रपट: संगमन-25
कला में लोक और अभिजात्य का द्वंद
- कमलेश भट्ट कमल
वर्ष 1993 में कानपुर से प्रारंभ ‘संगमन’ अपनी अवधारणा में अन्यतम और अनुपम है और कदाचित विश्व का पहला व अकेला भी। बिना किसी औपचारिक ढाॅंचे के तथा बिना किन्हीं पदाधिकारियों के संगमन देश के अलग-अलग हिस्सों में 24 जगहों पर संपन्न हो चुका है। संगमन- 25 के पत्रक में संयोजक प्रियंवद ठीक ही लिखते हैं कि-‘ संगमन ने बिना किन्हीं स्थाई ढाँचागत सुविधाओं के ही, विगत 28 वर्षों में विभिन्न विषयों पर विमर्श के 25 वार्षिक आयोजन करके साहित्यव विचार की दुनिया में अपनी महत्वपूर्ण व स्वीकार्य पहचान बनाई है। इस संस्था का भौतिक स्वरूप एक ऐसे ढांचे से बना है जो सर्वथा अलग और पारदर्शी है। संस्था का अनौपचारिक और सरल प्रारूप तथा इसका आतंरिक प्रबन्धन इतना लचीला है कि इसे दुनिया के किसी भी हिस्से में आयोजित किया जा सकता है।’
‘ रचनात्मक व बौद्धिक हस्तक्षेप का उपक्रम’ की उपशीर्षक वाले संगमन का 25 वाॅं आयोजन बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में 30 सितंबर और 01 अक्टूबर 2023 को संपन्न हुआ। पुनर्गठित बिहार में संगमन का यह पहला आयोजन था। हालांकि पुनर्गठन से पूर्व 1999 में बिहार के धनबाद में आयोजित हो चुका था। यह जानना अप्रासंगिक न होगा कि उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक छः स्थानों – कानपुर(प्रथम व द्वितीय), चित्रकूट, दुधवा नेशनल पार्क, वृंदावन, सारनाथ और कुशीनगर, उत्तराखंड में तीन स्थानों – देहरादून, पिथौरागढ़ और नैनीताल, राजस्थान में तीन जगहों- श्रीडूंगरगढ़, उदयपुर तथा चितौड़गढ़, मध्य प्रदेश में भी तीन जगहों- ग्वालियर मांडू और चंदेरी, हिमाचल प्रदेश में दो जगहों -बड़ोग और मंडी, झारखंड में दो स्थानों – धनबाद और जमशेदपुर के अलावा गुजरात के अहमदाबाद, महाराष्ट्र के नागपुर, गोवा के मड़गांव तथा असम के गुवाहाटी में भी संगमन के आयोजन हो चुके हैं। कहने का आशय यह है कि केवल दक्षिणी राज्यों को छोड़कर प्रायः पूरे भारत में संगमन ने न केवल अपनी दृढ़ उपस्थिति दर्ज कराई है बल्कि अपने सघन वैचारिक विमर्शों के द्वारा बौद्धिक- साहित्यिक जगत को सकारात्मक ढंग से आंदोलित करने में भी सफलता प्राप्त की है।
संगमन के 21 आयोजन संस्थापक सदस्यों, प्रतिभागियों एवं कुछ मित्रों -शुभेच्छुओं की आर्थिक सहायता से संपन्न हुए। तदुपरांत 22 वें संगमन से जो गोवा में संपन्न हुआ, तक्षशिला एजुकेशनल सोसाइटी भी हमारे साथ जुड़ी और तमाम ढाॅंचागत सुविधाऍं हमें उसके सौजन्य से प्राप्त होने लगीं। यद्यपि शुरुआत के कुछेक आयोजनों के बाद से ही, प्रतिभागियों का निजी संसाधनों से संगमन के आयोजन स्थलों तक पहुॅंचना अभी भी हमारे लिए एक बड़ा संबल है। इस तरह से प्रत्येक संगमन का आयोजन एक मिला-जुला सहकारी प्रयास है, जो बिना किसी बड़े कारपोरेट घराने और बिना किसी सरकारी सहायता के लोकतांत्रिक और पारदर्शी ढंग से संचालित हो पा रहा है।
रामधारी सिंह दिनकर की रचनाभूमि, रामवृक्ष बेनीपुरी की जन्मभूमि तथा आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की कर्मभूमि मुज़फ़्फ़रपुर में आयोजित संगमन-25 के आरंभ में संगमन के संक्षिप्त परिचय का अवसर संस्थापक सदस्य के रूप में मुझे दिया गया। तदुपरांत स्थानीय संयोजक के रूप में यशवंत पाराशर ने अतिथियों का स्वागत किया तथा मुज़फ़्फ़रपुर की साहित्यक ऐतिहासिकता और स्वतंत्रता संग्राम में उसके योगदान को रेखांकित किया।
कवि बसंत त्रिपाठी (प्रयागराज) के संचालन में संगमन-25 के उद्घाटन सत्र का आधार वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए विद्वान प्रोफेसर प्रमोद कुमार सिंह (मुज़फ़्फ़रपुर) ने कहा कि भारत में लोक और वेद दो शब्द थे। वेद का अर्थ ही है ज्ञान। मैक्समूलर ने वेद को गड़रियों का गीत कहा था। अभिप्राय यह था कि वैदिक साहित्य घुमंतू लोगों का साहित्य है, पशु-चारण साहित्य है। अथर्व वेद लौकिक परंपराओं से जुड़ा हुआ है जिसमें लौकिक जीवन आता है, अन्य वेदों में दूसरी चीजें आती हैं। लघुता में महत्ता देखना अभिजात्य साहित्य में लोक-साहित्य की प्रतिष्ठा है। अभिजात्य साहित्य-कला में लोकतत्वों की उपेक्षा संभव नहीं है। हिंदी में लोक- साहित्य से प्रेरित कबीर, जायसी तथा उससे पूर्व विद्यापति भी थे। बच्चन की ‘त्रिभंगिमा’ में एक संवाद गीत है जो मल्लाह-मल्लाहिन के बीच का है। ‘वंशी और मादल में ठाकुर प्रसाद सिंह ने भी ऐसे प्रेम गीत लिखे। ‘उसने कहा था’ कहानी में लोकजीवन के अनेक शब्द हैं। रेणु, कमलेश्वर ने भी लोक जीवन से लेकर अपनी रचनाओं को समृद्ध किया है। प्रेमचंद के ‘दो बैलों की कथा’ में लोककथा की चासनी मिलती है। ‘जिंदगीनामा’ में टुकड़ों-टुकड़ों में पंजाब के लोकजीवन को उजागर करने का प्रयास है।… सत्य अंतिम नहीं होता है,सत्य का निरंतर अन्वेषण होता है। संस्कृति जड़ नहीं होती है विकासशील होती है और बदलती रहती है। संस्कृतियों में भी पतझड़ आता है और उसके बाद नई कोंपलों से वह नए ढंग से समृद्ध हो जाती है। यह विकास की प्रक्रिया होती है। उन्होंने कहा कि लोक- भाषा की सुंदरता नैसर्गिक है। बरवै एक लोक-छंद है जिसमें रहीम और तुलसी ने रचनाऍं लिखीं तो निराला ने ‘बादल राग’ बरवै छंद से शुरू किया। उन्होंने लोक साहित्य पर लिखने वालों में गुजरात के झबेर चंद मेघाणी का विशेष उल्लेख किया और कहा कि हिंदी में देवेंद्र सत्यार्थी और राम नरेश त्रिपाठी ने लोकगीतों का संग्रह किया। यह भी कहा कि भारत में नागर साहित्य का सर्वाधिक लेखन हुआ है। ‘कादंबरी’ में बहुत सारी जातियों की कथाऍं हैं। उसमें चांडाल कन्या की सुंदरता का भी वर्णन किया है।
सत्र के अगले वक्ता के रूप में गुवाहाटी के कवि-पत्रकार दिनकर कुमार ने विद्यापति और शंकर देव के विशेष संदर्भ में उन्होंने साहित्य में लोक और अभिजात्य के द्वंद्व को स्पष्ट करते हुए कहा कि लोक के प्रभाव से जुड़कर अभिजात्य और महत्वपूर्ण हो जाता है।
कथाकार और रंगकर्मी हृषीकेश सुलभ (पटना) ने लोक को एक सांस्कृतिक प्रवाह की संज्ञा दी और बताया कि लोक श्रुति और स्मृति से बनता है। लोक का जब मानकीकरण होता है तो शास्त्र बनता है।शास्त्र जब रसहीन होने लगता है तो वह लोक के पास जाता है। यह आवाजाही कलाओं की दुनिया में होती रहती है। लोक में पूरी सृष्टि समाहित है जबकि अंग्रेजी में फोक भदेस कहलाता है। उन्होंने यह भी कहा कि जिस समाज के पास रंगमंच नहीं होता है वह दरिद्र होता है। नाटक की नश्वरता में ही उसकी अमरता का रहस्य छुपा होता है। उन्होंने समझाया कि पूरे उत्तर भारत में एक ही नाटक परंपरा है रास परंपरा। बाद में उसका भी विकास होता है और रास के बाद कीर्तनिया शैली का विकास होता है।…नारद आदि विदूषक हैं। भिखारी ठाकुर ने ऐसी स्त्रियों के दुख की कथा लिखी जिनके पतियों के आने न आने की आश्वस्ति नहीं है।
कथाकार मनोज रूपड़ा(नागपुर) ने संगीत के संदर्भ में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोक और अभिजात्य के द्वंद्व पर एक परचे के माध्यम से विस्तार पूर्वक चर्चा की। उन्होंने समझाने की कोशिश की –
‘सामाजिक और आर्थिक असमानता के कारण कला में लोक और अभिजात्य का यह द्वन्द सिर्फ़ हमारे देश में नहीं था और भी कई देशों में था।… यूरोप के ईसाईयों का जो गोस्पेल संगीत है जिसे वे चर्च में धार्मिक प्रार्थनाओं के रूप में गाते हैं , वह काले आदिवासियों की धुनों पर आधारित है।… बहुत लंबे समय तक यह संगीत चर्च की चहारदीवारी में कैद रहा , लेकिन फिर एक विस्फोट के साथ ये संगीत गास्पेल के दायरे से बाहर निकला और कई बड़े क्षेत्रफलों में फैल गया।अफ्रीकी लयों की प्रचुर संपदा आज यूरोप ,अमेरिका और एशिया में चारों तरफ़ बिखरी पड़ी है , आज फाक्स स्ट्रोक्स,रब्बो,सम्ब्बो,जैज और ब्रेक जैसे कई नाच-गाने इन्हीं अफ्रीकी धुनों पर आधारित हैं। लेकिन इस जोश-उमंग भरे नाच-गाने को अपने अस्तित्व के लिए अभिजात्य वर्ग से भीषण संघर्ष करना पड़ा था। एक वक्त ऐसा भी था जब कांगो बांगो बजाये जाने पर और कांगो बांगो की ताल पर नाचने वाले नीग्रो को सौ-सौ कोड़े की सजा मिलती थी।’ उन्होंने कहा कि जैज ने हिटलर के प्रतिबंधों के बावजूद आगे चलकर पूरी दुनिया पर अपना कब्जा जमाया,यही लोकतत्व की ताकत है।
प्रथम दिन के दूसरे सत्र में कथाकार अविनाश मिश्र(दिल्ली)ने अपना परचे के माध्यम से विषय पर विमर्श को आगे बढ़ाते हुए कहा कि हिंदी कविता में आठवें दशक के बाद से लोक एक प्रचलित शब्द है। लोक में पर्याप्त कला है और कला में पर्याप्त लोक। लिटफेस्ट आज अपसंस्कृति के सबसे बड़े प्रसारक हैं। पूंजी का इतना प्रवाह साहित्य की तरफ क्यों आ रहा है यह विचारणीय है। उन्होंने प्रियंवद के इस कथन का भी उल्लेख किया कि साहित्य और साहित्यकार को बाजार की चीज बना देने में पूॅंजी के अपने हित हैं।
सिनेमा के जानकार और लेखक रविकांत (दिल्ली) ने सिनेमा के हवाले से विषय पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि सिनेमा केवल दृश्य माध्यम ही नहीं, बल्कि श्रव्य माध्यम भी है। वह एक पूंजी संकुल और औद्योगिक माध्यम रहा है। सिनेमा जितना अभिजात्य का है उतना ही लोक का भी है। लोक का स्त्री- पक्ष यह था कि सिनेमा में बहुत समय तक स्त्रियों को जाने की इजाज़त नहीं थी।1940 में हारमोनियम की रेडियो स्टेशनों पर अर्थी निकाली गई थी। आजादी के बाद जब रेडियो भी चल निकलते हैं और सिनेमा भी, तब सरदार पटेल आते हैं और कहते हैं कि हम इन दोनों माध्यमों का शुद्धिकरण करेंगे और संदिग्ध चरित्रों को निकाल देंगे !
कथाकार रणेन्द्र (रांची)ने कहा कि शास्त्रीयता के नाम पर बहुत-सी लोक कलाओं को उनके स्थान से वंचित कर दिया जाता है। आदिवासियों के यहाॅं पाप-पुण्य की एक ही अवधारणा है कि जो समाज के लिए अच्छा है वह पुण्य है, जो बुरा है वह पाप है। उन्होंने कहा कि प्राचीन भारत में 1871 की जनगणना के अनुसार 10% ही आर्य मूल के थे। 90% तो द्रविड़ ही रहे होंगे। 90 प्रतिशत में 10 प्रतिशत तो तब भी आदिवासी थे ,शेष 80 प्रतिशत आदिवासी सामुदायिक व्यवस्था से जाति व्यवस्था की ओर जा रहे थे ,जिसे समाजशास्त्रियों ने कथित “संस्कृतिकरण ” की प्रक्रिया कहा है । यानी कि 90 प्रतिशत लोग 1871-72 में गैर-आर्य समुदाय से थे जो संस्कृत और उससे जुड़ी भाषा न बोलकर द्रविड , आग्नेय और साइनो-तिब्बतन भाषा परिवार की भाषा बोलने वाले लोग थे ।
तब ईसा से 1500 ईस्वी पूर्व आर्य या भारोपीय भाषा परिवार की भाषाएं बोलने वालों की संख्या तो 5 प्रतिशत भी नहीं रही होगी तो प्राचीन भारत का इतिहास ऋग्वैदिक कालीन भारत और उत्तर वैदिक कालीन भारत के नाम से क्यों जाना जाता है ? क्या यह कथित आर्य नस्ल के साथ यूरोपीय रोमांटिज्म या ऑब्सेशन का विस्तार मात्र नहीं है? उन्होंने यह भी कहा कि आदिवासी गीतों में भी राग-रागनियाॅं और ताल-मात्रा की उपस्थिति है । लोक नृत्यों को अभिजन समाज हथियाने के लिए शास्त्रीयता के नाम पर वैदिक ऋचाएं , पौराणिक कथाओं-मिथकों को जोड़ते रहें हैं यही झारखंड में पाइका नृत्य को छऊ में ढालने के लिए किया गया और तमिलनाडु में दासीअट्टम को भरत नाट्यम में परिवर्तित करने के लिए किया गया । कुचीपुड़ी की भी यही कहानी है । मूल रूप से इन नृत्य कला रूपों से जुड़ा लोक समुदाय कल भी इस षड्यंत्र का विरोध कर रहा था,आज भी कर रहा है ।
इस लिए कला को सिर्फ कला रहने दिया जाए। उसे लोक या आभिजात्य में नहीं बाटा जाए ।
संगमन-25 के दूसरे दिन यानी 1.10.2017 के प्रथम सत्र के संचालन का दायित्व सॅंभाला मुंबई से आए कथाकार ओमा शर्मा ने। सत्रारंभ में ही वरिष्ठ कथाकार चंद्रमोहन प्रधान ( मुज़फ़्फ़रपुर) की सभागार में और बाद में कुछ मिनटों के लिए माइक पर उपस्थिति का विशेष संज्ञान लिया गया। ओमा शर्मा ने अपनी संक्षिप्त भूमिका में कहा कि लोकजीवन का उल्लेख टाल्सटाय में मिलता है, यद्यपि वे अभिजात्य के रचनाकार हैं,जबकि मैक्सिम गोर्की लोकजीवन के बड़े रचनाकार हैं।
इस सत्र के आरंभिक वक्तव्य में लेखक जितेंद्र भाटिया (मुंबई) ने कला में लोक और अभिजात्य के द्वंद्व विषयक विमर्श को केंद्र में रखते हुए कहा कि
कला नैसर्गिक स्वरूप में हमारी स्मृतियों और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति होती है। अनुभूतियों की सार्वभौमिकता लोक को कला से जोड़ देती है। पहले वर्ग की कलाओं को विशेष संसाधनों की जरूरत पड़ती है। दूसरे वर्ग की कलाऍं तो विशेष संसाधनों पर ही टिकी होती हैं। लेकिन यह समन्वय उन कलाओं का मूल स्वरूप नहीं बदलता है। बल्कि उन्हें वैश्विक स्तर पर सर्वसुलभ बना देता है। सिनेमा की कला ने रंगमंच की विधा को लोक के सबसे निचले स्तर तक सुलभ बना दिया।उन्होंने यह भी कहा कि सबसे अधिक साधन सत्ता के पास होता है और वह अपनी सुविधानुसार अभिजात्य का निर्माण कर लेता है। इस अभिजात्य के मूल्य और मान्यताऍं लोक से मेल नहीं खाती हैं। अपने आश्रय की कीमत भी अंततः कलाओं को चुकानी पड़ती है। ऐसा कम हो पाता है कि सत्ता से आश्रय के बाद सत्ता से असहमति के स्वर उठ पाऍं। सत्ता व अभिजात्य का प्रलोभन लेखक को बेईमान व भ्रष्टाचारी बना देता है। जहाॅं-जहाॅं असहति के स्वर उठते हैं, सत्ता उस पर नियंत्रण का प्रयास करती है। सेंसर बोर्ड इसी तरह की संस्था है। उन्होंने कश्मीर फाइल्स, केरला स्टोरी, आपेनहाइमर जैसी फिल्मों को अर्धसत्य को बढ़ावा देने वाली फिल्में बताया। उन्होंने कहा कि तकनीक ने हमें जवाब देने के नए तरीके भी दिए हैं और वह मिल भी रहा है। ‘जवान’ फिल्म में तमाम सारी स्टंटबाजी के बावजूद शाहरुख खान की उठी हुई एक उॅंगली बताती है कि अपने मताधिकार का प्रयोग सोच- समझकर किया जाए।
कथाकार जया जादवानी(रायपुर) ने अपने वक्तव्य में बस्तर के आदिवासियों की कलाकृतियों के वैश्विक बाजार में बड़ी ऊॅंची कीमत पर बिकने के बावजूद लोक कलाकारों की जिंदगी फटेहाल ही बनी रह जाने की विसंगति की ओर ध्यान खींचा। नेशनल मिनिरल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन जैसी सरकारी संस्था का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि बड़े पैमाने पर उत्खनन का सारा फायदा बड़ी कंपनियाॅं ले जाती हैं। लेकिन वहां के जो स्थानीय लोग हैं जिनकी जमीन है, वे मजदूर बने हुए हैं ! उन्होंने आरोप लगाया कि कला भी बहुत बड़ा ‘खेला’ बन गया है और साहित्य भी। लोक इस्तेमाल होने के लिए है और अभिजात्य पैसा बनाने के लिए। देश में आदिवासी कल्याण की जो भी संस्थाएं बनती हैं उनमें आदिवासी कोई नहीं होता, जैसे साहित्य अकादमियों में एक भी साहित्यकार नहीं होता।
कथाकार और विचारक प्रेम कुमार मणि (पटना) ने विमर्श में हस्तक्षेप करते हुए कहा कि उत्पादन के साधन जब ज्यादा हुए तो उस पर कब्जा करने के लिए अभिजन का जन्म हुआ। यह श्रेणी-विभाजन हड़प्पा संस्कृति में भी देखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि कालिदास जब कविताऍं लिखते हैं तो आमजन को बाहर रखते हैं, लेकिन जब नाटक लिखते हैं तो आमजन को बाहर नहीं रखते। उन्होंने स्पष्ट किया कि लोक दूध है और अभिजन दूध पर पड़ी मलाई।रवींद्रनाथ टैगोर की जड़ें लोक के कबीर और लालन फकीर में हैं। फ्रेंच क्रांति ने लोक और अभिजात्य के विभाजन को खत्म कर दिया था। साहित्य और संस्कृति में भी यही होता है। लोक की छोटी-छोटी कलाऍं समृद्ध और विकसित होते-होते आधुनिक बन जाती हैं। शास्त्रीय संगीत की जड़ें लोकगीतों में हैं तो आधुनिक साहित्य की जड़ें जनता में । हिंदी में जिन साहित्यकारों की जड़ें जनता में हैं, वे प्रगतिशील भी हैं और आधुनिक भी। हर बार जनता ही दुनिया को बचा सकती है। गांधी ने भी यहाॅं के पढ़े-लिखे लोगों पर विश्वास नहीं किया था। वे किसान और अनपढ़ लोगों की चेतना लेकर आगे बढ़े। दरअसल कला में लोक और अभिजात्य का द्वंद्व नहीं, अन्योनाश्रितता रहती है।
कथाकार शैलेंद्र सागर(लखनऊ) ने कहा कि एक पाठक क्या किसी रचना से लोक के बारे में जानना चाहता है या अभिजात्य के बारे में, यह एक महत्वपूर्ण विचार है। विषय की जड़ कला कला के लिए बहस से जुड़ती है जो बहुत पुरानी है। आज कोई भी लेखक यह नहीं कह सकता की कला कला के लिए है। आज जो भी लिखा जा रहा है उसमें आम आदमी की पीड़ा, घुटन, उत्पीड़न अत्याचार को रेखांकित किया जाता है। आज के दौर में कोई ऐसा साहित्य नहीं रचा जा सकता है जो लोक-विहीन हो। पाठकों का रोना चाहे जितना रो लें लेकिन हिंदी में पाठकों की कोई कमी नहीं है। साहित्य की भूमिका उपदेशक की नहीं होती है वह प्रछन्न रूप से मनुष्य के सरोकारों की ही बात करता है। बिना कला के कोई रचना पूरी नहीं होती है।लोक के सरोकारों के साहित्य में कला की अनिवार्य भूमिका है। सरोकारों को कलात्मकता के साथ रखना जरूरी है। साहित्य की भूमिका प्रतिपक्ष की भूमिका है, यही साहित्य की सार्थकता भी है। जब हम अन्याय की बात करेंगे तो प्रतिरोध की भी बात करेंगे। इमरजेंसी एक टर्निंग पॉइंट था लेकिन उस पर निर्मल वर्मा के अलावा किसी और महत्वपूर्ण रचनाकार ने नहीं लिखा। इसी तरह भ्रष्टाचार को लेकर भी बड़ी रचनाऍं नहीं आई हैं- यह साहित्य की कहीं न कहीं असफलता है।
संगीतज्ञ लावण्य कीर्ति सिंह(दरभंगा)ने कहा कि लोक का विशाल परिदृश्य है। लोकगीत में उसकी ध्वनि, भाषा, संगीत सब कुछ ढल जाता है। लोक हमारे अंदर मर्म का स्पर्श करता है। लोक में प्रबुद्धता नहीं है,यह सोच सही नहीं है। उन्होंने रसूलन बाई, अख्तरी बाई आदि का जिक्र किया और कहा कि हमारे यहाॅं स्त्री सशक्तीकरण की पुरानी परंपरा है। जनजातीय स्त्रियाॅं पतियों के साथ सज- धज कर खेत में किसानी के लिए जाती हैं। लोक से ही राग के स्वर ढूॅंढ कर शास्त्रीयता को तैयार किया गया है। लेकिन लोकगीतों को शाश्वतता शास्त्रीय संगीतज्ञों ने दी उसे अपनाकर। उन्होंने भिखारी ठाकुर की रचनात्मकता की भी चर्चा की।
चित्रकार विनय कुमार (पटना) ने कहा कि वर्ष 2000 के बाद जब से तकनीकी विस्फोट हुआ है उनसे जुड़कर जो काम हो रहा है उसे लोक कलाकार भी कर रहे हैं और अभिजात्य कलाकार भी। यदि किसी छोटे कलाकार की प्रदर्शनी किसी बड़ी आर्ट गैलरी तक पहुॅंचती है तो वह अभिजात्य हो जाता है- अब आप उसे कहाॅं रखेंगे? ऐसे में यह कहना बड़ा मुश्किल है कि क्या लोक है और क्या अभिजात्य? मिथिला के लोक कलाकारों में भी एक नया अभिजात्य पैदा हो गया है। अब लोक कलाओं में दुहराव हो रहा है, डुप्लीकेसी बढ़ गई है,मौलिक सृजन कम हो रहा है। वह मौलिक होने के बजाय उत्पादन हो गया है, ऐसे में लोक और अभिजात्य का विभाजन बहुत सीधा नहीं रह जाता है।
कथाकार संतोष दीक्षित(पटना )ने अपने वक्तव्य में कहा कि रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य में सबसे पहले लोक शब्द का इस्तेमाल किया और कहा कि भक्ति आंदोलन में लोक जीवन है जो रीतिकाल में अनुपस्थित है। उन्होंने प्रेमचंद का संदर्भ देते हुए कहा कि सुलाने वाला साहित्य नहीं जगाने वाला होना चाहिए। साथ ही जनसाहित्य के संबंध में ग्राम्सी की अवधारणा का भी उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद साहित्य में लोक की प्रतिष्ठा करने वाले लेखक हैं। प्रेमचंद ने कहा था कि सुंदरता की कसौटी को अब बदलना चाहिए। अज्ञेय के एक कथन का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि अज्ञेय की यह अवधारणा है कि केवल ग़रीबों ने ही सुख-दुख का ठेका नहीं ले रखा है, वह सर्वव्यापी है, ऐसे में अमीर और ग़रीब, सुखी और दुखी,शोषित और पीड़क इन दोनों वर्गों से ऊपर उठकर लिखने का अधिकार लेखक को है। ऐसे में दोनों वर्गों से ऊपर उठकर हम संपूर्ण मानवता का गान क्यों न करें ? उन्होंने कहा कि अज्ञेय का यह वक्तव्य षड्यंत्रकारी है कि यह लोक और अभिजात्य को मिला देना चाहता है।
सत्र के समापन वक्तव्य में वरिष्ठ कवि अरुण कमल(पटना)ने कहा कि कवि भाषा को नहीं रचता बल्कि भाषा उसे मिलती है। लोक की परिभाषा बहुत कठिन है।साहित्य का अपना अभिजात्य होता है जो समाज के अभिजात्य से भिन्न होता है। पूरा भक्ति आंदोलन अभिजात्य यानी सत्ता या पूॅंजी के विरोध में था, जो मनुष्य को हीन समझता था, उसके विरोध में था। लोक वह है जो नैसर्गिक है प्राकृतिक है। जो कुछ नैसर्गिक नहीं है, बाहर से लिया गया है वह अभिजात्य का गुण या अवगुण है। कविता का सारा संसार लोक से अभिजात्य और अभिजात्य से लोक के बीच आवाजाही करता है। जब भाषा की ऊर्जा कम होने लगती है, हम लोक की ओर जाते हैं और जिन बोलियों को हम भदेस समझते हैं उनको वापस लाते हैं। उनका कहना था कि लोक के अभिजात्य का पूरी दुनिया में सर्वोत्तम प्रतीक गांधी हैं। गांधी ने लोक के अभिजात्य की स्थापना की। मनुष्य से प्रेम के बिना आप अभिजात्य का विरोध नहीं कर सकते लोक का मूल्य यह है कि मनुष्य सर्वोपरि है। देश में 30% लोगों के पास 70% संपत्ति है। यह कैसा लोक और कैसा अभिजात्य है? इसके खिलाफ कोई क्यों नहीं बोलता? जब हम इन सवालों को साहित्य में उठाते हैं तो लोक की बातकरते हैं। जो लोग सत्ता के साथ हैं वह अभिजात्य हैं। जो सत्ता के विरोध में हैं वह लोक के साथ हैं। कविता संभवतः अकेली विधा है जिसका बाजारीकरण नहीं हो सकता है क्योंकि वह लोक के साथ है।
संगमन-25 के चतुर्थ और अंतिम सत्र के संचालन का दायित्व निभाया कानपुर से आए डॉ. आनंद शुक्ला ने। इस सत्र के प्रथम वक्ता के रूप में अपने विचार प्रस्तुत करते हुए सामाजिक अध्येता पुष्पेंद्र कुमार (पटना) कहा कि 80-90 के दशक में विस्थापन एक बड़ा विषय रहा है। विकास के साथ विस्थापन जुड़ा हुआ है लोगों को बेदखल होना पड़ा। लेकिन जिन लोगों पर सबसे कम लिखा गया उनमें भारत के विस्थापित लोग भी हैं। जबकि ये भारत के निर्माण के बहुत महत्वपूर्ण लोग हैं।
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए पुष्पेन्द्र कुमार ने कहा कि विस्थापन के विरोध की दो अवधारणाऍं हैं। यह विरोध 1980 में सरदार सरोवर बाॅंध के मामले में शुरू हुआ था। विरोध की एक अवधारणा विकास के मॉडल को ही चुनौती देती है। दूसरी यह है कि औद्योगिक सभ्यता के विकास की अनिवार्यता है विस्थापन। अब यदि घर- घर में बिजली पहुॅंचानी है तो बिजली- उत्पादन अभिजात्य का सवाल नहीं रह जाता है। इसलिए धीरे-धीरे विस्थापन का सवाल पीछे रह गया। चीन में रिहैबिलिटेशन को भी एक प्रोजेक्ट माना गया है। अब अपने देश में भी रिहैबिलिटेशन को बेहतर ढंग से सेटिल किया जाने लगा है।
सत्र के दूसरे वक्ता बसंत त्रिपाठी (प्रयागराज)ने निराला की चर्चित कविता ‘कुकुरमुत्ता’ के माध्यम से अपनी बातें रखीं। उन्होंने लोक और अभिजात्य के द्वंद्व को दो वर्गीय अभिरुचियों की बहस बताया। उनका कहना था कि निराला कुकुरमुत्ता में जिस द्वंद्व को रेखांकित करते हैं वह महत्वपूर्ण है। वह काव्य के अभिजात्य का उपहास भी है जो छायावाद के रूप में साहित्य को घेरे हुए था। उनका मानना था कि उस जन को समझने की कोशिश की जानी चाहिए जो इतिहास को बनाता है। कला और साहित्य का जब कोई रूप सुरक्षित हो जाता है तब पूॅंजीवाद उसमें निवेश करता है।
कथाकार और कथा आलोचक राकेश बिहारी (प्रयागराज) का कहना था कि हमारे देश में एक जन के भीतर कई जन, एक अभिजन के भीतर कई अभिजन होते हैं। यदि सर्वजन एक ‘यूनिवर्सल सेट’ है तो अभिजन ‘सब-सेट’ हो जाता है। क्या अभिजन और जन के हित एक जैसे होते हैं ? कला में लोक और अभिजात्य का द्वंद हितों की टकराहट से उपजा हुआ है। उन्होंने ‘राजकवि’ कहानी का संदर्भ भी दिया और कहा कि द्वंद्व का मामला विशेषाधिकार का मामला है। द्वंद सम्मान के अधिकार की भी बात है। हर अभिजन शोषक नहीं होता है। उनका कहना था कि कहानी लिखते हुए लेखक को अपने भीतर के अभिजन से लड़ना होता है। इस लड़ाई में कभी लेखक जीत जाता है कभी ऐसा नहीं होता है। कथाकार जयनंदन (जमशेदपुर) ने सत्र में अपनी बात रखते हुए कहा कि कॉर्पोरेटीकरण का चरित्र अंततः शोषक का चरित्र होता है,जो लोक के विरुद्ध जाता है। इस संदर्भ में उन्होंने टिस्को के चरित्र का उदाहरण दिया। उन्होंने कला में लोक और अभिजात्य के द्वंद्व को अमीर-गरीब के बीच का द्वंद्व बताया। उन्होंने कहा कि लेखन में भी अभिजात्य श्रेणी के लेखन की चर्चा की जाती है जो आम आदमी की पहुॅंच से दूर होता है! हम लिखते हैं तो हमारा लक्ष्य होता है अमरता प्राप्त कर लेना, यशस्वी हो जाना। हम आम आदमी तक तो पहुॅंचना ही नहीं चाहते। हम आम आदमी के पक्ष में होने का ढोंग कर रहे हैं,स्वयं अभिजात्य का जीवन जी रहे हैं!
आलोचक रवि भूषण (रांची) ने सत्र के अपने समापन वक्तव्य में कहा कि यह हबीब तनवीर और परसाई का शताब्दी वर्ष भी है जो लोक के साथ हैं, अभिजन के साथ नहीं। यह द्वंद्व दुनिया के तमाम देशों में है लेकिन क्या वह इसी तरह का है या इसका कोई और स्वरूप है? आज अभिजात्य का वही अर्थ नहीं है जो 18वीं -19वीं शताब्दी में था। आज बहुत सारी चीज़ें घुल -मिल गई हैं। लोक और अभिजात्य दोनों एक विशेष सामाजिक- सांस्कृतिक समूह हैं। कोई भी ऐसा समूह परिवर्तनशील होता है, इस परिवर्तन पर ध्यान देने की आवश्यकता होती है। हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामचंद्र शुक्ल अपनी आलोचना में बार-बार लोक की बात करते हैं। रामविलास शर्मा ने भक्तिकाल को लोक-जागरण का काल कहा है। मौजूदा समय की चालक शक्तियाॅं बहुत खूंखार हैं। द्वंद्व का सवाल जीवन की तमाम धाराओं से जुड़ा हुआ सवाल है। इस समय सारा आक्रमण हमारी संवेदना पर हो रहा है क्योंकि हमारे चित्त में वित्त का वास हो गया है ! उन्होंने कहा कि 1991 में नवउदारवाद व 1992 के बाबरी विध्वंस के बाद से शुरू संगमन ने बहुत जरूरी सवाल उठाए हैं। और ऐसे सवालों पर गहन मंथन किया है। अब सब कुछ तो या तो इवेंट है या इन्वेस्टमेंट । कलाकारों और बौद्धिकों का यह दायित्व बनता है कि वे इस पर बार-बार विचार करें। लेखकों-कलाकारों को यह तय करना है कि वे लोक के साथ हैं या राजा के साथ? कोई भी कला लोक-विमुख नहीं है लेकिन कलाओं को लोक-विमुख बनाने वाली शक्तियाॅं मौजूद हैं। भारत अब देश से अधिक बाज़ार है। नवउदारवादी अर्थव्यवस्था ने कलाओं को प्रभावित किया है। ऐसे में रचनाशील होना आज समय की बहुत बड़ी माॅंग है।
संगमन-25 का समापन वक्तव्य प्रियंवद जी ने दिया ।अपने जीवन काल में यह वक्तव्य स्व. गिरिराज किशोर जी दिया करते थे। प्रियंवद जी ने संगमन के शेष तीन संस्थापक सदस्यों की उपस्थिति को रेखांकित किया और कहा कि यहाॅं तक की यात्रा अविश्वसनीय लगती है!उन्होंने स्थानीय संयोजक के रूप में यशवंत पाराशर को संगमन-25 की सबसे बड़ी उपलब्धि बताया। विषय पर लौटते हुए प्रियंवद जी ने कहा कि रचनाकार कला में लोक और अभिजात्य के द्वंद्व में अपने को कहाॅं पाता है, इसे रचनाकार नहीं देख पाए। अपना मंतव्य स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि अभिजात्य का सीधा मतलब सत्ताओं से था, लोक के केंद्र में मनुष्य और कला के केंद्र में करुणा थी। यह द्वंद्व सीधा-सीधा मनुष्य और सत्ताओं का है। लेखक के पास कोई विकल्प नहीं होता है कि वह लोक के पक्ष में न खड़ा हो। सत्ताओं को, उसे पूॅंजी, धर्म या राज्य कुछ भी कहिए, करुणा से कोई लेना-देना नहीं है। जब भी मनुष्य और सत्ताओं का द्वंद्व होगा लेखक को सत्ता नहीं,लोक चाहिए।
संगमन – 25 का धन्यवाद ज्ञापन विस्तार से यशवंत पाराशर ने दिया। इस अवसर अपनी टीम के सभी साथियों को मंच पर बुलाकर उन्होंने अपने उल्लास का हिस्सा बनाया।
संगमन-25 के इस अविस्मरणीय आयोजन का गवाह बना वह ऐतिहासिक मुज़फ़्फ़रपुर क्लब , स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, जिसके पास वर्ष 1908 के प्रसिद्ध मुज़फ़्फ़रपुर बम कांड में इस क्लब से बाहर निकलते हुए खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने 30 अप्रैल को प्रेसीडेंसी चीफ किंग्सफोर्ड की बग्घी पर बम फेंकने के धोखे में मिसेज केनेडी की बग्घी पर बम फेंक दिया था। इस बमकांड में मिसेज केनेडी एवं उनकी बेटी की मृत्यु हो गई थी। बमकांड के बाद मुज़फ़्फ़रपुर से भागते हुए जब पुलिस ने दोनों को घेर लिया तो प्रफुल्ल चाकी ने खुद को गोली मार ली थी और खुदीराम बोस गिरफ्तार कर लिए गए थे। खुदीराम बोस पर मात्र पाॅंच दिन तक मुकदमा चलाकर मृत्यु दंड की सज़ा सुना दी गयी । इस सज़ा के आधार पर मात्र 18 वर्ष की उम्र में खुदीराम बोस को 11 अगस्त 1908 को फाॅंसी पर चढ़ा दिया गया था।
संगमन-25 के सत्रों के मध्य के अन्तराल में निर्देशक – सुजीत कुमार ( कलकृति आर्ट स्टूडियो मुज़फ़्फ़रपुर ) की परफॉरमिंग आर्ट ‘मनी या मनीपुर’ की अनूठी प्रस्तुति प्रतिभागियों और अन्य दर्शकों पर अमिट छाप छोड़ गई। मणिपुर में दो महिलाओं को निर्वस्त्र करके सरे बाजार घुमाने की घटना पर केंद्रित इस संवेदनशील प्रस्तुति में कलाकारों के रूप में सुजीत कुमार , दिव्य प्रकाश ,अमन दीप,मनोरंजन कुमार ,अशोक अंदाज, मेघा कुमारी,वर्षा कुमारी , विवेक कुमार , शिवम कुमार , जगमोहन कुमार,मानवी, सोफिया , वंशिका , अर्जुन ,पृथ्वी ने बहुत प्रभावित किया।
संगमन-25 में सम्मिलित अन्य प्रतिभागियों के रूप में अमरीक सिंह दीप (संस्थापक सदस्य), कमलेश, ख़ान अहमद फ़ारूख़, मनोज मोहन, मोहम्मद आरिफ़, वंदना राग, रवीन्द्र आरोही,जीवेश प्रभाकर, कमलेश आदि की महत्वपूर्ण उपस्थिति रही। उक्त के साथ-साथ अन्य उपस्थित महत्वपूर्ण लोगों में डाॅ.संजय पंकज,वीरेन नन्दा, विमल विश्वास, डॉ. भावना, डॉ. अरविंद कुमार, डॉ. संजय सिन्हा, पंखुरी सिन्हा, प्रेम सिंह,रामेश्वर द्विवेदी आदि शामिल हैं। समाजवादी चिन्तक सच्चिदानन्द सिन्हा की उपस्थिति ने संगमन-25 को विशिष्ट गरिमा प्रदान की।