की पेट में ऐंठन न हो ये तो हो हीं नहीं सकता। भारतीय मध्यवर्गीय परिवार की यही तो खूबी है। अपने बारे में उतना न जानते, जितना पड़ोसियों के बारे में जानते हैं या कहिए जानने को उत्सुक रहते हैं। खैर, तो भाई यह है कि हम पूर्णतः अपने कान खुला रखते थे कि उनके घर में क्या फुसफुसाहट चल रही है वह भी सुन ले।
हमारा परिवार बंगाली परिवार से एकदम भिन्न हैं। हमारी माँ शाकाहारी जिन्हें मछली, मुर्गा, अंडा, मीट से सख्त नफ़रत थी। रोज सुबह-शाम उनके घर से आती मछली की गंध से परेशान माँ सिर पकड़े रहती और बड़बड़ाती रहती। ‘ऐसे कोई मछली खाता है, हमारा जीना दूभर हो गया है राम-राम’। खैर, जो भी हो वे लोग थे बड़े सरल, सीधे और सहिष्णु। हमारे यहाँ सत्यनारायण भगवान की कथा हुई, अब वे थे पड़ोसी, तो बुलाना ही पड़ा। कथा के बाद मुखर्जी आंटी रूक गयी और माँ से बातों की जलेबी छानने लगी। अब वह माँ की पक्की सहेली बन गई।
एक दिन पता चला कि खोखन दा की नौकरी एक ख्याति प्राप्त कम्पनी में लग गई है। अब क्या था, मुखर्जी आंटी को कोई मिल जाता तो एक ही राग अलापने लगती ‘आमर खेकोनेर ओनये एकटी शुंदोर आर सुशील बोऊ चाई’ (हमारे खोखन के लिए एक सुन्दर सुशील बहु चाहिए)।
अंततः खोज पूर्ण हुई और उनके घर में शहनाइयाँ बजने लगी। बहुभात के दिन जब मैं उनके घर पहुँची तो खोखन दा अपने विशिष्ट बंगीय परिधान, धोती, कुर्ता, और दुशाले में बड़े सुन्दर लग रहे थे। चेहरे पर गंभीरता लिए मुस्कुराहट उनके व्यक्तित्व को और निखार रही थी। पास के सिंहासन पर जब बहु पर दृष्टि पड़ी तो लगा कि साक्षात सौंदर्य की प्रतिमा विराजमान है। उनका संपूर्ण शरीर दूध की तरह धवल और त्वचा की मुलायमियत ऐसी कि लगे जैसे गुलाब के फूल से निर्मित हो। काली नागिन की तरह घुटने से नीचे तक लहराती चोटी जिसे बेली के फूलों के गजरे ने घेर रखा था। अधरों पर विराजमान लालिमा रक्तवर्णी पंखुड़ियों का भान करा रही थी। प्रत्यंचा सी भवें, भवों की कलात्मक सज्जा से विधाता की कारीगरी दृटिष्गोचर हो रही थी। ऊँची खड़ी नाक जिसकी शोभा, हीरे की लौंग और अधिक बढ़ा रही थी। सर पर सफेद और सुनहरा मुकुट, कुल मिलाकर भाभी के सौंदर्य का वर्णन करना सूर्य को दिया दिखाने जैसे था। माँ जी तो बौराई-बौराई सारे मेहमानों से मिलती फिर रही थी। उनके चेहरे पर संतोष का भाव था। सबके पास जाकर पूछती, ‘सन्ना भालों होएछे? माछ टा कैमोन? भालो तो? आरो दूटो रोशागोल्ला नाओ, दादार बीएर आयोजनए कोने ओभाब होय नि तो? नोतुन बोउध्बोउदी कैमोन लागलो? (खाना अच्छा लगा न, मछली कैसी लगी, अरे और दो रसगुल्ला लो न, दादा की शादी है, कोई कमी नहीं होनी चाहिए, खूब खाओ, ‘भाभी कैसी लगी?ष्)
हम सब बड़े प्रसन्न थे कि खोखन दा के भाग्य खुल गए। इतनी अच्छी नौकरी, इतनी अच्छी पत्नी। दो-तीन दिनों बाद बहु अपने मायके चली गई।
दस-पन्द्रह दिनों बाद खोखन दा के कमरे में, जिसकी खिड़की हमारी बाउंडरी की तरफ खुलती थी। उससे भीतर देखने पर पता चला कि रंगाई-पुताई हो रही है। एक दीवार पर बड़ा सा टी.बी. सेट लग गया है। दरवाजे और खिड़कियों पर खूबसूरत पर्दे झूल रहें हैं। एक दिन जब हमसे रहा न गया तो कंचन दीदी से पूछ लिया- ‘दीदी भाभी कब आयेगी?’
‘जल्दी ही आयेगी, तुम तो जानती ही हो पाकुड़ के जमींदार की पुत्री है। बड़े घर की बेटी है, सो खोखन उसी की स्तर का रूम सजा रहा है।
रविवार की सुबह। मैं बगीचे में पानी दे रही थी कि देखा कि मुखर्जी अंकल के गेट पर इनोवा आकर रूकी। उसमें खोखन दा अपनी नवविवाहिता के साथ उतरे। सुन्दर पत्नी के कारण उनकी गर्दन कुछ ज्यादा ही अकड़ी हुई थी। मैंने उन्हें नमस्ते की तो गर्वित आवाज में बोले ‘देखो तुम्हारी भाभी को ले आया हूँ। कभी-कभी आकर भाभी से मिल लेना, बतिया लेना।’
फिर क्या था आंटी की रसोई से आती खुशबू से, कभी मछली की आती गंध से समझ में आ जाता कि मुखर्जी एंड फैमिली के घर रौनक आ गई है।
उनकी रसोई और हमारी रसोई की खिड़कियाँ आमने-सामने थीं। आंटी पसीने से लथपथ अपनी एक हेल्पर के साथ लगी रहती, पर भाभी कभी दिखाई नहीं देती। एक दिन मेरी प्रबल इच्छा जाग उठी कि क्यों न भाभी के घर चलकर मिला जाए। उनका घर मात्र छहः फीट की दूरी पर था। बीच में तीन फीट ऊँची चारदीवारी, उमस भरी गर्मी होने के बावजूद तीन बजे मैं खोखन दा की पत्नी से मिलने चली गई।
वहाँ गई तो देखा, आंटी और मुखर्जी अंकल अपने चालीस साल पुराने शादी में मिले टेबुल फैन (जो चलता कम आवाज ज्यादा करता था) के सामने बैठकर व्यर्थ की हवा खाने का प्रयास कर रहे थे। मुझे देखकर आंटी बहुत खुश हो गई, बोलने लगी, ‘बोउदी खूब शिक्खितो आर बुद्धिमोती, तुमि ओनार काछे माझे माझे एशे बोसते तो पारो, आमी निर्बोध बोका मानुष, आमि कॉथा बोलबो, बेचारा बोऊ मानुष, शेओं एका एका निजेर घॉरे पोड़े थाकेन। तुम्हारी भाभी बहुत शिक्षित और बुद्धिमान है, तुम उसके साथ बात तो कर सकती हो। मैं बिना पढ़ी-लिखी उसके साथ क्या बात करूँ, बिचारी कमरे में अकेली पड़ी रहती है। कितनी किताबे पढ़े।
मैं भाभी के कमरे जैसे ही घुसी तो ए.सी. की ठंडी हवा से और कमरे में छिड़के परफ्यूम से ऐसा लगा जैसे किसी पहाड़ी क्षेत्र के फूलों के बाग में आ गई हूँ। भाभी पेट के बल औंधी लेटी थी, अपने दोनों पैरों को हिला रही थी। पिण्डलियों तक खुले पैर इतने चिकने, सुन्दर थे कि मैंने अपनी नजर हटा ली और हड़बड़ा कर बोली…..ष्कैसी हैं भाभी?ष्
चेहरे पर मुस्कुराहट लाते हुए बोली, ‘ठीक हूँ बैठिए।’ मैं भला अपनी माँ की पक्की बेटी तड़ से दूसरा प्रश्न जड़ दिया… ‘यहाँ मन लग रहा है न भाभी?’ अचानक उनकी भौंहें तन गई। शादी के दिन जितनी अच्छी लग रही थी आज उतनी ही वीभत्स लग रही थी।
आवाज में कठोरता आ गई। ‘बोली-डू यू नो आई एम फीलिंग सफोकेटेड हियर। ऐसा लगता है मैं जाहिल गंवारों से घिर गई हूँ। खाने और फालतू रिश्तेदारों की बात छोड़कर इनलोगों के पास कोई दूसरा काम नहीं है।ष्
अब मैं घबरा गई और बात बदलते हुए बोली, ‘आपकी साड़ी बहुत सुन्दर है। आप पर फब रही है। लो भइया ये मैंने क्या कह दिया, उनका स्वर और ज्यादा तीखा हो गया।
‘आई डोंट लाईक साड़ी। मुझे जीन्स, टॉप पहनना ही अच्छा लगता है। घर में मैं हॉट पैंट, फ्रॉक बगैरह पहना करती थी।’
ओल्ड मेंटलिटी की माँ जी कहती है कि कुछ दिन साड़ी पहन लो। ये बाबा इतना खाँसता है कि यक उल्टी आने लगती है। ओ गॉड हेल्प मी……प्लीज हेल्प मी।ष्
मैं स्तब्ध रह गई इतनी घृणा ससुराल वालों के प्रति और वो भी उन लोगों के लिए जो सौदामिनी को खुश रखने की सभी कोशिश करते हैं। पहली बार मुझसे मिली और इतनी कड़वी बातें।
भाभी को बाहर आने-जाने में दिक्कत होती, इसीलिए खोखन दा ने एक नई बी.एम.डब्लू. कार खरीद ली। नित्य संध्या भाभी सज-धज कर घूमने निकलती। हम सब मुहल्ले की लड़कियाँ, औरते उनकी सुन्दरता और श्रृंगार को देखने के लिए खड़ी रहती।
हाँ, इस बीच, भाभी की आवाज घर से बाहर आने लगी थी। बाहर आती आवाजों से उनके झगड़े का पता चलता था। फिर तो नित्य रात भाभी के स्वर और तीव्र ही होते चले गए। हाँ, एक और आवाज दादा की आती थी ‘एकटू आस्ते, बाईरे माँ बाबा आछेन, पोड़शी स आछेन, (धीरे बोलो बाहर माँ है, बाबा है, पड़ोसी है, सुनेंगे तो क्या कहेंगे)। पर दादा की इस बात का वो अंग्रेजी-हिन्दी मिश्रित बंगाली में न जाने क्या-क्या चिल्ला कर जवाब देती।
आज मोहनबागान जीती है तो अगर हम मोबाईल पर खुशी मना रहे हैं तो तुम्हें क्या? अपने कमरे मे तेज आवाज में गाना सुनती हूँ तो तुम्हारे बाबा को तकलीफ क्यों होती है? खोखन दा की आवाज आई-ऐडिके मानुष खेते पाछे न। एक तरफ भूख से लोग मर रहे हैं, क्राइम बढ़ रहा है और मोहनबगान की जीत पर लाखों खर्च किये जा रहे है और कुछ लोगों को मस्ती सूझ रही हैं। येई शौब पागला मो होएचे।ष्
इधर मुखर्जी के घर में तीस-बत्तीस वर्ष का युवक अक्सर दिखाई देने लगा था। छत पर खड़ा, मुहल्ले की आती-जाती लड़कियों को ताकता रहता। पता चला कि वह भाभी का कोई रिश्तेदार है।
खोखन दा के घर नौकरों की संख्या बढ़ती जा रही थी। आंटी का अब रसोईघर में, भाभी के कमरे में जाना वर्जित हो गया था। एक दिन मेरी माँ को दही जमाना था। बोली बेटा, मुखर्जी आंटी के यहाँ से जोरन ले आ। मैं भी एक छलांग फांदकर आंटी के घर पहुँच गई।
‘आंटी-आंटी आवाज देने के बाद कोई उत्तर नहीं मिला तो मैं धड़ धड़ाती हुई भाभी के कमरे में घुस गई। वहाँ भाभी और तथा कथित रिश्तेदार….मेरी जुबान तालू से सट गई। मेरी टाँगे लड़खड़ाने लगी और लगा कि मेरी शरीर का सारा लहू जमता जा रहा है। पर उस निर्लज्ज के चेहरे पर कोई लज्जा का भाव दिखाई नहीं दिया। मैंने अपनी सारी शक्ति बटोर कर लड़खड़ाती आवाज मे कहा-
‘भाभी, थोड़ा दही चाहिए था।ष्
पर वो बड़ी ही निर्लज्जता से बोली, ‘मीट माई फ्रेंड रजत। रजत और मैं एक ही कॉलेज में पढ़ते हैं।ष्
मुझे रजत एक नम्बर का छँटा हुआ लगा। फिर सौदामिनी ने कहा ‘तुम्हारी आंटी नहीं है, जाओं, उसी से दही ले लो। रजत और मैं कम्पीटिशन की तैयारी कर रहे हैं। यू मे गो नाउ।ष्
इतना तिरस्कार! मैं बिना दही लिए चली आई। मैंने उसी दिन कसम खाई कि मैं पुनः खोखन दा के घर नहीं जाऊँगी।
इस बीच मेरा विवाह हो गया और मैं अपने पति के साथ धनबाद चली आई, जहाँ वो कार्यरत थे। बीच-बीच मे माँ के जरिए सारा विवरण मिलता रहता कि भाभी ने क्या-क्या नया गुल खिलाया।
गर्मी में मैं अपने मायके आई हुई थी। पड़ोस से खोखन दा की आवाज ने हम दोनों को उठा दिया।-
‘हाथ जोड़ कोरी घरी छोड़े जेओं न। शुधो कोथा बढ़ाईयों ने ऐटो छोटासे बेपार के बॉरों कौरचो केनो। छोटी-छोटी बात को मत बढ़ाओ।’ सौदामिनी सुबह चली गई। खोखन दा टूट गये थे। छह वर्षों तक के सम्बन्ध को वो एक मिनट में तोड़़कर चली गई। खोखन दा, जो कभी शादी-ब्याह या पार्टी में ही पीते थे, अब नियमित शराब पीने लगे थे।
कुछ दिनों बाद मैं पुनः जब यहाँ आई तो देखा खोखन दा अपनी कार को खूब रगड़-रगड़ कर साफ कर रहे थे। कार झकझका रही थी, सफेद कार ऊपर से सफेद ही सीट कवर, परदे और बीच में लटक सफेद गुड़िया।
मैंने कहा, ‘दादा आप कार कितनी अच्छी तरह से चमका कर प्यार से रखते हैं।’ मेरी बात सुनते ही उनके चेहरे पर विषाद के बादल घिर आये थे। बोले, ‘तुम्हारी बोऊदी को तो प्यार के बाद भी नहीं रख सका। छोड़ कर चली गई। अब कार को पूरे प्यार से रखता हूँ। यह मुझे छोड़कर तो नहीं जायेगी न….।ष्
शाम को जब अँधेरा होने लगता तो वे बरामदे में बैठे अपने कलंकित जीवन के अँधेरे क्षणों को याद करते रहते। उनके चेहरे को देखने से ही लगता था कि उनकी मनःस्थिति कैसी है? मैं धनबाद वापस चली आई थी, पर कभी-कभी मै, खोखन दा को याद करके बेहद दुःखी हो जाया करती थी।
एक रोज जब मेेरे पति ऑफिस से लौटे तो बोले, ‘आज का पेपर पढ़ा?’ मैंने कहा नहीं।’ तो पहले पढ़ो तीसरे पृष्ठ पर नीचे की ओर एक न्यूज है। मैंने जल्दी-जल्दी अखबार निकाला और पढ़ने बैठ गई। लिखा था। दिल्ली के एक होटल में एक व्यक्ति की पंखे से लटकी लाश मिली है। व्यक्ति का नाम शुभेन्दु मुखर्जी था जो पटना की एक कम्पनी में मैनेजर के पद पर कार्यरत था। सुबह जब कम्पनी की कार उन्हें लेने होटल गयी और ड्राईवर के काफी खटखटाने के बाद भी दरवाजा नहीं खुला। पुलिस और होटल के मालिक ने मिलकर दरवाजे का लॉक तुड़वाया, जहाँ पंखे से उनकी लाश टंगी थी। पुलिस के अनुसार यह आत्महत्या का केस बनता है, पर कुछ लोगों का ध्यान खुली खिड़की की ओर भी जाता है। पुलिस छानबीन कर रही है।
मैं स्तब्ध रह गई। माँ को पटना फोन किया…..माँ, क्या शुभेन्दु….. खोखन दा….? उनकी हाँ ने मुझे हिला दिया। मैं घर जाने की जिद्द करने लगी और पटना आ गई।
मैं शाम को खोखन दा के घर गई तो देखा एक अकेले खोखन दा ही समाप्त नहीं हुए थे बल्कि उनके साथ मुखर्जी एंड फैमिली भी समाप्त हो चुकी थी। ऐसा कातर क्रन्दन सुनकर शायद यमराज भी रो दिए होंगे।
मैंने दीदी से पूछा, ‘दीदी ये सब कैसे और क्यों हो गया?ष्
दीदी ने कहना शुरू किया, सौदामिनी के घर छोड़ने के बाद खोखन उस समय बहुत टूट गया जब से उसे यह पता चला कि उसके बच्चे को भी सौदामिनी ने अपने कोख में रहने नहीं दिया। उसे अपना जीवन व्यर्थ लगने लगा था। वह बोली अपनी पत्नी के लिए आकाश से चाँद-सितारे तोड़ लाने को व्याकुल रहने वाला, तरह-तरह के कपड़े, साड़ियाँ, ड्रेसेज ला कर सौदामिनी के पास भरने वाला, शहर के एक भी होटल नहीं बचे थे, जहाँ उसे खिलाया न हो। किसी भी चीज के लिए मुँह खोलने की बात तो छोड़ो, आँख उठाकर भी देखती तो खोखन दा के निर्मल प्रेम का जादुई अलाउद्दीन चिराग झट से उसके लिए हाजिर कर देता था। छोटी कार में बैठने से उसकी मान-हानि होती थी। इसके लिए खोखन को हमेशा ताने देती कि ‘एक अच्छी कार लाकर नहीं दे सकते तो मुझ जैसे लड़की से शादी करने की जरूरत ही क्या थी? इस बार पापा से कार मंगवा लेंगे। तुम्हारे पास तो कोई जीवन नहीं हैं न पार्टी, न पिकनिक, न मॉल और न ही तुम रोमांस ही करना जानते हो। तुमसे अच्छा तो रजत है। क्या जीवन था, कलकत्ता में मेरा। सुबह देर से उठना, अपने मन के अनुसार-कॉलेज जाना, शाम को रजत के साथ घूमना, पार्टी, पिकनिक अहा…. क्या शानदार जीवन था। तुम मेरी किस्मत का एक काला धब्बा हो।ष्
खोखन से सौदामिनी को तनिक भी प्यार नहीं था। एक दिन जब खोखन कार्यालय से दोपहर में लौटा तो उसने सौदामिनी को रजत के साथ देख लिया।
मेरे मन से पुरानी बात चलचित्र की भाँति घूमने लगी थी। ‘यू मे गो नाउ।’
‘कहाँ खो गई?’ दीदी ने पूछा।
कहीं नहीं। दीदी आप आगे बताएँ…..
खोखन ने सौदामिन ही को बहुत समझाने का प्रयत्न किया कि ‘सौदामिनी, तुमने क्यों किया ऐसा, मैं यह नहीं पूछूँगा, पर अब रजत इस घर में कभी नहीं आयेगा, न ही तुम कभी उससे मिलने की कोशिश करोगी। जो बीत गया सो बीत गया। अब तुम और मैं एक नई जिन्दगी की शुरूआत करेंगे।’ वो तो सिंहनी के समान विफर गई और घर छोड़ कर चली गई।
तुम मुझे छोड़कर मत जाओ, उस रात की बात मुझे पुनः याद आने लगी थी।
दीदी ने बताते हुए कहा दो माह बाद मैं और खोखन पाकुड़ भी गये, ताकि उसे समझा कर वापस ला सके। उसके माता-पिता बहुत शर्मिंदा थे, पर उस पत्थर दिल पर किसी के कुछ समझाने का असर नहीं हुआ। वो तो चिकना घड़ा बन चुकी थी। खोखन और मैं वापस अपना-सा मुँह लेकर लौट आये थे।
कोमल दी ने आगे कहना शुरू किया…. उसके बाद रजत…. हाँ रजत ही तो नाम था, तलाक के पेपर लेकर आया, सौदामिनी ने भेजा था। खोखन नहीं चाहता था कि सौदामिनी रजत से शादी करे, क्योंकि उसे लगता था कि रजत को सौदामिनी से ज्यादा उसकी जमीन, जायदाद की चिन्ता है। रजत यह अच्छी तरह से जानता था कि सौदामिनी अपने जमींदार पिता की इकलौती संतान है और उससे विवाह करके उसे फायदा ही होगा। इसी कारण खोखन तलाक देने को तैयार नहीं हो रहा था। रजत और खोखन के बीच विवाद बहुत बढ़ गया। रजत खोखन से खार खाये बैठा था क्योंकि खोखन ही रजत और सौदामिनी के बीच की दीवार बन गया था। सौदामिनी भी खोखन से छुटकारा पाना चाहती थी।
एक रात पहले खोखन मेरे घर कोलकाता आया था। मेरी गोद में सिर रखकर बहुत रोया था। क्या बताऊँ तुमको, कलेजा मुँह को आता है। बोला, ‘दीदी क्या भूल हो गई है मुझसे। मैंने तलाक के पेपर पर साईन नहीं किये हैं। दीदी, शायद सौदामिनी को कभी मेरी जरूरत पड़े। माँ काली से प्रार्थना करता हूँ कि सौदामिनी जहाँ रहे खूब खुश रहे। मैं कल रात दिल्ली जा रहा हूँ, अगर ज्यादा दिन लग जाए तो माँ बाबूजी को अपने पास बुला लेना।’
वह दिल्ली चला गया और वहीं सब शेष हो गया।
होटल के कमरे की खिड़की क्यों खुली थी? पुलिस अबतक पता नहीं लगा पाई। दुनिया के मेले से एक नाम और मिट गया या मिटा दिया गया। यह अनसुलझी गुत्थी थी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Previous post समाज व साहित्य को नवीन दिशा में ले जाती गुलाबी गलियाँ :: विनोद शर्मा ‘सागर’
Next post लघुकथा :: सुभाषिणी कुमार