बिहारी बोलियों की लोक – कथाओं का अध्ययन :: डॉ.शांति कुमारी

बिहारी बोलियों की लोक – कथाओं का अध्ययन

  • डाॅ शान्ति कुमारी

 

डॉ ग्रियर्सन ने भोजपुरी और मैथिली का अध्ययन बिहारी भाषा के अंतर्गत किया था । डॉ ० ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक “सेवन ग्रामर्स ऑफ बिहारी लैंग्वेज” में यह स्वीकार किया है कि बिहारी बोलियों में काफी समानता है, पर क्षेत्रीय भेदों के कारण विभिन्नताएँ भी हैं । डॉ. ग्रियर्सन ने व्याकरणिक रूपों को भिन्नता का आधार माना है । डॉ ग्रियर्सन ने भोजपुरी मैथिली, मगही आदि की उत्पत्ति मागची प्राकृत अपभ्रंश से मानी है । मैथिली भाषा भाषियों की नीति-विस्तारवादी है और उसके विद्वानों ने मगही, बज्जिका और अंगिका को मैथिली के अंदर मानने का प्रयास किया है । डॉ. जयकान्त मिश्र ने अपनी पुस्तक “हिस्ट्री ऑफ मैथिली लिटरेचर भाग 1, पृ ० 179 में यह स्वीकार किया है कि बिहारी भाषा मगही सहित मैथिली है । It ( Bihari means mathili alongwith Megahi )” डॉ. जयकान्त मिश्र ने भोजपुरी को बिहारी के अधिकार क्षेत्र से बाहर माना है और मगही को मैथिली की एक उप – बोली कहा है । किन्तु, डॉ. ग्रियर्सन ने 1882 में मैथिली व्याकरण लिखा था । उन्होंने मगही का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार किया है । डॉ. सुभद्र झा ने अपनी पुस्तक “फार्मेशन ऑफ मैथिली लैंग्वेज” पृ. 9 में मगही को स्वतंत्र भाषा स्वीकार किया है । विश्वनाथ प्रसाद ने कृषि कोश की भूमिका में यह स्वीकार किया है  कि व्याकरण और उच्चारण की दृष्टि से मैथिली और मगही में पार्थक्य है । शब्द रूप और क्रिया रूप में भी भिन्नता है । डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी की कृपा से ही मैथिली और मगही को साहित्य अकादमी स्थान मिलता है । डॉ.चटर्जी ने समस्त मागही प्रसूत भाषाओं को तीन वर्गों में विभाजित किया है । पूर्वी मागधी, केन्द्रीय मागधी और पश्चिमी मागधी बंगला, उड़िया और असमिया पूर्वी मागधी से निकली है तो भोजपुरी पश्चिमी मागधी से निकली है । मैथिली मगही का उद्गम डॉ. चटर्जी के अनुसार केन्द्रीय मागधी से है । मगही के विद्वानों का कहना है कि मैथिली और भोजपुरी मगही के ही अंग है , किन्तु , त्रिभुवन ओझा का यह कथन उचित नहीं है । राहुल सांस्कृत्यायन का कहना है कि मैथिली , भोजपुरी , मगही प्राचीन मागधी के ही रूप है । श्री रमण शांडित्य ने तो बिहार की जनपदीय भाषाएँ और हिन्दी ” नामक निबंध में बज्जिका और भोजपुरी को पश्चिमी मागधी के प्रसूत माना है । अतः श्री शांडिल्य के अनुसार बज्जिका भोजपुरी से अधिक सामीप्य रखती है । यही कारण है कि चंपारण की बोली – मधेशी और थारू बोली को बज्जिका कहते हैं ।

सर्वप्रथम मैं मागही लोक – कथा पर विचार करना चाहती हूँ । मगही लोक-साहित्य को प्रवहमान बनाने का श्रेय श्रीमती संपत्ति आर्याणी को है । डॉ. संपत्ति आर्याणी की पुस्तक बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा प्रकाशित है । डॉ. आर्याणी ने अपनी पुस्तक मगही लोक  साहित्य लोक कथा पर भी विचार किया है । यह पुस्तक हिन्दी साहित्य संसार द्वारा 1965 में ही प्रकाशित है । उहोंने 31 मगही लोक कथाओं की चर्चा की है । पुस्तक का प्रथम अध्याय ही मगही लोक कथाओं से प्रारंभ होता है । आपने मगही व्याकरण पर भी एक स्वतंत्र पुस्तक की रचना की है । मगही भाषा पर अब तक 33 शोध – प्रबंध प्रस्तुत किये जा चुके हैं । विद्वानों ने मगही लोक – कथा पर भी कार्य किया है । डॉ. वैद्यनाथ शर्मा   “मगही लोक गीतों की प्रेम व्यंजना” पर शोध – प्रबंध प्रस्तुत किया था । डॉ. कैलास प्रसाद ने ” मगही लोक कथाओं का अध्ययन ” विषय पर शोध – प्रबंध प्रस्तुत किया था । डॉ. नागेश्वर शर्मा ने ” मगही लोक – गाया पर ” शोध – प्रबंध प्रस्तुत किया था । डॉ. राम प्रसाद सिंह ने “मगही लोक कथाओं का लोक तात्विक अध्ययन ” पर पी-एच.डी की उपाधि प्राप्त की थी । इस प्रकार मगही लोक कथा पर दो शोध – प्रबंध डॉ. कैलास प्रसाद और डॉ. रामप्रसाद सिंह द्वारा प्रस्तुत किये गये हैं । मगही भाषा में 51 पुस्तकें कहानी साहित्य की है । किन्तु, लोक कथा संग्रह प्रकाशित रूप से कम मिलता है । श्री वासुदेव नारायण आलोक ने ” मगही लोक कथाएँ ” नाम से एक पुस्तक की रचना की है । यह पुस्तक बिहार समाज शिक्षा परिषद् द्वारा प्रकाशित है । इस पुस्तक में 11 मगही लोक कथाएँ मिलती हैं । अस्तु, मैं देखती हूँ कि मगही लोक कथाओं पर अच्छा कार्य हुआ है । डॉ. राम प्रसाद सिंह ने मगही का लोक साहित्य नामक प्रबंध में मगही की चालीस लोक कथाओं का संग्रह किया है । डॉ. नागेश्वर शर्मा ने परिषद् पत्रिका वर्ष – 7 अंक -2 जुलाई 1986 में मगही लोक-गाथाओं का परिचय नामक निबंध में मगही कथा पर भी विचार किया है । मगही के उपरान्त भोजपुरी लोक कथा की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट होता है । रास बिहारी शर्मा ने भोजपुरी को हिन्दी की उपभाषा माना है । डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने भोजपुरी को     “मध्यदेश” की भाषा कहा है किन्तु भोजपुरी बिहारी भाषा में अन्यतम स्थान रखती है । डॉ. शुकदेव सिंह ने अपने शोध – प्रबंध में यह सिद्ध कर दिया है कि कबीर के बीजक की मूल भाषा भोजपुरी है । डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय ने भोजपुरी के लोक साहित्य पर कार्य किया है, किन्तु डॉ. उपाध्याय ने अपने प्रबंध भोजपुरी लोक – कथा का उद्धरण नहीं दिया है । उन्होंने लोक – कथा की शास्त्रीय परंपरा का उल्लेख मात्र किया है । डॉ. उपाध्याय भोजपुरी लोक गीत संग्राहक के रूप में अधिक लोकप्रिय हैं । डॉ. उदय नारायण तिवारी ने ” भोजपुरी भाषा और साहित्य नाम की पुस्तक लिखकर हिन्दी संसार में भोजपुरी का मान बढ़ाया है । डॉ. तिवारी ने भोजपुरी लोकोक्तियाँ, मुहावरों और पहेलियों पर दर्जनों निबंधों की रचना की है । भोजपुरी संस्कार गीत का संपादन श्री राधा वल्लभ शर्मा ने किया है । यह पुस्तक बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा प्रकाशित है । परिषद की ओर से डॉ. शशिशेखर तिवारी की पुस्तक “भोजपुरी लोकोक्तियाँ भी प्रकाशित है । भोजपुरी लोक साहित्य के संग्रहकर्त्ता के रूप में श्री शंकर प्रसाद का भी महत्त्वपूर्ण योगदान है । श्री दुर्गा शंकर प्रसाद सिंह ने “ भोजपुरी लोक गीतों में करुण रस ” और भोजपुरी के कवि और काव्य ” नाम की पुस्तकों की रचना की है । इनकी दूसरी पुस्तक बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा प्रकाशित है । हिन्दी साहित्य का वृहद् इतिहास ( षोडश भाग ) में डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय ने भोजपुरी लोक साहित्य का परिचय प्रस्तुत किया है । डॉ. सत्यव्रत सिन्हा भोजपुरी लोक गाथा पर कार्य किया है और इनकी पुस्तक हिन्दुस्तानी एकेडमी इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित है । जब मैं भोजपुरी लोक साहित्य का विकास देखती हूँ तो पाती हूँ  कि इसके लिए सर्वप्रथम प्रयास डॉ. ग्रियर्सन ने किया था । आर्थर और रामनरेश त्रिपाठी का नाम भी भोजपुरी लोक साहित्य से सम्बद्ध रहा है । डॉ. उदय नारायण तिवारी ने भाषा विज्ञान की दृष्टि से भोजपुरी का अध्ययन किया था, किन्तु प्रासंगिक रूप से उन्होंने भोजपुरी लोक – साहित्य की चर्चा की है । पंडित गणेश चौबे ने भोजपुरी भाषा और साहित्य में भोजपुरी की लोक कथा पर भी विचार किया है । श्री वैद्यनाथ सिंह ‘ विनोद ‘ ने भी भोजपुरी लोक साहित्य नाम की पुस्तक में भोजपुरी की लोक – कथाओं की चर्चा की है । डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय ने भोजपुरी लोक – साहित्य को चार भागों में विभाजित किया है । गद्य, पद्य, मुद्रित एवं मिश्रित डॉ. इन्द्रदेव सिंह ने भी भोजपुरी की लोक कथा पर अपनी पुस्तक ‘ लोक – साहित्य सिद्धांत और प्रयोग में विचार किया है । भोजपुरी लोक कथा साहित्य पर शोध – प्रबंध प्रस्तुत कर राँची विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की है । इनके शोध-प्रबंध का निर्देशन किया था – डॉ. सिद्धिनाथ कुमार ने । डॉ. निर्भीक भोजपुरी के समर्थ लेखक और आलोचक हैं । भोजपुरी व्याकरण पर भी आपने कार्य किया है और ” भोजपुरी शब्दानुशासन ” आपकी महत्त्वपूर्ण रचना है । ” सुरतिया ना बिसरे ” डॉ. निर्भीक द्वारा रचित रेखा – चित्रों का संग्रह  है। डॉ. बच्चन पाठक सलिल ने भी भोजपुरी उपन्यास साहित्य  और निबंध साहित्य को प्रवहमान बनाया है । ” सेमर का फूल ” उनका भोजपुरी उपन्यास है और लहालोट निबंध संग्रह है । डॉ ० श्रीधर मिश्र ने भी भोजपुरी लोक – साहित्य का सांस्कृतिक अध्ययन पर पी-एचडी. की उपाधि प्राप्त की थी । इनके शोध – प्रबंध का निदेशन मनीषी भाषा वैज्ञानिक डॉ. उदय नारायण तिवारी ने किया। संप्रति बिहार में भोजपुरी अकादमी कार्यरत है। इस प्रकार मैं देखती हूँ कि भोजपुरी लोक साहित्य में लोक कथा पर जम कर कार्य नहीं हुआ है। मैथिली लोक कथा के प्रसंग में श्री दिनेश्वर लाल आनंद की “मिथिला की लोक – कथाएँ ” नाम की पुस्तक महत्त्वपूर्ण हैं । इस पुस्तक के तीन भाग ग्रंथ भंडार पटना द्वारा प्रकाशित है । इन तीनों भागों में 33 लोक कथाएँ संग्रहीत हैं । इन लोक कथाओं को हिंदी भाषा में लिखा गया है । डॉ.गिरिजा नन्दन झा ने मैथिली भाषा में मैथिली लोक – कथा – साहित्य पर बिहार विश्वविद्यालय से पी – एच.डी . की उपाधि प्राप्त की है । डॉ. अमरेश पाठक ने अपने निबंध ” मिथिला और उसकी सांस्कृतिक परंपरा ” में मैथिली लोक – कथा पर विचार किया है और बतलाया है कि लोक कथा , लोक – संस्कृति को सबल बनाती है । यह निबंध परिषद् पत्रिका वर्ष -14, अंक -4, जनवरी 75 में प्रकाशित है । डॉ ० पाठक ने अपनी पुस्तक ” मैथिली उपन्यास आलोचनात्मक अध्ययन में भी उपन्यास के विकास में लोक – कथा के अवदान को स्वीकार किया है । डॉ. कुमार विमल ने ” मैथिली साहित्य एक इसा ” नामक निबंध में मैथिली लोक कथा पर भी विचार किया है । डॉ. विमल का यह निबंध परिषद् – पत्रिका वर्ष -7 , अंक -4 , जनवरी 1968 में प्रकाशित है । मैथिली अकादमी ने कथा – संग्रह का प्रकाशन किया है उसमें मैथिली की दो लोककथाएँ मिलती हैं । मनीषी समीक्षक डॉ. कामेश्वर शर्मा ने अपनी पुस्तक बोध और व्याख्या में बिहारी बोलियों का अध्ययन प्रस्तुत किया है । डॉ. शर्मा ने ही अंगिका भाषा का उद्धार किया है और ” भागलपुरी बोली पर पी- एच.डी की उपाधि बिहार विश्वविद्यालय से प्राप्त की है । यह दुर्भाग्य की बात है कि महारथी डॉ. शर्मा को अपना सूत्रधार नहीं मानते और “ अंगिका साहित्य इतिहास ” में डॉ.शर्मा की चर्चा तक नहीं है । डॉ. शुकदेव सिंह ने अपनी पुस्तक “ भोजपुरी – हिन्दी ” में बज्जिका और अंगिका की भी चर्चा की है और इन लोक भाषाओं का भाषाशास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत किया है । श्रीरमण शॉडिल्य ने अपनी पुस्तक “ जनपदीय भाषाओं का साहित्य ” में नागपुरिया पर भी विचार किया है । किन्तु डॉ. कामेश्वर शर्मा ने नागपुरिया को भोजपुरी का एक रूप माना है । उनका कहना है कि भोजपुरी के तीन प्रधान रूप है । परिनिष्ठित , पश्चिमी और नागपुरिया । ” नागपुरिया पर मगही वाले भी अपना आधिपत्य रखते हैं किन्तु श्रवण कुमार गोस्वामी ने नागपुरी भाषा पर पी-एच. डी . की उपाधि प्राप्त की है और उनकी पुस्तक ” नागपुरी भाषा ” बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् से प्रकाशित है । मगही के विद्वानों ने मगही भाषा को चार भागों में बाँटा है ।आदर्श मगही, पूर्वी मगही, पश्चिमी मगही और मिश्रित मगही। पूर्वी मगही के अंतर्गत मगही के विद्वान् सिंहभूमि , राँची को मानते हैं जो नागपुरी भाषा का क्षेत्र है । मिश्रित मगही में वैशाली क्षेत्र को मानते हैं और इस प्रकार बज्जिका को भी अपने उदर में समा लेते हैं । मिश्रित मगही के अंतर्गत मगही के भाषा शास्त्री भागलपुर तक चले जाते हैं और अंगिका को भी हड़प लेते हैं । डॉ. अवधेश्वर अरुण  ने अपनी पुस्तक ” हिन्दी भाषा का स्वरूप विकास ” में हिन्दी और उसकी उपभाषा शीर्षक से बज्जिका और अंगिका पर विचार किया है । डॉ. अरुण  ने बाहरी के वर्गीकरण के आधार पर बिहारी हिन्दी की चर्चा की है । बिहारी हिन्दी में उन्होंने बज्जिका , अंगिका , मैथिली , भोजपुरी और मगही की चर्चा की है । अंगिका बोली का सर्वप्रथम उल्लेख 1810 ई ० में बुकानन ने किया था । बुकानन ने भृगुराम मिश्र रचित ” रास – बिहा ” को अंगिका का प्राचीन साहित्य माना है । डॉ. ग्रियर्सन ने अंगिका को मैथिली बंगाली कहा है । डॉ. सियाराम तिवारी ने अपनी पुस्तक ” बज्जिका भाषा और साहित्य ” के पृष्ठ 41 पर एक नक्शा दिया है । उस आधार पर अंगिका सहरसा, पूर्णिया, मुंगेर और भागलपुर में बोली जाती है । डॉ. माहेश्वरी ‘महेश’ ने भी ‘अंगिका’ भाषा और साहित्य नाम की पुस्तक में भी ऐसा ही कहा है । डॉ. ग्रियर्सन ने “ छिका – छिकी ” नाम से अंगिका का व्याकरण तैयार किया था । 1954 में सुबोध प्राइमरी एटलास का प्रकाशन हुआ था । यह एटलास बाल शिक्षा समिति द्वारा प्रकाशित है । उक्त एटलास के अनुसार भागलपुर , मुंगेर संथाल परगना , पूर्णिया और सहरसा अंगिका भाषी क्षेत्र थे । उक्त एटलास के पृष्ठ 23 में बिहार की हिन्दी के चार भेद हैं । भोजपुरी , मगही , मैथिली और अंगिका बज्जिका की चर्चा भी नहीं मिलती है । श्री प्रद्योत् कुमार चौधरी ने ‘अंगमाधुरी’ 1975 में एक लेख लिखकर यह सिद्ध किया है कि अंगिका बंगला उड़िया के निकट है । जैसे – जाय ( अंगिका ), जाच्छी ( बंगला ), और जाअछी ( उड़िया ) ” ।

श्री परमानंद पाण्डेय रचित ‘ सात फूल ” को डॉ. लक्ष्मी नारायण सुधांशु ने अंगिका गद्य का उदाहरण माना है । श्री परमानंद पाण्डेय के अनुसार अंगजनपद की भाषा का प्राचीन नाम आंगी था । इसकी अपनी लिपि भी थी । ललित बिस्तर में 64 लिपियों की चर्चा है जिसमें  चतुर्थ स्थान अंग लिपिका है। ‘ सात फूल’ आधुनिक अंगिका का प्रथम कृति है। इस पुस्तक का प्रकाशन बिहार समाज शिक्षा परिषद् ने 1962 में किया था। स्थान अंग लिपिका है । ‘ सात फूल ” कहानी – संग्रह है । अंगिका भाषा में  बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा संस्कारगीत का प्रकाशन हो चुका है । अंगिका भाषा पर अब तक लगभग 20 पुस्तकों की रचना हो पायी है । अंग माधुरी एक मासिक पत्रिका का भी प्रकाशन होता है जिसके संपादक श्री नरेश पाण्डेय चकोर हैं । अंगिका लोककथा पर कोई स्वतंत्र पुस्तक का अभाव है । अंग – माधुरी के अंकों में यदा – कदा लोक – कथा का प्रकाशन होता है । ‘ नहूजा दयाल ‘ लोक कथा का प्रकाशन अंग माधुरी के अंक 1 , वर्ष 7 , 1976 में हुआ है । यह लोक कथा बज्जिका क्षेत्र में भी प्रचलित है , पर कथानक दूसरा है । अंग माधुरी वर्ष 9 , 1979 के पाँच अंकों में श्री अनुपलाल मंडल का उपन्यास ” नया सूरज नया गाँव ” धारावाहिक रूप में प्रकाशित है । श्रीमंडल हिन्दी के भी प्रसिद्ध उपन्यासकार रहे हैं । अंगिका क्षेत्र में एक ‘ डोरा कथा चलती है जिसका पद्य – वद्य रूप मिलता है ।

“ आरो बारी सीन किआरी

तहाँ बइठली कन्या कुमारी

कि माँगेक

सिर भरी सेनुर गोदी भरी पूत । ”

इस प्रकार अंगिका साहित्य में लोक – कथा विषयक मुद्रित पुस्तक का अभाव है । इस प्रकार बिहार की भाषाओं में लोक कथा की स्थिति का परिशीलन करने पर मैं कह सकती हूँ कि सभी भाषाओं में लोक – कथा पर थोड़ा बहुत काम हुआ है और आगे भी हो रहा है ।

 

बज्जिका लोक – कथा – संग्रह का इतिहास

डॉ. सियाराम तिवारी ने 1964 में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के मंच से “बज्जिका भाषा और साहित्य” पर निबंध पाठ किया था । डॉ्. तिवारी ने प्रथम बार बज्जिका भाषा का भाषा वैज्ञानिक एवं वैयाकरणिक अध्ययन प्रस्तुत किया था । डॉ.तिवारी ने उक्त निबंध में बज्जिका लोक कथा की भी  चर्चा की है । डॉ. श्रीरंग शाही ने ‘बज्जिका ‘मासिक पत्रिका में कतिपय बज्जिका लोक कथाओं को प्रकाशित किया था । डॉ.अजीत नारायण सिंह ‘ तोमर रचित बज्जिका कहानी संग्रह ” परतछ के परमान की ” का भी इस परंपरा में ऐतिहासिक महत्त्व है । यह बज्जिका का प्रथम प्रकाशित कहानी संग्रह है , जिसका प्रकाशन बिहार समाज शिक्षा परिषद् के द्वारा हुआ था । 1963 ई. में राम दयालु सिंह कॉलेज पत्रिका में डॉ. श्रीरंग शाही की एक  ‘ लोक कथा ‘ चार दोस्त ” प्रकाशित है । इसे प्रारंभिक बज्जिका का गद्य रूप माना जाता है ।

इस लोक – कथा में जीवनोन्नयन के लिए संदेश प्राप्त होता है । बज्जिका में श्री मुनीश्वर राय ‘ मुनीश ने सात लोक लोक – साहित्य नाम की पुस्तक प्रकाशन सन् 1971 में हुआ है ।   ” गुल दाउदी के फूल ” बगुली भागल जाय, सोना के सुग्गा, दुसाध के तरकी, पांडताइन आ बरम्ह पिचास भूत आ सरारती लरिका और मुसहरनी का नागिन आदि लोक – कथाओं को श्री मुनीश ने संकलित किया है । निर्मल मिलिन्द ने सनेस और रमण शांडिल्य ने बज्जिका साहित्य पत्रिकाओं में बज्जिका लोक कथाओं को प्रकाशित करने की चेष्टा की है ।

चन्द्रमोहन द्वारा संपादित बज्जी भारती में भी एक लोक – कथा मिलती है । श्री देवेन्द्र राकेश द्वारा संपादित ‘ समाद ‘ में भी कभी – कभी लोक कथा का प्रकाशन होता है । श्री रघुनाथ “ विमल ” द्वारा प्रस्तुत पतांग झा और रतउनी दो लोक कथाओं का प्रकाशन समाद में हुआ है । डॉ ० श्रीरंग शाही द्वारा संपादित बज्जिका ‘ मासिक ‘ में 1963 में पाँच लोक कथायें प्रकाशित हो चुकी हैं । अकिल के बात , ‘कनिया केकर ‘महत्वपूर्ण लोक कथाएँ हैं ।

आचार्य नलिन विलोचन शर्मा द्वारा संपादित लोक कथा परिचय में भोजपुरी , मगही , और मैथिली की लोक कथाओं का परिचय प्रस्तुत किया गया है । इनमें 125 लोक कथायें बज्जिका क्षेत्र में भी प्रचलित हैं । बज्जिका लोक – कथा को प्रकाश में लाने का अधिक श्रेय डॉ. श्रीरंग शाही को है । डॉ. शाही ने अपने शोध – प्रबंध ” बज्जिका लोक – साहित्य का अध्ययन ” में तेरह लोक कथाओं को प्रस्तुत किया है । डॉ ० योगेन्द्र शर्मा ने अपने शोध – प्रबंध ” वैशाली क्षेत्र की भाषा और साहित्य ” में दो लोक कथाओं को प्रस्तुत किया है । डॉ ० श्रीरंग शाही ने नन्दन पत्रिका के लोक कथा विशेषांक में भी वैशाली की लोक कथा नाम से भगवान महावीर के संबंध में एक लोक कथा को प्रकाशित कराया है । डॉ. शाही की बज्जिका लोक कथा बालभारती , उत्तर बिहार , समाद आदि पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुई है । इधर डॉ. श्रीरंग शाही की एक पुस्तक प्रकाशित हुई है ” बज्जिका बत्तीसी ” इस पुस्तक में बज्जिका की बत्तीस लोक कथाएँ मिलती हैं । सिंहासन बतीसी की परंपरा में यह संग्रह प्रस्तुत किया गया है । इन लोक कथाओं में जातक कथाएँ , भगवान महावीर से संबंधित कथाएँ और पौराणिक कथाएँ हैं । इस लोक कथा – संग्रह का संपादन कर डॉ ० शाही ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है । मैंने भी शोध – कार्य के क्रम में बज्जिका 325 लोक – कथाओं का संग्रह किया है । इस संग्रह के आधार पर मैं बज्जिका लोक कथाओं का विश्लेषण इस प्रबंध में की हूँ । सब मिलाकर बज्जिका लोककथा संग्रह का इतिहास नया है । बज्जिका के लिखित साहित्य का शुभारंभ 1961 से ही होता है । इस बीस वर्ष की अवधि में बज्जिका के लोक साहित्य और कलात्मक साहित्य की लगातार उन्नति हो रही है ।

उन्नीसवीं शताब्दी में जब अंग्रेजों ने भारत का शासन सूत्र अपने हाथ में ले लिया तब कतिपय विद्वानों ने लोक साहित्य के संग्रह का कार्य शुरू किया था । 1784 ई. में सह –  विलियम जोन्स ने एशियाटिक सोइटी ऑफ बंगाल की स्थापना की थी । इस संस्था ने शोध का मार्ग प्रशस्त किया था । ईसाई धर्म के प्रचारकों ने जनता की भाषा को धर्म प्रचार का माध्यम बनाया था । 1866 ई. में रिचार्डटेम्पुल ने लोक – कथाओं का संग्रह प्रकाशित किया था । और पुनः फ्रेयर ने ‘ओल्ड डेकन डेज’ में लोक कथाओं को प्रस्तुत किया था । 1871 में डाल्टन ने “ डिसक्रिटिम एतथेलॉजी ” और डेमन्ट ने ” इंडियन एण्टीक्वेरी ” का प्रकाशन किया था । डेमण्ट ने बंगाल की लोक कथाओं का संग्रह किया था । 1879 में उनकी मृत्यु हुई और उन्होंने आजीवन लोक – कथा संग्रह कार्य किया था । रैवरैण्ड लाल बिहारी ने 1888 ई. में फोकटेल्स ऑफ बंगाल का प्रकाशन किया था । टेम्पल और एफ. 30 स्टील के संयुक्त संपादन में वाइड एवेक स्टोरिज ” का प्रकाशन हुआ था । पुनः नरेशशास्त्री ने ” इंडियन एण्टीक्वेरी ” में लोक कथाओं को संग्रहित किया था । डब्लूकूक को भारत में सर्वश्रेष्ठ लोक वार्ता शास्त्री माना जाता है । उन्होंने 1890 ई. में ” इंडियन नोट्स एण्ड क्वरीज ” नाम की पत्रिका का भी प्रकाशन किया था । केसवेल और नीलिज दो मिशनरी थे जिन्होंने संथाल परगना और कश्मीर की लोक कथाओं का संग्रह किया था । वर्तमान शताब्दी के प्रारंभ में तीन महत्त्वपूर्ण प्रकाशनों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट होता है । आर.एस. मुखर्जी ने ” इंडियन फोक लोर ” श्रीमती डाकोटिकट ( शिमला मिलेज टेल्स ) और स्विनर्टन का रोमांटिक टेल्स ऑफ पंजाब महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है । 1909 ई. में सी.एच. बोम्पस आई.सी.एस. ने संघाली लोक कथा पर काव्य किया था । द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त पुस्तकें अंग्रेजी भाषा में प्राप्त होती हैं । एम. कूलक ने ” बंगाली हाउस होल्ड टेल्स ” और शोभना देवी ने ” ओरियन्ट , पर्ल्स ” का प्रकाशन किया था । पार ने मिलेज फोकटेल्स ऑफ सिल्योन का संपादन किया था । लोक – कथा के संग्रह के दिशा में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य मिस फ्रायर ने किया । उनकी पुस्तक ” ओल्ड डेकन डेज ” महत्त्वपूर्ण है । मिस फ्रेयर बम्बई के गवर्नर सर वाल्टाफ़ेयर की पुत्री थी । शेख चिल्ली ने भी फोक टेल्स ऑफ हिन्दुस्तान का प्रणयन किया था । एफ ० यू ० स्टील ने दो लोक कथायें अंग्रेजी में लिखी दि टाइगर और दी ब्राह्मण एण्ड दि जैकाल पाश्चात्य विद्वानों में दर्जनों ने भारतीय लोक कथाओं का अंग्रेजी अनुवाद किया है, जिनमें बोम्पस और मिल्स का अनुवाद त्रेण्य माना  जाता है।फोकटेल्स और महाकौशल में बोम्पस ने अद्भुत कला क्षमता का परिचय दिया है । इस प्रकार मोटास ने लम्फील्स , जामिन ब्राउन , एयेन्यू आदि अमेरिकन विद्वानों ने भी भारतीय लोक – कथा की दिशा में भागीरथ प्रयास किया था । बुडफिल्ड ने तो भारतीय लोक कथा का विश्वकोश तैयार करने का भार उठाया था । डॉ. एलविन ने लोक – कथा के स्वरूप और विकास पर सारगर्भित और वैज्ञानिक शोध – निबंध भी लिखा है । डॉ. सत्येन्द्र ने भी नर्मन ब्राउन के अवदान को स्वीकारा है और कहा है कि उन्होंने तीन हजार लोक – कथाओं का संग्रह किया था। हिन्दी में शिव सहाय चतुर्वेदी की सेवाओं का उल्लेख किया है और उन्होंने पाश्चात्य विद्वानों की भी चर्चा की है । ग्रियर्सन की रचनाओं में लोक – कथा का रूप प्रायः नगण्य है । इस प्रकार पाश्चात्य विद्वानों ने संस्कृत साहित्य लोक – गीत, लोक गाथा, लोक कथा, लोकोक्ति आदि पर विशेष ध्यान दिया था । अंग्रेजी भाषा में बिहार की लोक – कथाओं पर भी विचार किया गया है । ” टैल्स फ्रोम विद्यापति ” नाम की पुस्तक में विद्यापति की दस लोक – कथाओं का संग्रह मिलता है । श्री पी. सी. राय चौधरी की पुस्तक ” फोकटैल्स ऑफ बिहार ” साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित है । नेशनल बुक ट्रस्ट ने भी पी. सी. राय चौधरी की पुस्तक ‘ फोकटेल्स ऑफ बिहार ” का प्रकाशन 1976 में किया है । इस ग्रंथ मे भी बिहार की सात लोक कथायें संग्रहित हैं । डॉ. एल. पी. विद्यार्थी ने भी अपनी पुस्तक ” बिहार इन फोक लोर स्टडी ” में लोक – कथाओं पर विचार किया है । चिल्ड्रेन बुक ट्रस्ट ने भी लोक – कथाओं का प्रकाशन अंग्रेजी में किया है ।

इस प्रकार मैं देखती हूँ कि अंग्रेजी भाषा में भी भारतीय एवं बिहारी लोक – कथाओं पर कार्य हुआ है । इधर हिन्दी की बोलियों में लोक – कथाओं की विश्लेषण की और विद्वानों का ध्यान आकृष्ट हुआ है और इस पर लगातार कार्य हो रहा है । मेरा अध्ययन इसी परंपरा की एक कड़ी है ।

 

संदर्भ

1 एम. विन्टरनिज , इंडिया लिटरेचर , पृ०-31

2 डॉ. श्री कृष्णदेव उपाध्याय – भोजपुरी लोक साहित्य , पृ०-408

3 डॉ. राम खेलावन पाण्डेय , भारतीय संस्कृति एक परिचय , पृ०-76

4 डॉ. श्री कृष्णदेव उपाध्याय – भोजपुरी लोक साहित्य , पृ०-409

5 डॉ. जगदीश चन्द्र जैन – भगवान महावीर , पृ०-73

6 हिन्दी साहित्य का वृहद् इतिहास ( षोडश भाग ) , पृ०-429

7 डॉ. कामेश्वर शर्मा , बोध और व्याख्या , पृ०-442

8 डॉ. अभयकान्त चौधरी , नरेश पाण्डेय ‘चकोर “, अंगिका साहित्य का इतिहास , पृ०-14

 

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