विशिष्ट कहानीकार :: अमित कुमार चौबे

खौफ़ हम दोनों के दरमियाँ

  • अमित कुमार चौबे

एक बनाया गया रिश्ता। इससे पहले कभी एक दूसरे को देखा भी नहीं था।अब सारी जिंदगी एक दूसरे के साथ रहना है। इससे पहले हम अपरिचित थे, हमारा कोई परिचय नहीं था। मन के भवरों का धीरे-धीरे होने वाला स्पर्श, फिर नोकझोंक, झगड़े, रिश्तों में दरारें उसके बाद काफी दिनों तक बोलचाल बंद।कभी जिद, कभी अहम का भाव कितना कुछ जिंदगी ने कितने कम समय में मुझे दिखा दिया था। माँ कहती थी कि वैवाहिक जीवन को परिपक्व होने में समय लगता है।धीरे-धीरे जीवन में स्वाद और मिठास आती है। ठीक उसी तरह जिस तरह अचार जैसे-जैसे पुराना होता जाता है, उसका स्वाद बढ़ता जाता है! उम्र बढ़ती जाती है, एक दूसरे पर अधिक आश्रित होते जाते हैं, एक दूसरे के बगैर खालीपन महसूस होने लगता है। वैवाहिक जीवन इसी का नाम है, जिसमें लड़की को ही समझौता करना पड़ता है। इन सब से परे मन का एक हिस्सा डर जाता है।मन में एक भय का निर्माण होने लगता है- “ये चले गए तो मैं कैसे जीऊँगी…?”अपने मन में घुमड़ते इन सवालों के बीच जैसे, खुद का स्वतंत्र अस्तित्वभूल गयी हूँ।कैसा अनोखा रिश्ता है यह भी?इस रिश्ते में कभी जिंदगी उतार तो कभी चढ़ाव पर होती है। दो साल चले गए, इन दो सालों में मेरी अपनी अभिव्यक्ति न जाने कहाँ चली गयी। बस साथ रह गयी है तो रोज़ की खिटपिट। कहते हैं कि अगर रिश्तों में मिठास न हो तो वह कड़वा लगने लगता है। कुछ ऐसा ही मेरे इस छोटी सी कुटिया के साथ हो रहा है। कितना खालीपन महसूस किया है मैंने खुद को पिछले एक साल से, अपनी अपरिचित शादी को बचाने का कितना प्रयास कर रही हूं मैं, ओह! काश उस दिन बाबा ने बात नहीं छेड़ी होती तो कभी ऐसी जिंदगी देखने को नहीं मिलती। उस समय को याद करके आज भी मेने मन में कुतूहल चलता है। कितने हसीन दिन थे। सारी जिंदगी को समेट लेना चाहती थी मैं। मग़र आज जिंदगी ऐसी होगी अगर यह मालूम होता तो खुद को कब का मुक्त कर दिया होता…..इस शादी से।सोचती हूँ अभी भी देर नहीं हुई है। इस नर्क से निकल जाऊं। लेकिन निवेदिता मैम का वो वाक्य आज भी याद है।“बेटी जिंदगी में रिश्तों को लेकर जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए” यही वह कथन है जो इस रिश्ते की जमापूंजी है और इसे ही मैं सहेज रही हूं। नेहा इसी मेंकहीं खोयी थी कि उसे तेज़दहाड़ती हुई आवाजसुनाई पड़ी…

“नेहा नेहा नेहा कहाँ मर गयी…”

“आयी…”

“कहाँ मर गयी थी”

“कुछ…कुछ नहीं मैं बस यूं ही…”

“पागल है क्या?यूँ ही क्या मतलब है…”

“बताइए आपको क्या चाहिए बताइए…”

“दे क्या सकती हो? जब से आई हो जीवन,नर्क बना दिया है”

“आपको तो हर वक्त लड़ना ही होता है…”

“बस करो नहीं तो हाथ उठ जाएगा मेरा…”

“इसमें कोई नयी बात नहीं है…नाश्ता कर लीजिए”

“करो तुम नाश्ता मुझे कुछ रुपये दे दो”

“क्यों? क्या काम है?मेरे पास फिजूलखर्ची के लिए पैसे नहीं है”

“दे रही हो कि नहीं…?”

“एकदम नहीं…”

“हवा में उठा हुआ हाथ…माहौल एकदम से शांत”

दरवाजा बंद होने की आवाज के साथ पूरा घर थर्रा उठा। धड़ाम से नेहा फर्श पर गिर पड़ी। उसकी आँखों से समंदर की लहरें किनारे पर आकार दम तोड़ने लगीं।

 

सोफ़े पर बैठा एक आदमी अखबार के पन्ने पलट रहा था। एक 25 वर्षीय लड़की ने उसे आकार गले लगते हुए कहा कि “बाबा मुझे एक नौकरी मिल गयी है” जिस गर्मजोशी से उसने बताया,उस आदमी ने बड़े ही उत्सुकता के साथ पूछा… “कहाँ पर बेटी…?”

उसके बाद लड़की ने जवाब दिया कि “आज कैंपस में कुछ कंपनी वाले आये थे। एक मल्टिनैशनल कंपनी में अकाउंटेंट की जॉब मिली है” यह कहते हुए वह बाथरूम की तरफ चली गई। अखबार पढ़ने वाले आदमी ने चेहरे पर खिले हुए खुशी के भाव से कहा “अच्छा बेटी…” इतना कहने के बाद फिर उसने अखबार में नजरें गड़ा लीं। बाथरूम से निकलते हुए लड़की ने कहा कि “बाबा भैया और माँ कहाँ है?’

अखबार से नजरें हटाते हुए उसने कहा कि “बेटी वो दोनों बाजार गए हैं…काफी देर हो चुकी है…अभी तक लौटे नहीं”

लड़की “आते ही होंगे…आपके लिए चाय बना दूँ?”

‘हाँ, चाय एक कप बना लो और मेरे पास आकर बैठो,मुझे तुम से कुछ जरूरी बात करनी है’

“जी बाबा” लड़की ने हामी भरी।

चाय बन चुकी थी। दोनों साथ एक ही सोफ़े पर बैठ गए…चेहरे पर सहज भाव के साथ लड़की ने मीठी आवाज में पूछा

“बाबा आप क्या कहने वाले थे?”

चाय की चुस्कियों के साथ आदमी ने कहा “बेटी देखो अब तुम्हारी नौकरी भी लग गयी है…यह बड़े हर्ष की बात है। दरअसल शर्मा जी कह रहे थे कि उनकी जानकारी में एक अच्छा रिश्ता है। मैं सोच रहा था तुम्हारी राय ले लूँ। रिश्ता अच्छा है हाथ से निकला जायेगा”

चाय की एक घूंट पीने के बाद लड़की ने कहा कि “बाबा इतनी जल्दी क्या है? क्या इसकी अभी आवश्यकता है?”

बड़े ही अदब के साथ उस आदमी ने कहा “जल्दी नहीं है बेटी बस जीते जी तेरा घर बसना देखना चाहता हूँ। बीमारियों का घर हूँ…जाने किस दिन दिये तले का अंधेरा पूरे घर में फैल जाए”

उस आदमी की बात सुनकर हामी भरते हुए लड़की ने कहा कि “ठीक है बाबा जैसी आपकी मर्ज़ी”

उसके बाद दोनों ख़मोशी से चाय पीने लगे। चाय खत्म होने के बाद उस आदमी ने कहा कि “बेटी जरा डायरी दे देना”

नेहा की शादी कुछ ही दिनों में हो गई। अखबार वाला आदमी अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो गया। वह कोई और नहीं बल्कि उस लड़की का पिता था जो समाज के बनाए नियमों में बंधा हुआ, एक ऐसा आदमी था जो किसी तरह इस ज़िम्मेदारी से मुक्त होना चाहता था।

……………

घड़ी की टन-टन की आवाज के साथ नेहा नींद से जगी। यह अलार्म की आवाज थी। घड़ी में सुबह के 07 बज चुके थे। मोहित रात भर घर नहीं आया। यह कोई नई बात, नहीं थी। नेहा अब इन सब की आदि बन चुकी थी। कुछ समय बाद उसे ऑफिस के लिए निकलना था। आज मन तो बिलकुल नहीं था, मगर उसे जाना ही था। बेमन से बिना नाश्ते किये ही वह निकली गई। आज उसे अपने नए प्रोजेक्ट के बारे में बॉस को ब्रीफ़ देना था,लेकिन आयदिन घर कीखिट-पिट के कारण उसकी मानसिक स्थिति बेपटरी हो चुकी थी। बेपटरी चलती हुई गाड़ी आखिर कितनी दूर जा पाएगी। प्रत्येक दिन उसे इसी खौफ़ के साथ जीना पड़ता था। जिंदगी, अब शाख से टूटे पत्ते की तरह हो चुकी थी। डालियाँ सुख चुकी थीं। बसंत आकर भी, नहीं आया हुआ लगने लगा था। तकरीबन दो वर्ष पहले अगर वह बाबा कोना बोल देती तो इस जिंदगी से बच सकती थी। ना, यह शब्द बहुत ही छोटा है, मगर इसी ‘ना’ को नेहा कह नहीं पाई थी। अब कभी-कभी सोचती है कि जिंदगी को ही ना कह दे। इसी कशमकश के साथ वह पूरे दिन खौफ मेंथी। बिना इंजन वाली गाड़ी को चलाने की नाकाम कोशिश कर रही थी। जिंदगी की दीवारों पर दरारें पड़ चुकी थी और उन दरारों से जख्म नजर आने लगे थे। ऑफिस पहुँचने के बाद आज उसका किसी काम में मन नहीं लग रहा था। बॉस ने उसके मन को भाँपते हुए…आज की मीटिंग पोस्टपोन कर दी। उसने नेहा से कहाकि आज छुट्टी ले लो और घर जाके आराम करो। मगर नेहा नहीं गई। वह वापस अपने केबिन में आ गई। रूबी, जो नेहा के साथ ही काम करती थी उसने नेहा को कई बार टटोलने की कोशिश की, आज भी वह नेहा का दर्द समझने की कोशिश में उसके पास आकार बैठ गई। मगर नेहा ने रूबी से बातचीत में कोई रुचि नहीं दिखाई। वह अपनी ही बनाई दुनिया में खोयी रही।

नेहा को देखकर रूबी का मन नहीं माना और वह बोल पड़ी “नेहा..नेहा..नेहा…”

अचानक किसी अनजान जगह से वापस आकार नेहा ने भौंचक्का हो कहा “हाँ”

रूबीने माहौल को देखते हुए मज़ाकिया लहजे में कहा “कहाँ खोयी को डियर…शाम के 5 बज गए हैं, घर नहीं जाना है क्या?”

नेहा रूखे मन से “जाना हैडियर”

रूबी ने कहा “तो चलो समय हो गया है”

नेहा ने कहा “हाँ चल रही हूँ…लेकिन चलो उससे पहले चाय पीते हैं…”

रूबी ने माहौल को खुशनुमा बनाने के उद्देश्य से कहा कि “जैसा आप कहें दिलरुबा” इतना कहने के बाद वह हंस पड़ी। उसे हँसते हुए देख नेहा ने केवल इतना ही कहा “धत्त बदमाश” कुछ देर बाद दोनों चाय की दुकान पर पहुँच चुके थे। चाय लेकर दोनों बैठकर चाय पीने लगे। चाय पीते-पीते रूबी ने कहा “देख नेहा,अगर तू इस रिश्ते से खुश नहीं है तो इसे ख़त्म कर दे, बिना इंजन के गाड़ी ज्यादा दूर नहीं जाती…ऐसे रिश्ते से मुक्ति ही बेहतर है। तू लाख कोशिश कर ले इस रिश्ते को बचा नहीं सकती है। यह रिश्ता एकतरफा हो चुका है। तुझे किस बात का डर है, पढ़ी लिखी है, हाथ में चार पैसे हैं, सब कुछ तो है तेरी जिंदगी में…फिर क्यों इतना सह रही है?” रूबी की बातें सुनने के बाद नेहा ने बड़ी ही सहजता से कहा कि “रूबी तू ठीक कहती है लेकिन जिंदगी को एक झटके के साथ ख़त्म नहीं कर सकती मैं। शादी के बाद चीजें बहुत बदल सी जाती हैं। हम जैसा सोचते हैं वैसा अमूमन नहीं होता है। अभी तू नहीं समझेगी…” उसके बाद रूबी ने कहा कि “मुझे समझना भी नहीं है, कभी-कभी मुझे तो लगता है मैं शादी ही नहीं करुँगी…कौन ऐसे जंजालों में फँसेगा…”उदास मन से नेहा ने कहा“रूबी आजाद तो मैं भी होना चाहती हूँ, आजिज आ गई हूँ इस जिंदगी से, मगर इस आजादी को लेकर मैं किस के दर पर जाउंगी। तुझे तो पता ही है मैं माँ नहीं बन सकती हूँ। क्या इसे जानने के बाद भी इस समाज का कोई भी पुरुष मुझे अपनाएगा? मोहित को कोई कुछ नहीं कहेगा…क्योंकि वह एक पुरुष है, कमी उसमें भी हो सकती है…इसे कोई नहीं देखेगा जबकि मेरे दामन पर दाग लगाने वालों का काफिला निकल पड़ेगा”

रूबीकुछ सोचते हुए बोली “हाँ, सही कह रही हो। हम स्त्रियों की किस्मत ही ऐसी है…गलती किसी की भी हो दामन हमारा ही दागदार होता है” इतने में चाय खत्म हो चुकी थी। नेहा ने पैसे देते हुए कहा“चलो अब मुझे लेट हो रहा है,कल मिलते हैं”

रूबी“ठीक है नेहा अपना ध्यान रखना”

नेहा “तुम भी”

………..

नेहा ने आटो ले लिया और रूबी ने बस। दोनों का गंतव्य अलग-अलग था, सो दोनों निकल पड़े। ऑटो में नेहा बाहर देखते हुए सोचने लगी,सही तो कह रही थी रूबी, मुझे किस बात का डर है, पापा के उस वचन का जो मुझे विदा करते हुए उन्होंने कहा था? या शादी के सात फेरों का, आखिर मैं ही इन कश्मों, रश्मों को क्यों निभाऊं, यह रिश्ता मेरे अकेल का रिश्ता तो नहीं, दोनों की सहभागिता है, दोनों ने इस रिश्ते की सहमती जताई थी लेकिन सिर्फ मैं ही क्यों मुकाम को बुनू, चलना तो हम दोनों ने शुरू किया था मगर मैं पीछे क्यों छूट गयी? मुझे याद है मां को जब भी बाबा किसी बात को लेकर डाँटते थे तो कितना कुछ सुनाती थी मैं उन्हें। बाबा मेरी बात सुनकर मां से माफ़ी मांग लेते थे मगर आज क्या हो गया है मुझे, क्यों इतना कुछ सह रहीं हूँ मैं। वो सारी किताबें क्या केवल इसी दिन के लिए मैंने पढ़ रखी हैं। कॉमर्स की स्टूडेंट होकर भी मैंने कितना कुछ साहित्य का पढ़ रखा है। मुझे सिमोन का वह कथन याद है कि स्त्री पैदा नहीं होती बनाई जाती है…तो मुझे कौन स्त्री बना रहा है? मोहित जो मुझे मारता है पीटता है या मेरे बाबा जिन्होंने मुझे मोहित के हाथों में सौंप दिया। यह दोनों तो पुरुष हैं? इन दोनों को दोष देना,क्या ठीक होगा? क्या इस सामाजिक बंधनों से मुझे मुक्त हो जाना चाहिए? या इसे ढोते रहना चाहिए… बस यह मानकर कि यही मेरी नियति है? नहीं…नहीं यह मेरी नियति कैसे हो सकती है? वोह! कितना भयावह है यह।

“दीदी घर आ गया” ऑटो वाले की आवाज से नेहाअचेत अवस्था से बाहर आई।ऑटो वाले को पैसे देकर घर के अन्दर दाखिल हुयी तो नशे की हालत में मोहित फर्श पर अचेत अवस्था में पड़ा था। फर्श पर कुछ बोतलें पड़ी हुई थीं। यह मंजर तो अब प्रत्येक दिन का हो चुका था। नेहा अब इन सबकी आदि बन चुकी है। रोज़ का यही नाटक, ऑफिस से आने के बाद ऐसे ही नज़ारे उसकी आँखों के सामने होते हैं। उसने मोहित को किसी तरह उठाकर सोफ़े पर लिटा दिया। मोहित का शरीर पहले से अब कहीं ज्यादा कमजोर हो चुका था। एल्कोहल उसे अब पूरी तरह से गला रहा था। मोहित को लिटाने के बाद नेहा घर के कामों में लग गई।जल्दी-जल्दी सब घर का काम निपटाकर ऑफिस के कुछ कामों को देखने लगी। मगर कुछ देर के बाद मन ऊब गया। वह बालकनी जाकर बाहर की दुनिया को निहारने लगी। उसने सड़क पर देखा की दो कपल बाहों में बाहें डाले एक दूसरे में मशगूल टहलते हुए जा रहे थे। उनको देख नेहा उदास सी हो गई। भीतर से बेचौन हो उठी। वह सोच में पड़ गई। कितना कुछ एक साल पहले सही था। कितनी हसीं दोनों की जिंदगी थी। खुशियाँ ही खुशियाँ जिंदगी में हर वक्त छाई रहती थी। मगर मोहित ने नशे में सब कुछ बर्बाद कर दिया। नशे की लत इस कदर बढ़ गई कि ख़राब व्यवहार के चलते नौकरी भी छूट गई। घर पर पड़े रहने के कारणनशा ज्यादा ही बढ़ता गया। हालात इतने बुरे हुए कि मोहित ने अपनी सेविंग के सारे पैसे उड़ा दिये। चोरी करके नेहा के कुछ जेवर भीबेंच दिए। मना करने के बाद मार पिटाई तक करने लगा। ऐसी जिंदगी से वह आजिज़ आ चुकी थी। बालकनी में यह नेहा सोच ही रही थी कि मोहित की तेज़ आवाज सुनाई दी। वह जल्दी से अंदर आई।

“आ गई तुम” मोहित ने तंज़ से कहा

“हाँ”

“बहुत जल्दी आ गयी”

“मैं 6 बजे की आ गयी हूँ”

“जगाया क्यों नहीं मुझे?”

“जगाने का फायदा क्या था, ज़बान से फूल तो झरते नहीं गालियों के सिवा”

“तुम ज्यादा जबान मत चलाओ और ये बताओ की चेकबुक कहाँ है? मैं उसे खोज रहा था”

“मैंने उसे अलमारी में रखा है”

“चाभी कहाँ रखी हो, टेबल के दराज में तो नहीं है”

‘मेरे पास है”

“अच्छा, तो अब भरोसा भी नहीं है मुझपर, चाभी साथ लिए घूम रही हो”

“नहीं, लेकिन ऐसे ही तुम सब कुछ नशे में नहीं उड़ा सकते हो”

“कहाँ है पर्स तुम्हारा, ये रहा…” मोहित पर्स से चाभी निकालकर चेकबुक अपने पास रख लेता है। नेहा असहाय देख रही थी। वह हताश सोफ़े पर बैठी रही। विरोध करने और बहस करने का कोई फायदा नहीं था। इतने में मोहित का फोन बज उठा। बात करने के बाद वह नेहा से बोला कि “मैं जा रहा हूँ अपने दोस्त के घर कल आऊंगा”

नेहा बोल उठी “दोस्त के घर या कहीं और?”

“तुम बॉस के साथ ओवरटाइम करती हो मैंने मना किया जो आज तुम मुझे रोकने आ गयी…कहीं और से क्या मतलब है तुम्हारा?”

“कुछ नहीं…कहीं और का मतलब यही है कि जहां तुम अपनी सुध को बैठते हो” मोहितबिना जवाब दिये घर से बाहर निकल गया। नेहा चुप हो गई। मोहितनशे में था नेहा करती भी तो क्या? रोकने का कोई फायदा नहीं था…मोहित चला गया बिना खाए-पिए। नेहा का भी मन नहीं किया खाने का। नेहा ने मोबाइल उठाया,समय देखा…रात हो चुकी थी। अंधेरा,नेहा के मन में, घर के बाहर और घर के अंदर सब जगह फैल चुका था। नेहा ने रूबी को कॉल किया मगर उसने कोई जवाब नहीं दिया। शायद सो गयी थी मगर इतनी जल्दी रूबी सोती नहीं थी। कहीं किसी काम में व्यस्त होगी। इसी दरमियान फोन की घंटी बजी। “हेलो नेहा मैं राकेश बोल रहा हूँ” फोन नेहा के बॉस का था।

नेहा ने खुद को संभालते हुए कहा “हाँ सर बताइए”….. “नेहा सुनो कल की तैयारी कर लेना। कल तुम्हें अपना शत-प्रतिशत देना है। जरा जल्दी आ जाना। एक पीपीटी भी बना लेना, सब कुछ तुम्हें ही हैंडल करना है और हाँ रूबी को भी कॉल करके बोल देना, रखता हूँ” एक औपचारिक बात के बाद बॉस का फोन कट गया। नेहा ने एक बार फिर रूबी को फोन किया, मगर उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसके बाद उसने मोहित को फोन किया। उसका फोन बंद आ रहा था। नेहा सोफ़े पर ही लेट गई। देर तक आँखें खुली रहीं और जब बंद हुई तो सुबह के अलार्म के साथ ही खुलीं। सात बज चुके थे। अक्सर नेहा आठ बजे के आस-पास उठती थी लेकिन आज उसे जल्दी ऑफिस पहुँचना था। बॉस ने बड़ी ज़िम्मेदारी दे दी थी। उसने जल्दी से घर के सारे काम निपटा लिए। चाय और ब्रेड खाने के बाद उसने मोहित को फोन किया लेकिन मोहित का फोन अब भी बंद था। रूबी को फोन किया तो रूबी ने कहा कि बस स्टैंड पर मिलते हैं। वह रात में सो गई थी इसलिए कॉल पिक नहीं कर सकी। नेहा जल्दी-जल्दी घर से निकल गई। इसी बीच नेहा के फोन की घण्टी बजी। मोहित का फोन था।

“कहाँ हो”

“ऑफिस जा रही हूँ”

“बड़ी जल्दी निकल गई”

“ हाँ, आज मुझे प्रोजेक्ट प्रस्तुत करना है। अच्छा, सुनो कल तुमने मेरी चेकबुक ली थी?”

“वो छोड़ो, ये बताओ कब तक लौटोगी”

‘तुम्हें पता नहीं क्या?शाम तक, शायद आज लेट हो, मुझे आज काफी काम है”

“अच्छा,शाम को क्यों सुबह ही आना जिस काम के लिए गई हो पूरा निपटा के ही आना” मोहित की आवाज में व्यंग्य था।

“मतलब क्या है तुम्हारा?”

“मतलब सीधा सा है। और तुम्हें पता है वो राकेश….” वह कहते-कहते चुप हो गया।

“क्या राकेश हाँ…बताओ क्या राकेश…इतना ही शक होता है तो आओ न मेरे साथ, करोनौकरी” नेहा ने चिल्लाते हुए कहा।

“सुनो”

“क्या सुनो,तुम्हारी सुनो, तुम्हारी माँ की सुनो,किसकी किसकी सुनूँ, तुम्हीं बताओ?” नेहा चिल्लाती जा रही थी।

“मैंने कहा न सुनो? मेरे घर वालों को कुछ न कहो…समझी”मोहित ने डांटते हुए कहा

“नहीं अब नहीं…थक गई हूं सुन-सुनकर”

“बोला न चुप रहो…कितनी बार बताया हूँ जब मैं बोलता हूं तो चुपचाप सुना करो… हमारे खानदान में किसी औरत ने नौकरी नहीं की है समाज मेंपरिवार की बेईज्जती कराने में मज़ा आता हैं ना तुम्हें…?” दहाड़ते हुए बोला।

“हां तो तुम क्यों कोई नौकरी नहीं करते। घर कैसे चल रहा है जानते भी हो तुम?”

“बस-बस जताने की जरूरत नहीं है। दो पैसा हाथ में क्या आए,आवाज़ ऊंची हो गई तुम्हारी”

“खाली बैठे-बैठे दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा”

“बहुत बोल रही हो ऐसा करो आज ही निकल जाओ अपने घर और आइंदा मुझे अपनी शक्ल मत दिखाना, वैसे भी मैं तुमसे शादी नहीं करना चाहता था…”मोहित ने गुस्से में फ़ोन रख दिया और नेहा फफक कर रो पड़ी।फोन रखने के बाद मोहित गुस्से में चेकबुक लेकर पैसे निकालने के लिए चला गया। नशा पूरी तरह से उतारा नहीं था। वह नशे की हालत में थोड़ा-थोड़ा लड़खड़ा कर चल रहा था। पैर सीधे-सीधेनहीं पड़ रहे थे। लड़खड़ाते हुए कदमों से वह सड़क को पार करने लिए जैसे ही घूमा एक तेज़ कार ने उसे टक्कर मार दी। वह सड़क के दूसरे किनारे गिर गया। चोट काफी गहरी लगी थी। हाथों से खून निकलने लगा। दाहिना पैर शायद टूट चुका था। माथे से भी हल्का-हल्का खून निकल रहा था। थोड़ी देर बेसुध रहने के बादकिसी तरह पैंट से फोन निकालकर उसने नेहा को फोन किया, नेहा ने फोन कट कर दिया। हड़बड़ा कर मोहित ने दूबारा फ़ोन किया,इस बार मोहित ने भगवान सेदुआ मांगी कि काश नेहा फ़ोन उठा ले…तीसरी बार में नेहा ने फ़ोन उठाया।

“हेलो नेहा”

“हेलो बोलो और कुछ सुनाना बाकी रह गया है जो फिर से फोन किया है तुमने…तो बोल दो,जा रही हूं मैं कहीं”

“नेहा सुनो तो” कंपकपाती हुई आवाज में उसने कहा।

“सुनो मोहित,घर चलाती हूँ कोई पाप नहीं करती जो तुम्हारे ताने सुनूँ”

“नेहा मेरी बात सुनो” सहमी सी आवाज में

“मरो चाहे जियो मुझे अब फर्क नहीं पड़ता है”

“प्लीज़ नेहा मेरी बात सुनो”

“अब मुझे अकेले ही रहना है। मैंने फैसला कर लिया है। तुम्हारी जरूरत नहीं,घर की चाभी डोरमैट के नीचे है”

“नेहा मत जाओ मेरी बात सुनो” गिड़गिड़ाते मोहित उसने बोला

“और हाँ सुनो मेरी आलमारी में कुछ पैसे हैं, ले लेना…तुम्हारे काम आएंगे”

“नेहा मत जाओ” मोहित की आवाज धीमी पड़ती जा रही था।

“क्यों,अब मैं खुल के कह रही हूँ तो मिमिया क्यों रहे हो…इतने दिन हो गए साथ रहते…कबसे कह रही हूं कुछ काम करो…अनाप-शनाप सोचना बंद करो लेकिन नहीं…अब भुगतो… रहो अकेले” नेहा ने गुस्से में कहा। इतने में मोहित के नजरों के सामने अंधेरा छाने लगा। उसने बस इतना ही कहा कि “अब देर हो गयी है”

“क्या देर हो गयी है” नेहा चीखी…लेकिन मोहित की कोई आवाज नहीं आई। फ़ोन मोहित के हाथ से गिर गया। नेहा “हेलो हेलो” करती रही। मोहित को राहगीरों ने हॉस्पिटल पहुंचाया। उन्हीं में से किसी ने मोहित के फोन से नेहा को फोन किया। मोहित का फोन देखकर नेहा फिर से चिल्ला पड़ी “तुम बोल क्यों नहीं रहे थे? फिर से तुम वहीं चले गए न?कितनी देर से चिल्ला रही हूँ सुनाई नहीं देता? फिर बोतल चढ़ा के होश खो बैठे हो न” दूसरी तरफ से एक अजनबी आवाज सुनकर नेहा ने कहा “कौन?” उस अजनबी ने सारी स्थिति बयान की। नेहा आनन-फाननमें हॉस्पिटल के लिए निकल गई। मोहित को प्राथमिक उपचार के बाद अब होश आ चुका था। डॉ. के दिशा-निर्देश के बाद नेहा मोहित से मिलने के लिए कमरे में दाखिल हुई। कमरे का वातावरण सहमा हुआथा। मशीनों के शोर के साथ मोहित के धड़नों की रेखाएँ कंप्यूटर स्क्रीन पर दिखाई दे रही थी। नेहा की आंखे छलछला आईं। तूफान के बाद की शांति कमरे में फैली हुई थी। नेहा के चेहरे पर एक प्रेम था जो दुःख, अकेलेपन और अलगाव के बाद उपज आया था। मन के भीतर कठोर वज्र का स्थान, अब नाजुक कलियों ने ले लिया था। दोनों की आँखों से पश्चाताप की नदियां बह निकलीं। जिस रिश्ते में केवल कड़वाहट भरी थी,वहाँ अब मिश्री के घोल का तड़का लग चुका था। पतझड़ के बाद नई पत्तियां निकल चुकी थीं। दोनों के चेहरे ऐसे खिले थे मानो कुंभलाते हुए गुलाब को किसी ने पानी की कुछ बुँदे दे दी हों। नेहा मोहित के पास जाकर बैठा गई। उसका हाथ उसने अपने हाथ में ले लिया। सारे शिकवे-गीले उसने कमरे के छो दिए। बहसबाजी, संबंध टूटने का भय,गालियाँ, मारपीट सब कुछ एक झटके में ही खत्म हो गया। प्रेम का वह धागा जो टूटने के कगार पर था, वह एक झटके में ही मजबूत हो उठा। शायद इस सुनामी के बाद जीवन फिर से पुलकित हो रहा था। मोहित की आँखों में पाश्चताप स्पष्ट झलक रहा था… वह काँपती हुई आवाज में बोला “नेह…नेहा मुझे माफ कर दो। मैंने कभी तुम पर विश्वास नहीं किया। लेकिन तुम्हारे विश्वास के कारण ही बच पाया हूँ। मैंने तुम्हें कभी प्यार नहीं किया,शायद…मुझे तुम पर विश्वास नहीं था या शायद खुद परनहीं था। मगर तुमने इसे बांधे रखा। उसी बंधन का नतीजा है कि मैं आज जीवितहूँ। मैं एक अपराधी की भांति हूँ, तुम्हारे सामने हूँ…तुम्हें जो सजा देनी है, मुझे दे दो” नेहा ने इतना सुनने के बाद उसके होंठों पर अपनी उँगलियाँ रख दी। और कहा कि “यह सब मत कहो…मोहित, बस तुम…” मोहित ने नेहा को बीच में रोकते हुए कहा “नेहा…मैं अपराधी हूँ…मैं इतना बड़ा अपराधी हूँ कि अपनी आवाज के आगे…तुम्हारी खामोश चींखे मैं कभी सुन ही नहीं पाया…सालों से तुम सुनती रही और मैं चिल्लाता रहा” इतना कहने के बाद मोहित फफक-फफकर रो पड़ा। नेहा ने उसे गले से लगा लिया। सालों बाद नेहा और मोहित एक आलिंगन में बंध गए और दोनों के भीतर एकप्रेम का सागर उमड़ पड़ा।

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परिचय – अमित कुमार चौबे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के हिंदी साहित्य विभाग में शोधार्थी हैं.

संपर्क – 6263808894

Email – amit93678@gmail.com

 

 

 

One thought on “विशिष्ट कहानीकार :: अमित कुमार चौबे

  1. सुंदर कहानी । अच्छी प्रस्तुति ।

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