विशिष्ट कहानीकार : ए.असफल
किंबहुना
– ए. असफल
जीएम मीटिंग लेने वाले थे। आरती के हाथ पाँव फूल रहे थे।
फाउन्डेशन की एक और प्रोजेक्ट आफीसर नीलिमा सिंह उसे नष्ट कराना चाहती है। जीएम से व्यक्तिगत सम्बंध हैं उसके। स्ट्रेंथ मुताबिक फाउन्डेशन में प्रोजेक्ट आफिसर की एक ही पोस्ट है। पहले वह जयपुर में थी तो सुखी थी। कोई प्रतियोगी न था। पर मुम्बई मैनेजमेन्ट ने उसका तबादला यहाँ रवान में कर दिया। एक साल में कड़ी मेहनत और संघर्ष से उसने काम जमा लिया तो कटनी फाउन्डेशन से अचानक नीलिमा भी यहीं आ गई। उसके आ जाने से पोस्ट सरप्लस हो गई। आरती पर एक बार फिर तबादले की तलवार लटक गई। पता न था, एक साल बाद ही यह गाज गिरने लगेगी। नीलिमा की तरह वह किसी को मैनेज नहीं कर सकती। वह तो ठहरी भावुक कवि-हृदय। आए दिन होने वाली इन बातों से इतना तनाव रहने लगा कि वह अपना लिखना-पढ़ना और बच्चों के साथ हँसना-बोलना भूल गई।
सिर तनाव से फटा जा रहा था। डेढ़ दो घंटे से फोन पर भाभी से दुखड़ा रो रही थी। उसने रास्ता बताया कि रेखा को फोन कर लो, दीदी। रेखा रायपुर में पुलिस इंस्पैक्टर है। उसके मामा श्वसुर भिलाई केपी सीमेंट में डीजीएम हैं। और भाभी ने ही यह क्लू दिया था कि, दीदी आपके सीमेंट फाउन्डेशन के जीएम से उनका जरूर कुछ न कुछ परिचय निकल आएगा! उनके एक फोन से ही आपको राहत मिल जाएगी।
तब उसने रेखा को फोन लगाया और सारी बात बताई तो उसने उनका नम्बर दे दिया।
दिन भर की ऊहापोह के बाद बहुत हिम्मत कर गई शाम फोन लगाया उसने, कहा, जी मैं रेखा की बड़ी बहन आरती, बलौदा बाजार से…आवाज काँप रही थी।
जी, कहें, उधर से आत्मीय स्वर सुनाई दिया।
जी, कैसे कहें, वह अजीब हिचकिचाहट से भरी थी।
कहें ना! आप तो रिश्तेदार हैं। केशव ने फोन पर बता दिया है कि आपकी कुछ आफीसियल प्राब्लम है।
हिचकिचाहट इसलिए कि रेखा ने केशव नेताम से लव मैरेज की थी, तब उसने, माँ ने, भाई ने किसने विरोध नहीं किया! असल वजह यही कि हम कायस्थ, वे आदिवासी। और उसने खुद समझाया कि प्यार-व्यार कुछ नहीं होता। तुम्हें पता है, मैं खुद भी कर के देख चुकी हूँ! शादी अपनी जाति में ही करना चाहिए।
पर केशव पुलिस में इंस्पैक्टर थे। रेखा आदिवासी समुदाय में अंतर्जातीय विवाह का लाभ देख रही थी। आरक्षण पा कर वह अच्छी नौकरी में जाना चाहती थी। अव्वल तो पुलिस में।
किसी की एक न चली। अपनी कौन चला पाता! पापा का दिमाग तो एक्सीडेंट के कारण बच्चों जैसा हो गया था। भाई बेरोजगार और माँ की कौन सुनता! जब उसने खुद नहीं सुनी। मुस्लिम समुदाय के एक व्यक्ति से बात कर बैठी और घर को बताए बिना कोर्ट मैरिज कर ली!
वह किस हैसियत से रोकती रेखा को। भले उम्र में बड़ी और अनुभवी थी। लव-मैरिज का खामियाजा भी भुगत रही थी!
बोलिए ना! फिर वही आत्मीय स्वर।
जी, आवाज कट रही है। शायद, बैटरी लो पड़ गई है… उसने बचने की कोशिश की, थोड़ी देर बाद फोन लगाती हूँ, जी!
तब थोड़ी देर में वाट्सएप पर एक अपरिचित नम्बर से मैसेज आया, नमस्ते! नीचे नमस्ते की मुद्रा में जुड़े हुए गेहुँआ रंग के हाथ!
डीपी पर उँगली रखी तो भरी-भरी मूँछों वाला एक साँवला पुरुष मुस्कराने लगा।
रात से ही सिर भारी था। सुबह देर से नींद खुली और बच्चों को भी नहीं उठाया पढ़ने के लिए, जो बिना जगाए कभी जागते नहीं। उन्हें कोई परवा नहीं जब तक सिर पर माँ है। पता है, पिता होकर भी नहीं। एक वही है जो घर बाहर सब दूर खट रही है…। पर बच्चे तो बच्चे ठहरे, उन्हें इतनी समझ कहाँ? उसने सोचा और दौरे की दुष्कल्पना कर फिर से बहन के मामा श्वसुर का नम्बर डायल कर दिया! भरत मेश्राम, एक नम्बर जो अब नाम था, स्क्रीन पर चमकने लगा। और जैसे ही फोन उठा, बात करते उसकी साँस फूलने लगी, जी, नमस्ते!
जी, कहें! अपना मान कर कहें सब कुछ, घबराएँ नहीं।
जी, वो, रवान, सिंधुजा सीमेंट फाउन्डेशन के जीएम साब दुर्रानी जी से आप कह दीजिए!
सारी! आप उन्हें जानते हैं क्या?
दुर्रानी! हाँ जी, बिल्कुल! क्या कहना है, बताएँ!
जी यही कि इंस्पेक्शन के बहाने बेवजह नोटिस वगैरह न दें!
ऐसा लगता है, आपको!
हाँ!
क्यों?
हम सरप्लस हैं तो किसी बहाने से भगा देना चाहते हैं!
आप जूनियर हैं या सीनियर?
जी, सीनियर!
फिर तो मुश्किल है… और अपने कुलीग से एज में!
जी, छोटे!
तब रास्ता निकल सकता है…
जी, और इसलिए भी कि हम तो खाली पोस्ट पर ही आए, बाद में कटनी बीसीसी फाउन्डेशन से एक और प्रोजेक्ट आफीसर यहाँ ट्रान्सफर लेकर आ गई तो पोस्ट सरप्लस हो गई!
लेकिन बीसीसी से कैसे, सिंधुजा और वो तो अलग-अलग कम्पनी हैं!
जी! अलग ही थीं, पर पिछले महीने ही बीसीसी, सिंधुजा में मर्ज हो गई और ये मुसीबत का पहाड़ हम पर ही टूट पड़ा…
अरे-हाँ, मुझे तो खयाल ही नहीं रहा, इनका विलय हो गया!
कहो, छँटनी हो जाए, कहते उसकी आवाज भीग गई।
ऐसे कैसे हो जाएगी, कितने साल हो गए?
जी, तेरह!
घबराएँ नहीं, कुछ न बिगड़ेगा…कोर्ट किसलिए है?
जी, वो तो है पर सुना है, जयपुर और कटनी में तो सततर-अस्सी लोगों की छँटनी हो गई!
कह कर वह रोने लगी तो भरत को जवाब न सूझा। पर थोड़ी देर बाद उसने ढाढ़स बँधाया, दुर्रानी से मैं बात करता हूँ और शाम तक वहाँ आने का प्रयास करूँगा…तुम अपना प्रेजेंटेशन ठीक से देना!
बिटिया सात में पढ़ती थी, बेटा तीन में। दोनों रवान स्थित फाउन्डेशन के स्कूल में ही भरती कराए थे। जबकि मकान उसने बलौदा बाजार की जैन कालोनी में ले रखा था। स्कूल बस बच्चों को सुबह ले जाती और दोपहर में छोड़ जाती। वह भी अपनी स्कूटी उठा कर नियमित सुबह आठ बजे अपने रवान स्थित दफ्तर में पहुँच जाती। सो, जल्दी से बच्चों को उठा, उल्टा-सीधा नाश्ता बना उन्हें विदा कर दिया और खुद देह पर उल्टा-सीधा पानी डाल, झटपट कपड़े पहन जल्दी से निकल पड़ी।
दिमाग में पूर्ववत् हलचल मची हुई थी। पिछली समस्याएँ और आफिसियल टेंशन तो था ही, एक नया झंझट यह भी कि बहन के मामा श्वसुर शाम को आ सकते हैं। मानों आ गए और छह के बाद आए तो सीधे घर ही आएँगे। किराए का घर, दो कमरे, जिसमें फ्रिज और सोफा तक नहीं, कितनी शर्म लगेगी उसे। और मानों रात को रुक गए तो घर में तो कोई गेस्टरूम भी नहीं! कहाँ ठहराएगी उन्हें? इतने बड़े अफसर और मान्य! कैसी भद्द होगी…। बड़ी आई प्रोजेक्ट आफीसर! बहन कीे भी आँख नीची होगी, न। यही करेगी कि प्रेजेंटेशन देते ही फोन लगा कर बोल देगी, सब अच्छे से निबट गया। आप यहाँ आकर परेशान न हों, दुर्रानी साब ही कभी भिलाई या रायपुर जाएँ तो मिल लें, बता दें, हमारी रिश्तेदार हैं! तो फिर कभी तंग न करेंगे।
पर मीटिंग में बहुत खींचतान हुई। इतनी कि कई बार वह रोने को हो आई। नीलिमा उसे देख देख मुस्काती रही। उसका प्रेजेंटेशन तो बहुत बढ़िया रहा बड़ी शाबाशी मिली उसे। पर आरती को सौ झिड़कियाँ। बीच में दबी जुबान यह भी कह दिया दुर्रानी ने कि पेपरवर्क के अलावा, फील्डवर्क भी देखेंगे किसी दिन।
तब उसकी हिम्मत नहीं रही कि भरत जी को ओके रिपोर्ट देकर आने से रोक दे। क्लेश में लंच भी न लिया। चार बजे उसका फोन आया तो उसने कह दिया कि- देख लीजिए, आपको परेशानी न हो तो आकर समझा दीजिए! मिल लीजिए उनसे, प्रेजेंटेशन तो अच्छा नहीं रहा।
साढ़े पाँच पर जब दफ्तर बंद होने लगा, नीली कार परिसर में दाखिल हो गई। वह सीधा जीएम के पास पहुँचा और आरती को वहीं बुला लिया। पहली बार अपने अफसर के केबिन में बैठ कर कोल्डड्रिंक्स ली और अपनी मेहनत बताई कि सर आप फील्ड में चल कर अवश्य देखिए। क्षेत्र की कितनी महिलाओं को जागरूक किया है, आत्मनिर्भरता हेतु प्रेरित किया है, कितने कार्यक्रम कराए हैं और…
देख लेंगे, देख लेंगे, रिलेक्स प्लीज! दुर्रानी ने मुस्कराते हुए कहा।
आरती सोचने लगी कि क्या यह वही अधिकारी है जो दोपहर में बाल की खाल खींच रहा था! बहनोई के मामा के प्रति उसका दिल एहसान से भर गया। केशव का फोन आया था दिन में, उसने कहा था, दीदी आप टेंशन न लो, मामा निबटा देंगे! उनके लिए ये कोई बड़ा काम नहीं। पर उसे यकीन नहीं हुआ था।
केबिन से दोनों साथ निकले तो भरत ने कहा, चलिए, आपके आफिस चल कर बैठते हैं, फिर निकल जाएँगे।
आरती ने घड़ी देखी, सवा छह बज चुके थे।
आफिस तो बंद हो गया! वह बोली।
फिर असमंजस में वह अपनी गाड़ी की ओर घूमा तो वह हिचकिचाती हुई बोली, घर चलिए, बच्चों से मिल कर चले जाइएगा…
ठीक है, चलिए उसने कार की ओर इशारा किया।
मेरे पास स्कूटी है, उसने सोचते हुए कहा, ऐसा करते हैं, आप हमारे पीछे-पीछे आ जाइए!
मेश्राम सहज ही तैयार हो गया। और परिसर से वह सफेद स्कूटी पर निकली तो नीली कार उसके पीछे लगा दी। संयोग से वह नीले सूट में, नीली गाड़ी में था और आरती सफेद लेगी-कुर्ती में, सफेद स्कूटी पर। और यह बहुत सहज और स्वाभाविक ही था जो दोनों अपने-अपने वाहन ड्राइव करते हुए एक-दूसरे की छवि अपने मन में बसाए हुए चल रहे थे।
बलौदा बाजार वहाँ से आठ-नौ किलोमीटर दूर था, सड़क बहुत खराब थी, पर वे पलक झपकते ही पहुँच गए, तो यह करिश्मा ही था। एक नई शुरूआत थी दोनों के लिए। क्योंकि पति के होते परित्यकताओं सा जीवन जीती आरती संसार में अकेली खट रही थी तो पत्नी के होते भरत चार साल से एकाकी जीवन व्यतीत कर रहा था, जिसकी पत्नी अपने माइके चली गई थी, कभी न आने के लिए।
गली से आती स्कूटी की आवाज सुन और खिड़की से देख बच्चों ने गेट खोल दिया। स्कूटी चढ़ाते-चढ़ाते उसने समझाया कि एक अंकल आए हैं, ठीक से नमस्ते करना। तब तक कार आ गई जिसे मेश्राम ने साइड में लगा दिया। उतर कर लाक की तब तक आरती भी स्कूटी अंदर रख कर बाहर आ गई। पहले से तैयार दोनों बच्चों ने हाथ जोड़ और मुस्करा कर नमस्ते किया। इस बीच बेटे को उसने पाँव छूने का इशारा किया और वह झुका तो भरत ने उठा कर गले से लगा लिया। वह कुछ समझता नहीं था, पूछा, माँ, ये पापा हैं!
आरती सकपका गई, वह कुछ कहती इससे पहले ही भरत ने उसका गाल चूमते हुए कहा, हाँ, बेटा, पापा ही समझो!
पर लड़की को पापा का चेहरा याद था। उसने उसे पापा नहीं समझा।
संकोच में डूबी आरती उनके साथ ही अंदर आ गई।
पापा को बाहर नहीं बिठाया जाता, इसी अधिकार के तहत बेटा उसका हाथ खींचता उसे बेडरूम में ले आया। बिटिया सहज संकोच से भरी किचेन में माँ के पास चली गई। दोनों ने एक-दूसरे की ओर बिना देखे पोहे का नाश्ता और चाय तैयार कर ली।
एक घंटे तक सभी के साथ मधुर आत्मीय बातें कर भरत मेश्राम वापस चले गए। आरती ने रोका नहीं।
सात-आठ दिन शांति से कट गए। इस बीच वाट्सएप पर रोज सुबह भरत जी की ओर से जिन्हें तमाम कोशिश के बावजूद वह मामा जी नहीं कह पाई, सर जी और जी सर ही बोलती, फूलों का गुलदस्ता आ जाता। जानबूझ कर काफी देर बाद वह गुडमार्निंग सर बोलती। लेकिन रात में फिर सोने से पहले गुड नाइट आ जाती और जुड़े हुए गेहुँआ हाथ तो वह गुडनाइट सर लिख कर छुट्टी पा लेती। लेकिन जब मैनेजमेन्ट ने उसे बताया कि मुम्बई से विजिटिंग आफीसर दौरे पर आ रहे हैं, वे आपके फील्ड का भी दौरा करेंगे तो फिर से उसके हाथ-पाँव फूल गए।
यों फील्ड वर्क में कच्ची नहीं थी वह। बालिका दिवस हो चाहे गणतंत्र, महिला, कठपुतली, जल संरक्षण, क्षयरोग, विश्व स्वास्थ्य, मलेरिया, श्रमिक, रेडक्रास, प्रोद्योगिकी, बाल रक्षा, पर्यावरण, रक्तदान, नशामुक्ति, स्वतंत्रता, साक्षरता, पोलियो और एड्स दिवस; फील्ड में मजमा लगा देती। बचपन से ही बच्चों और महिलाओं के लिए कुछ करने का जज्बा जो था। क्योंकि अपनी माँ, छोटे भाई-बहनों और खुद को बेसहारा देखा था। इसीलिए जब डाक्टर, पेथोलोजिस्ट, टीचर कुछ नहीं बन सकी तो बीए के बाद समाज कार्य में एमए कर लिया। और जो सपना देख-देख कर बड़ी हुई, जब सिंधुजा में उसी कार्य के लिए नियुक्त हो गई तो बेसहारा महिलाओं को सहारा देना शुरू कर दिया। अब तक कई एक महिलाएँ जागरूक होकर, और हुनर पाकर अपना भविष्य बनाने में सफल हो चुकी हैं। कई और उसका लक्ष्य हैं जिनकी कहानी बड़ी दुख भरी और दर्दीली है। उसका प्रयास है कि ये महिलाएँ इस काबिल बन जाएँ कि वे अपना अच्छा बुरा खुद सोच सकें, अपना भविष्य खुद बना सकें।
महिलाओं के हकों के लिए समर्पित आरती अक्सर एक अनोखे जुनून से भरी होती है। गाँव-गाँव बनाए महिला समूहों में अक्सर वह एक ही बात बोलती है कि महिला न असमानता सहेगी न हिंसा। शोषण हरगिज बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। सम्पत्ति, शिक्षा और निर्णय ही नहीं; हम स्वास्थ्य और प्रजनन के अधिकारों के लिए भी अनवरत लड़ेंगे।
गाँव-गाँव वह महिला अधिकार यात्रा रैली निकालती है। यात्रा में सिर्फ महिलाएँ नहीं, अधिकार की लड़ाई में कंधे से कंधा मिला कर चल रहे प्रबुद्ध पुरुष भी साथ होते हैं।
हिंसा के विरोध की आँच बिखेरते रिकार्डेड भाषणों को लोग ध्यान से सुन रहे होते हैं। बैनरों, पोस्टरों पर लिखे नारों को लेकर महिलाओं के खिलाफ हिंसा का अंत करती यात्रा एक गाँव से दूसरे गाँव पहुँचती है। भागीदार सभी महिलाएँ वहाँ शोषण के समग्र प्रतिकार की शपथ लेती हैं।
वह अक्सर कहती है कि महिलाओं के प्रति हिंसा, शोषण और गैर-बराबरी लगातार बढ़ती जा रही है। लेकिन इसी रफ्तार में प्रतिरोध भी पनप रहा है। हम महिलाओं के हकों को अंजाम देने के लिए ही निकले हैं। आरती का जनम तो इसी के लिए हुआ है।
आधा समय दफ्तर में कामकाज निबटाने के बाद वह हेलमेट पहन और स्कूटी पर सवार हो, फील्ड के लिए निकल जाती है। खाने की उसे परवाह नहीं और न मौसम की। गर्मी में भुन-भुन कर ऐसी तप गई है कि उसे कूलर या एसी में जुकाम हो जाता है। लंच उसने कभी तीन बजे से पहले नहीं ले पाया। जबकि घर से बमुश्किल एक चाय और आधी कटोरी पोहा जल्दी सल्दी गटक कर निकलती है। जो कुछ ले जाती है रोटी-पराँठा, फील्ड में ही खा पाती है, किसी कार्यकर्ता के घर या बीच कार्यक्रम में किसी महिला के याद दिलाने पर कि दीदी, खाना लिए हो कि नहीं!
तब भी मुसीबत में पड़ गई आरती, क्योंकि नीलिमा पीछे पड़ी है। जगह तो एक ही है। सीट पर आरती बैठी है इसलिए उस पर कोई चार्ज नहीं। एजीएम की सहायिका है नाम भर के लिए। और उसे कुछ करना नहीं, उस पर कोई जिम्मेदारी नहीं, तो उसकी क्या मानीटरिंग! आरती टारगेट भी पूरा करे और नोटिस भी झेले कि कार्य संतोषजनक नहीं। इसी कारण इस साल इंक्रीमेंट नहीं लगा। और नीलिमा का वेतन उससे ज्यादा हो गया।
हारकर उसने भरत जी को फिर फोन लगाया और अपनी विपत्ति बताई।
वह बोला, शांति से सो जाओ, सुबह आ जाऊँगा।
नहीं, आप न आएँ, आप हमारे लिए यों कब तक दौड़ेंगे! उसने दर्दीली आवाज में कहा।
इतना तो फर्ज बनता है, हम आपके रिश्तेदार हैं। अपना समझें, कोई बोझ न मानें और शांति से सो जाएँ, सुबह फील्ड में तो खटना ही पडेगा।
जी! पर नींद नहीं आ रही।
क्यों नहीं आ रही, अच्छा… कुछ गा गुनगुना लीजिए।
तो थोड़ी हिचक के बाद उसने गाया, जीवे तेरी यारी, ओ-रब्बा…
गीत के बोल और दर्दीली आवाज सुन भरत बहुत मुतास्सिर हुआ। उसने बेहद आजिजी से कहा, वश नहीं है, वरना अभी आ जाते!
अरे… वाक्य उसने अधूरा छोड़ दिया।
हाँ!
सो-जाइए!
कैसे, नींद तो हमें भी नहीं आ रही।
क्यों?
पता नहीं क्यों, फिर रुककर बोला, ऐसा पहली बार हुआ।
अच्छा…
हाँ!
अरे- सो जाइए, हम भी सोते हैं। ओके गुड नाइट!
गुडनाइट!
फोन उसने काट दिया। बेटी-बेटा आपस में गुत्थमगुत्थ सो रहे थे। वह भी लेट गई, पर नींद को तो सुर्खाब के पर लग गए थे। क्योंकि फिर एक नई शुरूआत के चलते वह अतीत के गर्त में डूब गई थी। उसे अपने पैत्रिक नगर की याद आ रही थी, जहाँ वह सुबह-सुबह झील पर पहुँच जाती और घाट की सीढ़ियों पर बैठ सुंदर सूर्योदय देख उठती। वहीं मन की फसल से अल्फाज के दाने फूट पड़ते और कविता की लड़ियाँ बनती चली जातीं…। लेकिन पापा के एक्सीडेंट ने पूरे परिवार को तहस-नहस कर दिया। सहारा पाने के लिए उसने एक पुरुष का साथ किया तो उसने धोखा देकर कोर्ट मैरेज कर ली, उस घर में जाकर आरती की जिंदगी तवाह हो गई। क्योंकि वह तो आलसी, मक्कार और अव्वल दर्जे का धूर्त था। उसने तो पहले से ही एक औरत रख छोड़ी थी। आरती के परिवार को सहारा देने के बजाय वह उससे नौकरों की तरह काम और घर खर्च चलाने के लिए नौकरी करवाने लगा। और उस नौकरी में भी अपार संकट आ गए, सर पर छँंटनी की तलवार लटक गई!
सुबह वह जल्दी जल्दी तैयार होकर निकल ही रही थी कि भरत जी का फोन आ गया। उन्होंने बताया कि मुम्बई से सिंधुजा रवान में जो विजिटिंग आफीसर दौरे पर आया है, वो मेरे ब्रदर राम का फ्रेंड है। उसने फोन कर दिया है। तुम सिर्फ परिचय दे देना कि- सर हम राम मेश्राम जी के रिश्तेदार हैं!
विजिटिंग आफीसर के दौरे के नाम पर फूले आरती के हाथ-पाँव यकायक सामान्य हो गए। उसके मुँह से यही निकला कि- हम आपका ये एहसान कैसे चुकाएँगे!
इसमें एहसान की क्या बात, आप रिश्तेदार हैं, अपना समझें और हमेशा अपनी बात हक से कहें! भरत ने फिर एक जबरदस्त आश्वासन दे दिया।
आरती का दिल उसके एहसान से और भारी हो गया। बच्चों को विदा कर, मकान में ताला डाल वह आफिस आ गई। थोड़ी देर में एजीएम ने अपने केबिन में बुला कर कह दिया कि आप स्पाट पर पहुँचे। नीलिमा वहीं बैठी मुस्करा रही थी। शायद, पहली बार जवाब में वह भी मुस्कराई और स्कूटी की डिग्गी में रिकार्ड ठूँस फील्ड के लिए चल पड़ी।
आश्वासन तो मिल गया था, फिर भी सीने में धुक्धुक् तो मची थी। रास्ते में एक सहेली पुष्पा का घर पड़ता था, जो उसका वीर हनुमान थी। वैसी ही मजबूत, निर्भय और हर काम के लिए आतुर, साथ ही उसे कुशलता से निबटा देने में माहिर। वह उसके घर पहुँची जो घर का काम समेट चुकी थी। वह भी अकेली रहती और परित्यक्ता थी। गनीमत यही कि उसके कोई बच्चा न था। तो इतनी जिम्मेदारी न थी। आरती जब भी ट्रेनिंग वगैरह के लिए बाहर जाती, पुष्पा ही बच्चों के साथ उसके क्वार्टर पर जाकर रहती। कहती, दीदी, हमारा और आपका भाग्य एक ही कलम से लिखा गया है। आरती उसकी आवाज का दर्द महसूस करती और कहती, किसी दिन मैं तुम्हारी कहानी लिखूँगी, पुष्पा!
दोपहर तक दोनों ने भाग-दौड़ कर छह-सात गाँवों को सूचित कर दिया कि- बड़ा साहब का दौरा निकला है, सब लोग अपने यहाँ सभाएँ जोड़कर रखो। काम बताने में हिचकना नहीं और अपनी-अपनी माँग भी रखती जाना।
दोपहर होते-होते गर्म हवा चलने लगी थी और उसने नाश्ता भी नहीं किया था। पुष्पा को एक गाँव में छोड़ वह मुख्य सड़क से एक खेत के फासले पर सूखे तालाब के किनारे खड़ी बरगदिया की जड़ पर बैठ गई। उस दिन उसने ग्रे कलर की ड्रेस पहन रखी थी जो जल्दी मैली नहीं दिखती और धुली हुई भी धुली हुई नहीं। क्योंकि वह रफटफ ही दिखना चाहती थी। जिससे अधिकारी को ये न लगे कि टिपटाप बनी घूमती है, करती धरती कुछ नहीं! निगाहें सड़क पर टिकी थीं कि साहब की गाड़ी आए तो उनके पीछे चल पड़े। वे जिस गाँव जाएँ, उसी गाँव। अपनी ओर से कोई स्थान न बताए नहीं तो शक करेंगे कि- यहाँ तो तुम मजबूत होगी ही! दिल में तरह तरह के खयाल आ रहे थे। पर दुर्दशा का खयाल कभी पीछा न छोड़ता था।
दोनों के फोटो लगे स्टाम्प पर क्या लिखा गया, उसने पढ़ा नहीं, सिर्फ हस्ताक्षर बना दिए इस मुगालते में कि मैं आलम की माँ की देखभाल करूंगी जिसके एवज में वह मेरे परिवार को सहारा देगा! यही सोच अनजाने में जीवन नीलाम करके भी बेफिक्री से घर चली गई थी। उसके बाद रोज नियम से आलम के घर जाती, घर का सारा काम और माँ की सेवा करती और शाम को अपने घर लौट आती। मगर धीरे-धीरे आलम की माँ ने उसे बता दिया कि आलम के अपने एक दोस्त की बीबी से संबंध हैं! तुम उसकी सच्ची दोस्त हो तो उसे उसके जाल से छुड़ा लो! मेरा नाम न लेना! वह दुष्ट मुझे रोज मारता है! और यह भी पता चल गया कि उस पर लाखों का कर्ज है! तब वह समझ गई कि वह उसके परिवार का सहारा कभी नहीं बन सकता! उसने उसके घर जाना छोड़ दिया। मगर आलम एक दिन अपने भाई और मौसी को टैक्सी में लेकर उसे घर से लिवाने आ गया। और उसकी मम्मी के बिफरने पर कि- ऐसे कैसे तुम किसी की लड़की को ले जा सकते हो, उसने शादी का स्टाम्प दिखाया तो उसके भी छक्के छूट गए! बहुत हल्ला हुआ, सारा मोहल्ला जुड़ गया। पर घर वालों को उसे विदा करना पड़ा। तब रोते-कलपते उसने भी सोच लिया कि जब सदा के लिए यही दुर्भाग्य मेरा भाग्य बन गया तो स्वीकारना तो पड़ेगा! पर आलम को कैसे स्वीकार करूँ! क्या करूँ कुछ समझ नहीं आ रहा था। दिल भय से फटा जा रहा था। मन थिर न हो रहा था। जैसे-जैसे समय बीत रहा था, रात हो रही थी, डर बढ़ता ही जा रहा था…। रात कोई दस बजे आलम शराब के नशे में घर लौटा। माँ ने खाना देने के बहाने उसे उसके कमरे में भेज दिया और वह थाली रख लौट न पाई तब तक बाहर से कुण्डी लगा दी। वो पल जो किसी भी लड़की के लिए सपनों का पल होता है, उस पल के लिए उसके लिए मन में कोई उत्साह न था, बल्कि डर था, घृणा थी। पर उससे बचने का कोई उपाय नहीं था। नशे में आलम ने रात भर उसका शील भंग किया और वह घुट-घुट कर रोती रही, दिल दर्द से फटता रहा…।
पुष्पा दौड़ती हुई आई, दीदी, वो दूसरे रस्ते से पौरासी पहुँच गे!
आरती ने स्कूटी उठाई और उसे बिठा कर उल्टी दिशा में दौड़ पड़ी। जब तक वहाँ पहुँची, वे काफी कुछ देख चुके थे। लेकिन पौरासी में वह सुबह बोल कर गई थी तो कार्यकर्ता अलर्ट थी। आशा, आँगनबाड़ी, और सिंधुजा की स्वयं सेविकाएँ मैदान में डटी थीं। विजिटिंग आफीसर गोराचिट्टा, मृदुभाषी और काफी लिबरल लगा। उसने इज्जत से बात की, कायदे से रिकार्ड माँगा।
आरती ने बताया कि- सर, यहाँ आते ही मैंने वोकेशनल टेªनिग के कैंप गाँव-गाँव लगाने शुरू कर दिए थे। अब तक दर्जनों महिलाओं को टेªंड कर उनका जीवन बदला जा चुका है।
हाँ, ये तो मुझे बताया, इन लोगों ने! डाक्यूमेंटेशन कराया आपने?
जी! उसने फोटो एमबम और पेपर कटिंग फाइल पकड़ा दी।
तब उसने देखा कि- पंचायतों को स्मार्ट बनाने के लिए कचरा प्रबंधन की टेªनिंग भी दिलाई उसने। और पंचायतों के जरिये ही दिव्यांगों को आवासीय योजनाओं का लाभ भी दिलवा रही है…
गुड! यह तो अच्छा है, उसने खुश होकर कहा।
आरती को उसका प्रतिफल मिल गया और धूप से कुम्हलाए चेहरे पर मुस्कान आ गई। अफसर उसकी एलबम और कटिंग फाइल देखता, पढ़ता हुआ पलटता जा रहा था। तभी उसने कहा कि- सर, मैंने गरीब और बेसहारा बच्चियों को रोजगार दिलाने की योजना बनाई हुई है। मैं और मेरी स्वयं-सेविकाएँ घर-घर जाकर बेटियों को बेटों के समान समझने के लिए प्रेरित करती हैं। पहले तो कई लोग अपनी बच्चियों को घर की चैखट से बाहर जाने देने के लिए तैयार ही नहीं हुए। पर हम लोगों ने हार नहीं मानी, इसका नतीजा ये हुआ कि परिवार को अपनी रजामंदी देना ही पड़ी। महज पाँच बच्चियों से शुरू हुआ सफर अब छह सौ तक पहुँच चुका है। हम इन बच्चियों को वोकेशनल टेªनिग दिला चुके हैं। इनमें से कई बच्चियाँ अब स्वरोजगार अपना कर अपने परिवार की जिम्मेदारी उठा रही हैं।
अच्छा है, आपको एक काम और करना चाहिए, वह बोला, अभिभावकों को प्रेरित कर न सिर्फ बच्चों को स्कूल पहुँचवाना चाहिए, बल्कि वहाँ बच्चों से उनकी जरूरत पूछना चाहिए।
ये भी करते हैं, सर! वह बोली, स्कूल ड्रेस और किताबें बँटवाने स्कूलों को प्रेरित करते हैं! साथ ही नेत्र-शिविर लगवा कर मरीजों की काफी मदद कर चुके हैं!
फोर फ्यूचर? उसने पूछा।
सर! समूह बना कर महिलाओं को जोड़ना शुरू किया है। अब तक पचास समूहों में पाँचसौ से ज्यादा महिलाओं को जोड़ चुके हैं। अब कई महिलाएँ तो खुद हमारे पास आकर समूह से जुड़ने के लिए कहती हैं। भविष्य में और भी समूह बना कर शासन की योजनओं के प्रति उन्हें जागरूक करेंगे और लाभ दिलवाएँगे। उन्हें बालिका शिक्षा और परिवार के दायित्बों के बारे में भी बताते हैं। बच्चों को पुनस्र्थापित करने के लिए क्षेत्र में बालगृह भी संचालित कराने का प्रस्ताव शासन को भिजवाया गया है।
ओके! बहुत अच्छा, उसने खुशी से गर्दन झुलाई, आपके बारे में राम जी ने सही बताया कि आप बहुत लेबोरियस और समर्पित पर्सनेलिटी हैं!
सुन कर उसकी आँखों में आँसू आ गए। पुष्पा के कंधे पर हाथ रख उसने भरे गले से कहा, सर जी, मैं जो कुछ थोड़ा बहुत कर पाई उसमें मेरी स्वयं-सेविकाओं और क्षेत्र की आँगनबाड़ी, आशा, एएनएम सिस्टर्स का बड़ा हाथ है। सर जी, बस, आप लोग की मेहरबानी बनी रहे!
संकेत से वह समझ गया कि उसे क्या कठिनाई आ रही है।
मैं कोशिश करता रहूँगा! उसने संकेत में ही कहा।
रास्ते में पुष्पा को छोड़ कर आरती आफिस आई तब तक अँधेरा घिर आया। लेकिन उसके मन में उत्साह का नया सूरज चमक उठा था। वह घर पहुँची तब तक आठ बज गए। बच्चे टीवी देख रहे थे। उसने रुकू से पूछा, (जिसका नाम आलम ने रुखसाना रखा था, मगर आरती ने बदल कर स्कूल में रेश्मा कर लिया और घर में रुकू!) तुम लोगों ने कुछ खा लिया! उसने कहा, पोहा! बेटा उसके गले से लिपट गया, माँ, आपके लिए भी रखा है!
अले-अले! बड़ा लाजा बेटा है मेला हर्च तो! उसने लाड़ लड़ाते उसे और कस कर चिपटा लिया। तब तक बेटी पोहे की प्लेट ले आई, पूछा, चाय बना दूँ माँ?
दूध रखा है?
होगा ना, हम लोगों ने नहीं बनाई ना!
बना ले बेटा, आज तो चाय भी नहीं मिली। उसने कहा।
मगर जब तक उसने पोहा निबटाया, रुकू ने आकर बताया कि- दूध फट गया माँ!
ओह! उसने माथा पकड़ लिया। बीच में आकर दुबारा उवाल देती तो बच जाता, मगर आज तो मरने की फुरसत नहीं मिली। पोहे और पानी से संतुष्ट हो वह कपड़े बदलने चली गई। जी में आया कि भरत जी को फोन कर धन्यवाद दे दे। फिर सोचा, खाना बना दूँ तब तसल्ली से करूँगी। नहीं तो बैठ गई तो हाथ-पैर जवाब दे देंगे, शरीर नौ मन का हो जाएगा, उठाए न उठेगा। बच्चे भूखे सो जाएँगे। हिम्मत बाँध वह रसोई में जुट गई। मगर इस सब में साढ़े नौ बज गए और हर्ष सो गया। जिसका नाम आलम ने सब्बीर रख दिया था मगर उसने स्कूल में लिखाते वक्त बदलवा लिया। बच्चे को उठा कर उसने मुश्किल से एक गस्सा खिलाया, मगर खाते ही वह चैतन्य हो गया और आँखें मूँदे-मूँदे उसके हाथ से लगातार खाने लगा। इस बीच उसने भी एक-एक कौर कर दो तीन रोटियाँ खा लीं और बच्चे को लिटा कर बर्तन सिंक पर डाल आई। रुकू भैया के बगल में लेटती बोली, माँ, सुबह जल्दी उठा देना, कल टेस्ट है!
उसने हामी भरी और बत्ती बंद कर खुद भी लेट गई। फिर जैसे कुछ याद आया तो उठ कर मोबाइल चार्जर से निकाल फोन बुक से भरत जी का नम्बर निकाल डाइल कर दिया। लगाते ही फोन उठ गया, जी कहिए!
तो उसने धीमी हँसी के साथ पूछा, फोन हाथ मे लिए बैठे थे!
जी, बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा थी, परिणाम जानने की!
इतनी केयर क्यों करते हैं! उसने पूछा।
पता नहीं, किसी जनम का संस्कार होगा! वह बोला।
अरे!
हाँ!
आपको ऐसा लगता है!
जी! आपको नहीं लगता?
पता नहीं, हमें तो अब कुछ नहीं लगता। उसने निराशा से कहा।
भूलिए विगत को बताइए क्या हुआ? तनिक चुप्पी के बाद उसने पूछा।
तो सुनिए, आरती उत्साह से भर गई, आज तो पाँसा ही पलट गया। जिसके लिए षड़यंत्र पूर्वक भेजा था, दुर्रानी न नीलिमा का वो दाँव फेल हो गया। हमें तो उम्मीद न थी पर ये सब हुआ आपकी मेहरबानी से… ये एहसान हम कभी न चुका पाएंँगे! वह भावुक हो आई।
क्यों? भरत ने खिलवाड़ सी करते पूछा।
कैसे चुका पाएँगे! उसने रुंधे स्वर में पूछा।
एक मीठे बोल से, एक मुस्कान से…
आप सचमुच बहुत अच्छे हैं, वह सुबकने लगी।
क्यों, ऐसा क्या किया हमने! भरत ने पूछा, जो आप रोने लगीं?
आपने कुछ नहीं किया, उसने और सुबकते हुए कहा, आपकी अच्छाई से हमें अपना पिछला नर्क याद आ गया।
उसे भी भुलाने का एक उपाय है हमारे पास।
क्या?
सारा दुखड़ा कह सुनाओ हमें। खाली हो जाओ और फिर से जियो जिंदगी। बार-बार नहीं मिलती जीने को…बच्चे हैं, उनका मुख देख कर जियो!
बच्चों के लिए ही जी रहे हैं, वरना कब की ये लीला समाप्त कर देते।
उन्हीं की खातिर हम कह रहे, वह बोला, सुना दो अपना सारा दुखड़ा और निकल जाओ उससे बाहर।
जी।
सुनाइए न।
क्या-क्या सुनाएँ, बहुत दर्द भरी कहानी है, इतनी कि आप रो देंगे।
रो लेंगे, आदत है, अब तक रो ही तो रहे हैं, तनिक आपके गम में भी शरीक हो लें।
अरे, आप भी… कह कर तनिक चुप्पी के बाद अकस्मात् वह गुनगुनाने लगी, तुमको भी गम ने मारा, हमको भी गम ने मारा, इस गम को मार डालें!
सुन कर भरत उत्साहित हो गया, सुनाइए, सुनाइए! मार ही डालें आज इस गम को!
तो उसने गाना रोक कर कहा, पर फोन पर नहीं, मिलने पर… पूरी रामायण है, रात बीत जाएगी बाँचते बाँचते, पूरी न होगी।
ठीक है, मिलते हैं! देखते हैं, कैसे न होगी पूरी!
जी! कह कर फोन बंद कर दिया। पर खूब थकान के बावजूद नींद नहीं आ रही थी।
दफ्तर का माहौल लगभग उसके अनुकूल हो गया था। अब बात बेबात एजीएम की झिड़की या नीलिमा के कटाक्ष नहीं मिल रहे थे। इसी बीच गणेश उत्सव आ गया तो झांकियों के साथ आए दिन गीत-भजन, नाटक-नाटिकाओं का दौर भी शुरू हो गया। संचालन के लिए उससे रोज कहा जाता और वह रोज इन्कार कर देती। पर जिस दिन पुलिस कप्तान को मुख्य अतिथि बनाया गया, उसने इसलिए हामी भर दी कि मंच की विविध प्रस्तुतियों से उन्हें बोरियत हो तो संचालन से सरसता बनी रहे। गीत-भजन, नाटिका, गरवा और बीच-बीच में उसकी कविताएँ। संचालन इसलिए भी उसी से कराया जा रहा था, क्योंकि उसका तलफ्फुज ठीक था। वह न सिर्फ अपने रूप से मोह लेती, मुस्कान से गुलाम बना लेती बल्कि, वाणी से भी सम्मोहित कर लेती थी। उसके शब्दों में जादू था; स्वर में मिठास, बातों में गजब का आकर्षण।
उस दिन उसने शिफान की गुलाबी साड़ी पहन रखी थी जिसका बार्डर नारंगी था और नारंगी ही बड़े गले का स्लीवलैस ब्लाउज! बाल हमेशा की तरह गालों को घेरे हुए कंधों पर झूल रहे थे। मुख्य अतिथि उसकी प्रस्तुति पर इतने भावुक हो गए कि जब वह अत्यंत श्लाघनीय शब्दों में उन्हें वक्तव्य के लिए आमंत्रित कर रही थी, वे डाइस पर जाने से पहले उसकी र्बाइं ओर आ खड़े हुए और उसने बोलते-बोलते मुस्करा कर उनकी ओर देखा तो खुद को रोक नहीं सके, दायाँ हाथ उसके कंधे पर रख, मुस्कराते हुए आगे बढ़ गए।
उस दिन बच्चों को भी साथ ले गई थी। सब लोग वहीं से खा-पी कर आए। आते ही बच्चे तो सो गए पर उसकी आँखों से नींद फिर गायब। वाट्सएप खोल कर उसने भरत को गैलरी से कार्यक्रम के कई फोटो शेयर कर दिए। रात के साढ़े ग्यारह बज रहे थे, पर मैसेज टोन से उसकी नींद टूट गई और उसने क्लिक किया तो उसकी अनुपम छवियाँ देख वाह-वा कर उठा। उसने तुरंत लिखाः
ये छवियाँ देख-देख हमें स्वर्गिक अनुभूति हो रही है।
क्यों! वह खिल गई।
आपके दरस-परस से किसी को भी यह गति सहज में ही प्राप्त हो सकती है।
ऐसा क्या है, हम में!
रूपाभिमान से गद्गद् वह हँसती-सी बोली तो भरत ने कहा- पूछो, क्या नहीं है! काली चमकीली आँखें। सुर्ख नाक। लाल फूले हुए ओठ। भरे हुए गुलाबी गाल जिन्हें रेशमी बाल दोनों जानिब शाल की तरह ढँके हुए!
अरे, छोड़िए, इतनी झूठी तारीफ न कीजिए, फोटो ही अच्छा आता है, हम तो बहुत रफटफ हैं, सामने से देख चुके न आप…
मिले तब तो धड़कन वश से बाहर होने लगी थी।
अच्छा! तो छुपाया क्यों?
आप बुरा मान जातीं!
अरे…
हाँ!
कैसे सोच लिया!
यूँ ही…पर अब न छुपाएँगे, कब आएँ!
सो जाइए…
नींद न आएगी।
क्यूँ?
आप जो आ गईं!
तो हम जा रहे हैं ना!
अभी ना जाओ छोड़ के कि दिल अभी भरा नहीं…
भरत का इतना लिखना था कि वह काल लगा कर गाने लगी, यही कहोगे तुम सदा कि दिल अभी नहीं भरा, जो खत्म हो किसी जगह ये वैसा सिलसिला नहीं…
गाना खत्म हुआ तो भरत ने पूछा, अच्छा कब आ जाएँ!
छोड़ो जी, आपको फुरसत कहाँ, इतने बड़े अधिकारी!
कहो तो, फुरसत की क्या बात वीआरएस लेकर सदा के लिए आपके पास ही बस जायँ!
ना बाबा, ना! बड़े धोखे हैं इस राह में!
लगता है, दूध की जली हो!
जी, गुडनाइट!
ऊपर से दिख रही शांति के नीचे भीतर ही भीतर एक गहरा षड़यंत्र चल रहा था। आरती को तो कानोंकान खबर न हुई। जब अंडरटेंकिंग फार्म आ गया कि मैं छँटनी नहीं चाहती, कटनी फाउंडेशन में जाने को तैयार हूँ, तब पता चला। लगा पैरों तले की जमीन खिसक गई। क्योंकि विलय से पूर्व बीसीसी से 80 कर्मियों की छँटनी हो चुकी थी! पता क्या, अब भी कुछेक की छँटनी शेष हो! घबड़ा कर उसने फिर भरत जी को फोन लगाया। और वे फोन पर ही एकदम लाल-पीले हो गए। आरती को उनका वो आदिवासी तेवर अच्छा लगा। उसने मैनेजमेन्ट की माँ बहन करते हुए कहा कि, ऐसीतैसी उसकी, इतनी पुरानी और पक्की नौकरी को यूँ हड़प लेगा, कोई अंडरटेंकिंग नहीं देना। मैं कल ही छुट्टी लेकर आ रहा हूँ! वो समय आरती पर बहुत भारी पड़ गया। उसने दिन भर कुछ नहीं खाया और शाम को भी बच्चों के लिए चार-छह रोटियाँ सेंक दीं, खुद दोपहर की एक कटोरी खिचड़ी से गुजारा कर लिया। नौकरी की अस्थिरता और गर्दन पर लटकती तबादले की तलवार ने उसका जीना हराम कर दिया था। उसने हिसाब लगाया कि कहीं तेरह साल बाद लौट कर एक बार फिर वही दुर्दिन तो उसके सामने नहीं आ खड़ा हुआ, जिसने जिंदगी सिरे से तबाह कर दी थी!
वायदे के मुताबिक भरत अलस्सुबह ही आ गया। कार ने जब हार्न दिया गली में तो हर्ष दौड़ कर बाहर गया और उन्हीं पाव लौटा, माँ-माँ, पापा आ गए!
वह चैंक गई, वह डर गई, उसे यकीन न हुआ! आलम कैसे आ सकता है? गुजारा-भत्ता न देना पड़े, इसलिए केस के डर से वह तो भूमिगत हो गया है! सम्मन नहीं ले रहा। और वह तो इतना अहंकारी है कि अब तो बुलाने पर भी कभी न आएगा। उस गैर-जिम्मेदार से क्या उम्मीद कि आकर बच्चों की जिम्मेदारी ले ले! जिसने माँ को नहीं निभाया वह पत्नी को क्या खा कर निभाएगा! हर्ष को उसकी क्या याद? कैसे पहचाना…।
ओ-भरत जी! खिड़की से कार देख, हतप्रभ सी आगे बढ़ी तो नीले सूट में उसे दरवाजे पर खड़ा पाया।
तुम भी क्या! कमर से लिपटते हर्ष के सिर पर चपत लगाते मुँह से हल्की सी चीख निकली।
बोलने दीजिए, बच्चा ही तो है! भरत ने उसे हाथ पकड़ खींच अपने से चिपटा लिया।
ओह! आइए! उसने मुस्करा कर हटते हुए रास्ता दिया।
भरत ने भीतर आकर मिठाई का डिब्बा रुकू को पकड़ा दिया, जो उजबक सी माँ के पीछे आ छुपी थी।
घर में त्योहार-सा आलम हो गया।
सभी खुश।
आरती भी थोड़ी देर के लिए मूल विपत्ति भूल गई अपनी।
नाश्ता बन चुका था। उसने जल्दी से चाय भी बना ली। इस बीच भरत ने रुकू और हर्ष से ढेर सारी बातें कर लीं। तब तक बस का हार्न सुनाई दिया तो दोनों बच्चे अपने पिट्ठू बस्ते पीठ पर लाद बाहर की ओर दौड़ गए। भरत ने चाय और नाश्ता लिया तब तक आरती आसमानी रंग की लेगी पर वासंती रंग की हाफ कुर्ती पहन, टेढ़ी माँग निकाल, बाल सीने के दाईं ओर डाल, माथे पर सिंदूरी बिंदी लगा और बैग कंधे पर लटका कर मुस्कराती हुई उसके आगे आ गई।
चला जाय! भरत ने अपनी घनी मूँछों के बीच मुस्कराते हुए पूछा।
जी! उसने मुँह हिलाया तो कानों के बुंदे झूलने लगे।
संकेत पा भरत आगे निकल कार में जाकर बैठ गया। तब मकान को लाक कर वह भी कार की अगली सीट पर उसके बाईं ओर आ बैठी। गाड़ी स्टार्ट करते वह बोला, आज शनिवार है!
जी!
संयोग से आज ही के दिन आप पहली बार इस कार में हमारी बाजू में बैठी हैं!
जी!
स्थायित्व मिलेगा!
उसका निहितार्थ समझ वह खामोश रह गई। भाटापारा आने को हुआ तो पूछा, हम यहाँ क्यों चल रहे हैं?
भरत यकायक अचकचा गया, लंच के लिए! गोया इस अप्रत्याशित प्रश्न के लिए मानसिक रूप से तैयार न था।
आप कहते, हम घर में बना देते, क्या पसंद करते हैं खाने में? उसने पूछा।
कुछ खास नहीं, सोचा था, बाहर चल कर घूमेंगे, कहीं बैठेंगे, तुम्हारी दर्द भरी दास्तान सुनेंगे!
ऐसा कुछ नहीं हमारी कहानी में… आप नाहक परेशान न हों! अपना-अपना भाग्य है! कहते निश्वास छूट गया।
भाग्य तो कर्म से बनता है।
कर्म से ही तो बना होगा, पिछले कर्मों से…प्रारब्ध तो पहले बना, पीछे बना शरीर!
आप तो कविताकार हैं।
नहीं, ये तो कबीर का दोहा है।
लेकिन आप कवयित्री तो हैं, हमें पता है।
किसने बताया जी!
आपकी सिस्टर रेखा ने…
तब उसने सोचा कि फिर तो रेखा नेताम ने उसका अतीत भी बता दिया होगा! क्यों नहीं, अब वह रेखा कुलश्रेष्ठ तो नहीं रही। एक मैं ही हूँ जो खांन नहीं हुई। वही रही जो माँ-बाप ने जनी। आखिर औरत क्यों पति का कुल गौत्र अपना लेती है। अपनी पहचान ही बदल लेती है। इससे क्या जीन बदल जाता है! कैसी है समाज की मान्यता। स्त्री का स्वतंत्र अस्तितव ही नहीं।
कहाँ खो गईं आप? भरत ने टोका।
चलिए, लौट चलिए! उसने अचानक कहा।
पर उसके मन में दुविधा उत्पन्न हो गई। उसे इस नए समझौते के लिए मानसिक रूप से तैयार जो करना था, बोला, कहीं बैठना है, कुछ खास बात करना है!
हम हमेशा तैयार रहते हैं। आप कैसी भी बात कहीं भी कभी भी कर सकते हैं। यहाँ भी, अभी!
यहाँ तो नहीं, चलिए किसी रेस्तरां में लंच में वो बात भी कर लेते हैं। कह कर उसने साहू होटल के लान में ले जाकर गाड़ी पार्क कर दी। और डाइनिंग टेबिल पर आकर बैठ गए तो सूप लेने के दौरान ही उसने कहा, नौकरी और तबादला बचाने का एक ही तरीका है, अगर तुम हाँ कहो!
हम दुर्रानी से इस जिंदगी में बात नहीं करेंगे, हमें इन लोगों से नफरत है!
जानते हैं, उसने आहिस्ता से कहा, उससे बात करने की जरूरत नहीं पड़ेगी आपको!
फिर!
बात ये है आरती, कि तुम सीनियर हो, पर तुम्हें सुपरसीट किए बिना काम बनेगा नहीं। क्योंकि तुम जानती हो, एक निकाय में महिला कार्यक्रम अधिकारी की एक ही पोस्ट होती है। एक तो नीलिमा तुम्हारे बाद ट्रान्सफर पर आई है, दूसरे दुर्रानी चाहता है कि,
उसका प्रमोशन! हमें पता है। वह बोली।
लेकिन जब तक तुम अनापत्ति दो…
और न दें तो!
तुम्हें कटनी जाना पड़ेगा, और पता नहीं छँटनी हो जाए!
सुन कर वह काँप गई। रेश्मा और हर्ष का भविष्य उसे अंधकारमय दिखने लगा। आँखें भर आईं। गला रुँध गया, आपका शुक्रिया!
उसने रूमाल ले लिया, आप न होते तो…आँखों के किनारे पोंछते हुए कहा।
भरत ने हथेली थाम ली, घैर्य रखो!
खाना आ गया और वे लोग चुपचाप खाने लगे।
कंसेट दिलवाकर रात होने से पहले भरत भिलाई लौट गया। आरती ने अनिच्छा से बच्चों के लिए बनाया और खिला कर खुद वैसी ही सो गई। हक मारे जाने का एहसास बहुत तेजी से दिल में घर गया था। जैसे, किसी ने गर्दन पर तलवार मार दी हो। मुल्ला नसुरुद्दीन का किस्सा रह-रह कर याद आ रहा था। कि जब वह पेंशन की रकम लेकर लौट रहा था, लुटेरे ने छुरी गर्दन पर रख दी थी। और तब भी मुल्ला ने कहा, ठहरो, सोचने दो! तो लुटेरे को हैरत हुई कि तुम अजीब आदमी हो, मौत सिर पर नाच रही है और कहते हो, सोचने दो! न दोगे ये रकम तो मर न जाओगे! तब मुल्ला ने कहा कि जिंदगी भर की कमाई देकर ही कौनसा जिंदा रहूँगा!
और एक वह है जिसने खुद ही अपने पाँव कुल्हाड़ी मार ली। वैसे भी इस पोस्ट में कोई प्रमोशन न था। अब तो जिस पर भरती हुई, एक दिन उसी से रिटायर हो जाएगी। नौ दिन चली, अढ़ाई कोस! तनाव में आज फिर नींद नहीं आ रही थी। भरत ने उसे आनलाइन देखा तो लिखाः
सारी, मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सका!
ऐसा न कहें, आपने क्या नहीं किया, आपके सहारे ही हैं हम तो, देते ना आप साथ तो मर जाते हम कभी के…
क्या मैं जोड़ सकता हूँ- पूरे हुए हैं आपसे अरमान जिंदगी के…
अरे, रहने दीजिए! हम क्या किसी का अरमान पूरा करेंगे, जब खुद का न कर सके!
आपका हम करेंगे!
अरे!
हाँ!
रहने दीजिए, अब इच्छा नहीं है!
क्यों?
पता नहीं।
सुना है, इच्छाएँ तो कभी मरती नहीं हैं!
पर हमारी तो मर गईं। अब कोई एहसास नहीं होता। न अच्छा न बुरा।
ऐसा नहीं, मन में नया उत्साह भरिए। प्यार ही इसकी औषधि है। प्यार कर लीजिए किसी से। उमंग बढ़ जाएगी और लाइफ चार्मिंग हो जाएगी!
जीना तो है, बच्चों के लिए, अपने लिए कोई तमन्ना नहीं बची।
अपने लिए न सही, हमारे लिए तो बचा के रखिए!
जी।
जी का मतलब हाँ होता है, पता है!
ऐसा तो नहीं!
खाना खा लिया?
न…
क्यों…
मन नहीं किया।
फिर क्या हवा से जिएँगी बच्चों के लिए!
एकाध दिन से कुछ नहीं बिगड़ता, भूख प्यास मर चुकी है हमारी तो…
लगने लगेगी, साथ बनी रहिए!
जी, हैं तो, अब और कौन है आपके सिवा!
फिर बात भी मानिए।
क्या!
खा लीजिए ना कुछ, आपको हमारी कसम!
अरे, बच्चों सी जिद न किया करें! सच में हमारा मन नहीं है। भूख भी नहीं, लगती तो खा लेते!
फिर भी हमारी खातिर प्लीज! वह जिद करने लगा।
आरती ने उठ कर आधी रोटी अचार से खा ली और पानी पीकर लेट गई। थोड़ी देर में फोन आया तो कह दिया, खा ली बाबा!
सच में!
आप से झूठ नहीं बोल सकते, आप से तो कुछ छुपा भी नहीं सकते!
ऐसा!
जी!
ओके गुडनाइट!
गुडनाइट! उसने फोन बंद कर दिया।
आरती का विश्वास दृढ़़ से दृढ़़तर हो गया था कि आलम के उस औरत से सम्बंध हैं। वह नियमित उसके घर जाता है। आलम को मुझसे कोई प्रेम नहीं, यहाँ तक कि मेरे शरीर से भी बहुत गरज नहीं है! उसकी जरूरतें कहीं और पूरी हो रही हैं। और उसे तो आलम से रत्ती भर भी प्रेम नहीं था, इसलिए उसके लिए उसके साथ सोना, घर के काम निबटाने जैसा था। जिसमें कि कोई रस नहीं था। जिसे रति कहते हैं, शायद बिना प्रेम के संभव नहीं थी! और मजे की बात यह कि आलम के लिए भी वह महज रद्दी खरीदने-बेचने जैसा काम ही था। उसकी किसी हरकत में प्रेम न झलकता।
यही कारण था कि इतने दिनों बाद भरत से मन मिला तो रातों की नींद उड़ गई। उससे बात करते मन भीगने और उमगने लगा। बे-बात की बात में भी मजा आने लगा। पहले तो जरूरत थी, विपत्ति थी, इसलिए याद करती, मगर अब नीलिमा के प्रमोशन के बाद तो जब उसका वेतन अन्य मद से निकलने लगा और पोस्ट सरप्लस न रह गई। सारी चख-चख और रोज-रोज का इंस्पेक्शन, मीटिंग, विजिट भी मिट गई। वह स्वतंत्रता पूर्वक अपने मन का काम करने लगी। इसी दौरान रायपुर में एक पारिवारिक समारोह में बहन के घर जाना हुआ। आरती वहाँ रेश्मा और हर्ष को भी साथ ले गई। उस समारोह में बहन के मामा श्वसुर भरत जी और उनके भाई राम मेश्राम भी पधारे। आरती ने देखा- वे बड़े लोग थे। नंगे, भूखे विपन्न आदिवासी नहीं। आदिवासी राजा या जमींदार कहा हा सकता था उन्हें। उनके ठाटबाट ही निराले थे। चकाचैंध हो गई वह तो उन्हें देख कर। कि जब उनका आगमन हुआ, तोरणद्वार से मंडप तक रेड कार्पेट बिछाया गया। कार से उतर कर जिस पर चल कर गाजे-बाजे के साथ पहले उनकी माँ जी आईं, फिर दोनों भाई भरत और राम मेश्राम। आरती स्वयं गर्व से भर गई कि वह कितने बड़े लोगों की रिश्तेदार है! ये बड़े लोग यानी भरत जी, बलौदा बाजार स्थित उसके किराए के छोटे से मकान में हो आए हैं!
वहीं बात चली और उसकी बहन रेखा ने भरत जी की बहन शांति जी से कहा कि- मेरी दीदी आरती का अपने पति से तलाक का केस चल रहा है।
कहा इसलिए कि- मामा श्वसुर भरत जी का भी उनकी पत्नी से तलाक का केस चल रहा था।
बात भरत जी की माँ जी के कानों तक पहुँची तो उन्होंने आरती को बुला कर स्नेह से अपनी गोद में बैठा लिया। वह कुछ समझती इससे पहले ही बच्चों के लिए कपड़े और उसके लिए साड़ी आ गई। फिर तश्तरी में पान, सुपारी और दो अँगूूठियाँ। एक जनानी, एक मर्दानी। मर्दानी उसकी बहन रेखा ने रखी तो जनानी भरत की बहन शांति ने। मना नहीं कर पाई और पान खिला दिया भरत ने तो रेखा ने कहा, दीदी, मामा जी को अँगूूठी पहनाओ ना!
अनिर्णय की स्थिति में वह झूलती रही कुछ देर, इस बीच बहनोई केशव ने कहा कि- दीदी, अपने लिए नहीं, इन बच्चों की भलाई के लिए जोड़ लो ये रिश्ता! कल के लिए इनकी पढ़ाई, शादी का खर्च और बुढ़ापे में आपका सहारा तो हो जाएगा! हम जानते हैं कि मामा जी और आप दोनों का ही जीवन नर्क बना हुआ है, उसे संवार लीजिए! एक रिश्ता अपने मन से किया, दूसरा हमारे कहे कर लीजिए, सुखी रहेंगी!
तब रेखा ने भी ठेला और उसने झिझकते और बच्चों से आँखें चुराते हुए तश्तरी से मर्दाना अँगूठी उठा कर भरत जी की मध्यमा में पहना दी तो उसने भी तश्तरी से जनानी अँगूूठी उठा कर आरती की अनामिका में डाल दी। दोनों ने एक झलक एक-दूसरे को देखा और झेंप कर मुस्कराने लगे।
दूसरे दिन वह लौट आई मगर छोटी सी रस्म अदायगी ने जैसे जीवन बदल दिया। अनायास वह सज-सँवर कर रहने लगी। रात में भी देर तलक वाट्सएप पर अंतरंग बातें होने लगीं। और रोज एक-सवा बजे वह कहती कि अब बड़ी तेज निन्नू आ रही है तो भरत एक चुम्मी की जिद करता। तब वह होंठों का सिम्बल भेज देती। और वह फोन लगा कर चुम्मी की ध्वनि निकाल देता। आने की जिद करता तो वह कहती, अभी नहीं, केस निबट जाने दो। फैसला होते ही हम आपके। मगर फैसला आसान न था। आलम सम्मन नहीं ले रहा था। तीन साल हो चुके थे। कोर्ट को उसका घर ही नहीं मिलता, और मिल जाता तो तामील न होती। अदालत के चपरासी को कभी आरोपी न मिलता। जबकि आरती हर माह पेशी पर रायपुर जाती। वकील की फीस और तलवाने की राशि जमा करवा के आती। मगर केस जहाँ का तहाँ खड़ा रहता, रत्ती भर आगे न बढ़ता।
हाँ, रायपुर में भरत जी हर माह जरूर मिल जाते। उनका केस भी वहीं चल रहा था। वे हर बार रुकने की जिद करते, मगर वह लौट आती। जनवरी के शुरू में जब छत्तीसगढ़ भी ठंड का मजा ले रहा था, बिलासपुर में उसकी एक कुलीग की लड़की की शादी आ गई। भरत से रोज बात होती और वह रोज कहता कि कल आ रहा हूँ, तो उसके मुँह से निकल गया, ऐइ! कल तो हम बिलासपुर जा रहे!
क्यों?
एक सहकर्मी की बच्ची की शादी में।
बच्चे!
उन्हें हमारी हनुमान पुष्पा सँभाल लेगी।
कहाँ है शादी, कुछ पता भी है!
उसने कार्ड उठाया और फोटो डाल दिया, तो भरत ने मोबाइल के नोट्स एप में लिख लिया- गेट नं. 2 सीएसईबी कालोनी, तिफरा।
आरती अगले दिन दोपहर में अकेली बिलासपुर पहुँच गई। बच्चों के साथ मकान पर रहने के लिए पुष्पा आ गई थी। शादी दिन की थी और गणेश मंदिर से हो रही थी। सहकर्मी दम्पत्ति और रिश्तेदार रस्मो-रिवाज में लगे थे, उसे अपनी शादी याद आ रही थी और मन कसैला हो रहा था। इतने में वो जानी पहचानी नीली इनोवा कार आ गई जो भरत जी की थी। वह चैंकी और उसे कोई गुप्त खुशी हुई मगर दबा गई। निकट आने पर उसने बनते हुए पूछा, आपको भी यहीं आना था, कल ही तो बात हुई थी, बताया भी नहीं…।
यही सोच कर कि, आप अपनी जर्नी केंसिल न कर दें! वह मुस्कराया।
थोड़ी देर बाद वह बोला, चलो, गिफ्ट लेकर आते हैं, मैं तो सीधा चला आया।
आरती सहज ही तैयार हो गई। जैसे, अब उसे डर नहीं था कि कोई क्या कहेगा! क्योंकि- एक दिन तो सभी को पता चल ही जाएगा।
तब मयूरा मार्केट स्थित शापिंग काम्पलेक्स से लड़की के लिए साड़ी लेने के बाद वे लोग रेस्तरां में पहुँचे, जहाँ स्वल्पाहार किया, फिर लौट कर विवाह स्थल पर आ गए। तब तक फेरे हो गए थे और विदाई की तैयारी चल रही थी। पैकेट उसे देते कि, मेरी तो पहचान नहीं तुम्हीं इसे दे दो, वह उसके कान में फुसफुसाया, एक गिफ्ट आपके लिए भी लाए हैं!
सुन कर आरती ने मुस्कान का जलवा बिखेरा और पैकेट उससे लेकर साड़ी लड़की की गोद में रख दी। थोड़ी देर बाद उसने भरत की ओर इशारा कर अपने सहकर्मी से पूछ लिया, मेरे रिश्तेदार आ गए हैं तो हम लोग अब निकल जाएँ?
मेजवान हड़बड़ी में था, उसने मुस्करा कर हाथ जोड़ दिए।
आरती ने पलट कर देखा तो भरत मुस्करा रहा था। खुशी छलकी पड़ रही थी, गोया, सब कुछ मन माफिक हो रहा था। दोनों बैठ गए तो कार चल पड़ी। मगर कालोनी के गेट से निकलते ही उसने कहा, अब हमें बलौदा बाजार छोड़ते हुए निकलना आप!
क्यों, आज तो वहाँ पुष्पा है, इतनी जल्दी पहुँच कर क्या करोगी?
नहीं, नहीं…हमें जाना है, वह अड़ गई, बच्चे क्या सोचेंगे, जब कल को ये लोग लौटकर बताएंगे कि बेटे आप लोग क्यों नहीं आए, पढ़ाई का भी हर्जा न होता, ममा तो शाम को ही किसी रिश्तेदार की गाड़ी से वापस आ गई थीं!
भरत के पास कोई तर्क नहीं था। उसने निरुत्साहित हो बिलासपपुर छोड़ने के बाद गाड़ी बाईं ओर बलौदा बाजार की ऊबड़ खाबड़ सड़क पर डाल दी। नौ-सवा नौ बजे के आसपास जब वहां पहुंचे तो पुष्पा घर में थी। आरती ने रुकने के लिए नहीं कहा और वह अपमानित-सा भाटापारा की ऊबड़-खाबड़ सड़क से होते हुए रायपुर के लिए निकल गया। भिलाई पहुंचते उसे साड़े ग्यारह बज गए। थकान और क्लेश के कारण देर तक नींद नहीं आई। सुबह वह खिन्नमना ही दफ्तर पहुंचा। जबकि आरती की सारी उथल-पुथल समाप्त हो गई थी और अब एक शांत झील अपनी मंद लहरों के साथ हर पल मुस्कराने लगी थी। इसी बीच उसने कई एक सुंदर कविताएँ लिखीं और अपना खुद का एक साहित्यिक समूह बना लिया, जिसकी बलौदा बाजार के गायत्री मंदिर स्थित हाल में हर माह एक गोष्ठी होने लगी। साल भर के भीतर ही वह छत्तीसगढ़ी भी सीख गई थी, इसलिए गोष्ठी में सुनाने हिन्दी के अलावा छत्तीसगढ़ी में भी कविताएँ लिखने लगी। बीच-बीच में रायपुर की गोष्ठियों से भी आमंत्रण मिल जाता। यों कभी गढ़कलेवा में तो कभी वृंदावन गार्डन में पहुँचने का अवसर मिल जाता। भरत भिलाई से वहाँ अपनी कार लेकर आ जाता। उसने रायपुर में वीआईपी रोड पर गोल्डन स्काई में एक टू बीएचके फ्लैट ले रखा था। आरती से सगाई से पहले उसमें फर्नीचर भी नहीं लगा था। मगर अब तो उसने उसमें फर्नीचर के अलावा किचेन का सारा सामान और बेड, सोफा भी लगवा दिया था। मगर आरती उसे देखने भी नहीं गई। उसे डर था कि भरत जी फिर आने नहीं देंगे! एक समय था जब, आलम से पिण्ड छुड़ाना आसान न था। उसने तो मामू और बड़े अब्बू को महीने भर के भीतर ही ये खबर दे दी थी कि- आरती एक बड़ी कंपनी में काफी ऊँची पोस्ट पर पहुँच गई है। आप लोग चिंता न करें, अब हम लोग बहुत जल्द और आसानी से आपका पैसा लौटा देंगे! फलस्वरूप उनकी माँग बढ़ने लगी। चिट्टियाँ आरती के पते पर आने लगीं। तब यही लगा कि वक्त आ गया है, अब आलम से पिण्ड छुड़ा ही लिया जाय। अन्यथा लाखों का कर्ज पटाना पड़ा तो बच्चों का भविष्य गर्त में चला जाएगा! परिणाम स्वरूप कठोर निर्णय लेकर उसने दो-तीन काम किए। कि- एक तो जयपुर से अपना तबादला रवान करा लिया। यहाँ पास ही उसकी बहन रेखा थी। रिश्तेदार प्रशासन या पुलिस में हो तो व्यक्ति को बड़ा सहारा होता है। तिस पर उसकी सगी बहन और बहनोई दोनों पुलिस इंस्पैक्टर थे। दूसरा काम यह किया कि रेखा की ही मदद से रायपुर कोर्ट में तलाक का प्रकरण डलवा दिया। अब वह चैन से थी कि इतने से कम से कम आलम के ताजिए ठंडे पड़ जाएँगे! कर्ज पटाने वह दबाव न बना सकेगा और न माँगने अब्बू या मामू को भेज सकेगा। और तीसरा काम भरत से सगाई। इसमें यही फायदा कि दुर्रानी जैसे लोग मुँह न मार सकेंगे। बच्चों को अभिभावक मिल जाएगा। मगर उसमें यही प्रतिबंध कि पहले दोनों का तलाक हो! हालाँकि सगाई के पहले से ही दोनों के तलाक प्रकरण चल रहे थे। किंतु मजबूरी तो यही कि दोनों ही उसके पहले शादी नहीं कर सकते, नहीं तो नौकरी पर बन आएगी। और शादी से पहले वह उसके साथ सम्बंध बनाना नहीं चाहती थी, क्योंकि कहीं तलाक न मिला, एक का भी केस खारिज हो गया तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी! दो कश्तियों की सवारी एक साथ कैसे होगी!
मगर इस बीच उसने भिलाई क्षेत्र में महिलाओं और बच्चों को वोकेशनल टेªनिंग दिलाने के लिए एक प्रोजेक्ट तैयार कर मैनेजमेन्ट को भेज दिया था। साल पहले मुम्बई से आए फाउन्डेशन के विजिटिंग मैनेजर से इस बारे में पहले ही बात हो गई थी। सो, उसने प्रोजेक्ट बना कर भेज दिया था कि- करीब 75 छात्रों और ग्रामीण शिक्षित महिलाओं को यह वोकेशनल ट्रेनिंग दिलाई जाएगी। इसके द्वारा उन्हें लैंडलाइन रिपेयरिंग, मोबाइल सर्विस से लेकर बिलिंग और नेट-आपरेटिंग तक का प्रशिक्षण दिया जाएगा। इसके लिए बीएसएनएल और मोबाइल कंपनियों के ट्रेनर ट्रेनिंग हेतु स्वयंसेवी आधार पर अनुबंधित किए जाएँगे। सप्ताह भर के इस प्रोग्राम में शामिल होने वाले ट्रेनीज से कोई फीस नहीं ली जाएगी, पर उनके भोजन और आवास की व्यवस्था की जाएगी। ट्रेनिंग के पश्चात् उन्हें सर्टीफिकेट प्रदान किए जाएँगे। टेलीकाम, इलेक्ट्रानिक मीडिया और विद्युत सम्बंधी पाटर््स बनाने की ट्रेनिंग के लिए पोस्ट वोकेशनल कोर्स बाद में कराया जाएगा, जिसका प्रोजेक्ट इस ट्रेनिंग के बाद तैयार कर प्रस्तुत किया जाएगा।
भाग्य से यह प्रोजेक्ट मंजूर हो गया था। पर इसका हेड नीलिमा को बनाया गया। आरती ने समझौता कर लिया कि चलो, ऐसे ही सही। मेरे नसीब में मेहनत है, उसका फल नहीं। पर यह करते नौकरी चल रही है, यही क्या कम है!
इस तरह अपने क्षेत्र की कुछ महिलाओं को वह भिलाई क्षेत्र के टूर पर ले गई। वहाँ भिलाई केपी सीमेंट लिमि. के सहयोग से उसने गनियारी में शिविर लगाया। यहाँ आसपास के क्षेत्र बरोदा, औंधी, औरी, बेंदरी और उठाई तक से प्रशिक्षु महिलाएँ और छात्र आ जुटे। शिविर का प्रचार-प्रसार पहले ही भली-भाँति कर दिया गया था। उस क्षेत्र की महिलाओं-छात्रों को जागरूक करने और स्वावलम्बन हेतु यह प्रशिक्षण केम्प एक महत्बाकांक्षी योजना थी जिसे फाउंडेशन ने भी अपने मेन टारगेट की तरह लेकर प्रोत्साहित किया। साधन-सुविधा और योजनानुसार मंजूर खर्च से कोई कटौती नहीं की गई। आरती बहुत उत्साहित और आत्मविश्वास से लबरेज थी उन दिनों। उसकी हेड नीलिमा और फाउंडेशन के तीन-चार कर्मचारी साथ आए। महिलाएँ एक अलग वैन से। गनियारी के प्रसिद्ध पुरातात्विक स्थल शिवमंदिर के हरे-भरे बगीचे में तम्बू तान कर रहने के वास्ते छोटे-छोटे कैंप बना दिए गए तथा ट्रेनिंग के लिए मंदिर का हाल ले लिया गया। वहाँ रहते उसे बहुत अनुभव हुए।
ट्रेनिंग प्राप्त कर रही बेसहारा महिलाओं के अलावा इस कैंप में कुछ ऐसे बच्चे भी थे जिन्होंने बचपन में ही बड़े-बड़े दुख देखे थे। आरती को इस शिविर में बहुत अच्छा लग रहा था। सामाजिक कार्यों में अक्सर वह अपनी विपत्तियां भूल जाया करती थी। मगर यहाँ उसे एक ही कठिनाई थी कि भिलाई बहुत पास था और केपी सीमेंट के सहयोग से कैंप चल रहा था तो उसके डीजीएम के नाते भरत वहाँ जब देखो तब आ जाता। रोज अपने साथ चलने का इसरार करता। नीलिमा की उपस्थिति में उसे बहुत शर्म लगती। जहाँ पहले दुर्रानी को लेकर वह नीलिमा को जिन नजरों से देखा करती, उन्हीं नजरों से अब नीलिमा उसे देखती। आरती शर्म से गड़ जाती। भरत से रोज कहती कि- यहाँ न आओ, ऐसे तंग करोगे तो एक दिन हम सगाई तोड़ देंगे! तो वह कहता, ऐसे कैसे! हमने तो समाज के आगे सम्बंध जोड़ा है। वो दिन भी दूर नहीं जब हम सार्वजनिक विवाह कर भोज देंगे! देखना, तब तुम्हारे यही कुलीग्स तोहफे लेकर आएँगे!
नीलिमा की नजरें जब बहुत बेशर्म हो गईं तो एक दिन उसने भरत का यही वाक्य दोहरा दिया कि- हमने तो समाज के आगे सम्बंध जोड़ा है। वो दिन भी दूर नहीं जब हम सार्वजनिक विवाह कर भोज देंगे!
गुड! नीलिमा की मुस्कान और चैड़ी हो गई, फिर वह उसके कान में फुसफुसाई, गाड ब्लेस यू…भाग्य से तुमने कड़क बाल वाला आदमी चुना!
क्या मतलब? वह समझ नहीं पाई। तो नीलिमा पूर्ववत् मुस्कराते हुए बुदबुदाई, टाइट बाल वाले पुरुष सोल्डी पार्ट वाले होते हैं!
सुनकर वह चिढ़ गई और घृणा से थूक दिया, कितना गंदा सोच है, तुम्हारा…कितनी गंदी हो तुम!
और भरत शाम को आया तो उसके इसरार पर दुस्साहस कर भिलाई चली भी आई। जानती थी शिविर छोड़ने की रिपोर्ट तुरंत हेडक्वार्टर पहुँच जाएगी! पर उसे यह हेंकड़ी एक दिन तो दिखाना ही थी। जिससे सभी का मुँह बंद हो जाना था।
भरत यहाँ कंपनी के शानदार गेस्टहाउस में रहता था। बाग-बगीचों से सुसज्जित गेस्टहाउस के एसी हाल में उसने कदम रखा तो लगा, साक्षात् स्वर्ग में आ गई या किसी राजा के महल में। रूम में आते ही भरत ने चाय का आर्डर कर दिया, फिर उसकी बगल में सोफे पर बैठते, उससे मुखातिब होते, भावुक स्वर में कहा, सुनाओ आरती, अपनी दर्द भरी दास्तान सुनाओ, जिससे तुम्हारा जी कुछ तो हल्का हो जाए!
क्या सुनाएंँ! उसने बेहद उदासी से कहा।
फिर थोड़ी देर रुक कर कहने लगी, देख रही हूँ कि पढ़े लिखे सक्षम वर्ग में भी बेटी के वजाए बेटे का प्राथमिकता दी जाती है। मेरे ही घर को लें तो मेरे बाद एक भाई हो गया था पर शायद मम्मी पापा को एक और पुत्र पाने की अभिलाषा थी तो दो बहनें और आ गईं। बेटी का जन्म क्या सिर्फ इसलिए हुआ कि वह किसी घर की बहू बन कर मायके से विदा हो जाए! क्या उसके जीवन की सार्थकता पत्नी या माँ बनने में ही है? खूब देख लिया पत्नी बन के… वह गमगीन हो गई, आलम का दुकान मालिक जिसका नाम शेख मंसूर मोहम्मद था बहुत बड़ा आदमी था, अमीर इतना कि पूरी लाइन की बारह-पंद्रह दुकानें उसी की थीं। घर इतना बड़ा कि कोई महल हो। शायद, वह स्टेट के जमाने का रईस था। शहर के मुख्य बाजार, मुख्य सड़क क्षेत्र जहाँ लोग सड़क के किनारे एक छोटी सी दुकान लगाना भी बड़ी बात समझते, वहाँ उसकी कई दुकानें कई मकान तथा हवेली थी।
शेख, आलम से अपनी दुकान खाली करना चाहता था। आलम खाली नहीं कर रहा था तो उसने कोर्ट केस कर दिया था। केस कई सालों से चल रहा था। आलम चाहता था कि शेख केस वापस लेकर दुकान उसे चलाने दे।
सो, आलम ने एक दिन मुझ से कहा कि अगर तुम मेरे साथ चल कर शेख साहब से बात करो तो वो केस वापस लेकर दुकान हमें दे दें, शायद। दुकान का केस खत्म होने से जो पैसा केस पर खर्च हो रहा है, वह घर में काम आएगा…।
तो मुझे लगा ठीक है, अगर ऐसा हो तो अच्छा ही है! मैंने हाँ कर दी।
आलम ने उससे मिलने का समय लिया और मुझे लेकर शेख की हवेली पहुँच गया। उसने मुझे पहले ही समझा दिया था कि शेख साहब बहुत बड़े आदमी हैं, उनसे अच्छे से और अदब से बात करना है।
कहते-कहते वह रुक गई। क्योंकि दरवाजे पर नाक हुई तो भरत ने कहा, ले आओ! और बैरा चाय बना कर रख गया तो उसने आरती से पूछा, हाँ, फिर क्या हुआ?
चाय सिप करते आरती अतीत में गोता लगाती हुई बोली, एक बड़े से हालनुमा बैठक कक्ष में हम बैठे थे। मैं, मेरे बगल की कुर्सी पर आलम बैठा था। सामने करीब चार-पाँच फीट की दूरी पर सोफे पर शेख साहब बैठे थे। आलम ने मेरा परिचय कराया, बताया कि अब परिवार बढ़ गया है…दुकान के केस में बहुत परेशानी हो रही है।
वो ऐसे ही कुछ बात कर रहा था… आरती याद करते हुए बता रही थी, मैं देख रही थी कि शेख आलम की बात ध्यान से नहीं सुन रहा, वो बार-बार मुझे देख रहा है…।
दास्तान सुनते भरत को आलम पर गुस्सा आ रहा था। उसकी मुट्ठियाँ भिंचती जा रही थीं। मगर उसके अतीत पर वह कुछ भी कहने से फिलहाल बच रहा था! क्योंकि आरती का जी पहले से भारी था।
दो पल के विराम के बाद वह बोली, कुछ मिनिट बाद अचानक आलम ने कहा, मैं आता हूँ। और इतना कह कर वो उठ कर बाहर चला गया।
कमरे में सन्नाटा छा गया। कुछ मिनिट चुप रहने के बाद शेख ने कहा, बताओ क्या परेशानी है?
मैं चुप थी। मुझे अपने पति आलम पर गुस्सा आ रहा था कि ऐसे मुझे छोड़ कर वो क्यों चला गया?
मुझे चुप देख दो मिनिट में शेख उठा और मेरे बगल की कुर्सी, जहाँ आलम बैठा था वहाँ आ बैठा! मेरी जान निकलने लगी, दिल किसी आशंका में जोर से धड़कने लगा। मुझे समझते देर न लगी कि आलम मुझे जानबूझ कर यहाँ छोड़ गया है! मेरा खून खौल उठा।
कहते उसका चेहरा तमतमा उठा। हाथ की चाय खत्म हो गई थी। भरत ने कप उसके हाथ से लेकर टेबिल पर रख दिया तो आरती उसे एकटक देखने लगी। फिर सहसा उसका स्वर आद्र हो उठा, आलम का हर अत्याचार मैंने सहन किया पर दुकान के लालच में वो मुझे ऐसे शेख को सौंप देगा, सोचा न था!
ओह! लानत है भरत ने अपना माथा पकड़ लिया।
संयत हो आरती आगे बोली, वह कितना बे-गैरत है, मैं यही सोच रही थी और इतनी देर में शेख ने अपना हाथ मेरे कंधे पर रख लिया, तो मुझे कुछ समझ नहीं आया कि क्या करूँ! पर वो और कोई हरकत देता इससे पहले ही मेरी स्त्री शक्ति ने उसका हाथ झटक दिया और उठ कर बाहर आ गई।
कमरे से निकल मैं काँपते कदमों से लगभग सौ मीटर का लान चंद सेकेण्ड में पार कर हवेली के बड़े गेट के बाहर आ गई। गेट के बाहर ही मेरे पति की दुकान थी। मैंने देखा वह मजे से दुकान में बैठा है। मुझे देख चैंक कर बोला, अरे बात हो गई! क्या कहा शेख साहब ने?
तो मैंने ततारोष में पूछा, तुम ऐसे कैसे किसी आदमी के पास मुझे अकेला छोड़ कर आ सकते हो?
वो बोला, नहीं ये बात नहीं, मुझे कुछ जरूरी काम याद आ गया था और फिर शेख साहब तो बहुत अच्छे आदमी हैं।
मैंने आलम को नफरत भरी नजरों से देखा, पर उसे कोई फर्क नहीं पड़ा।
कह कर वह चुप और कंधे झुका निढाल हो गई।
तब भरत ने उसे चुपचुप रोते देखा तो उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, रिलेक्स प्लीज! मैं हूँ ना! तब थोड़ी देर में उठ कर आरती वाशरूम में चली गई।
इस बीच उसने खाने का आर्डर कर दिया और बेड पर लेट कर सुस्ताने लगा।
पंद्रह-बीस मिनट में वह चैंज कर लौटी तो उसकी चूड़ियों की खनक और पायलों की छम-छम उसके दिल में गहरे तक उतर गई। उस मधुर ध्वनि को सुन कर सचमुच ऐसा लगा, मानो अनंग ने विश्वविजय हेतु दुंदुभी दे दी हो! सुबह से ही पीछा करते उस शैतान खयाल को कि वह कहीं बिदक न जाय, परे धकेल उसकी दृष्टि बरबस उस आकर्षक स्त्री से चिपक कर रह गई जिसके बाएँ गाल पर बालों की एक घुँघराली लट सपोले की तरह लहरा रही थी…। अचानक बन आए इस संयोग पर जैसे, अचानक मुस्कराती हुई वह तनिक संकोच के साथ ड्रेसिंग टेबिल की ओर बढ़ गई तो, भरत दो मिनट में आया कह कर फ्रेश होने चला गया।
लौट कर आया, तब तक खाना आ गया था।
खाने के बाद वह अपने बैग से प्रशिक्षण सम्बंधी कोई पुस्तिका निकाल पलटने लगा। दिल हौले-हौले धड़क रहा था।
पुस्तिका पर झुके उसके चेहरे को देख-देख आरती की आँखें शरारत से चमकने लगी थीं। उसने आवाज में नजाकत भरते हुए उससे कहा, लाइट बंद करो, बाबा! हमें सोना है।
सिर्फ सोना…उसके पहले कोई गीत-संगीत तो हो जाए! वह मुस्कराया।
आरती जो कि वाशरूम से ही कुछ न कुछ गुनगुना रही थी, उसने मुस्कराते हुए बताया कि गाने और कविता का शौक तो हमें बचपन से है। शिविर में भी रात देर तक छत्तीसगढ़ी लोकगीत चलते रहते हैं।
तुम भी गा लेती हो छत्तीगढ़ी में…
ना, थोड़ा बहुत!
थोड़ा ही सही, कुछ सुना दो ना उसने मनुहार की।
अब तक वे लोग बेड पर पहुँच गए थे। आरती दिमाग पर जोर डाल कोई लोकगीत याद करने लगी, जिसकी धुन बार-बार उसके होंठों पर आकर मचल रही थी। मगर वह एक दो लाइन से अधिक याद नहीं कर पा रही थी। तो उसने भरत के ऊपर झुकते हुए अपना वही पसंदीदा गीत गुनगुनाना शुरू कर दिया जिसे आलम को सुनाने के लिए याद किया था, मगर जिसने परिस्थितियाँ ही उलट कर रख दीं। और जिसे वह भूल चुकी थी। किंतु कहावत है कि दमित इच्छाएँ तो स्वप्न में भी साकार हो उठती हैं। पहले धीमे-धीमे मुस्कराते और फिर मायूसी के साथ करुण स्वर में गा उठी:
इश्क में हम तुम्हें क्या बताएँ, किस कदर चोट खाए हुए हैं
भरत ने महसूस किया कि- सचमुच वह हालात की सताई हुई है। उसने शादी का जोड़ा जरूर पहन लिया पर वह उसके तईं कफन सरीखा ही रहा। लेकिन तब भी लोग तो उसे दुल्हन ही समझते रहे…। गाते-गाते आँसू भरने से उसकी आँखों का काजल बह चला था, जो ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों अपनी सुर्ख आँखों में उसने काजल नहीं कजा आँज ली हो! मगर जब उसने आगे गायाः ऐ लहद अपनी मिट्टी से कह दे, दाग लगने ना पाए कफन को, आज ही हमने बदले हैं कपड़े, आज ही हम नहाए हुए हैं… तो गाना खत्म होते-होते वह सुबकने जरूर लगी थी पर भरत को शरारत सूझ उठी। उसने कहा कि- तुमने आज ही कपड़े बदले हैं तो फिर तुम्हारी खैर नहीं…।
क्यूँ? उसने आँखें पोंछ उसकी ओर देखा।
हर्ष के छोटे भाई को आने से रोक न पाओगी!
अरे-नहीं! विनोद भाँप कर वह ऐसे लजा गई जैसे सुहागरात की घड़ी आ खड़ी हुई हो।
शरमाने की ऐसी अनोखी अदा देख भरत के दिल में बारिश के बगूले फूट उठे थे। उसके सजने-सँवरने और पेश आने का तरीका इतना नायाब था कि सदैव अभिनव लगती। वह अपना दम साधे उसकी बगल में लेट रहा, लेटा रहा मानों आधा घण्टा हो गया, फिर पौना मगर वह तो अपनी करवट गहरी नींद सो रही! भरत मेश्राम के दिल में तीखी चुभन उठ खड़ी हुई थी। पत्नी से विछोह हुए चार-पाँच साल हो गए थे। औरत की भूख कुछ-कुछ मिट चली थी, मगर आरती के आगमन से फिर सर चढ ़कर बोल उठी थी। वह उसे झकझोर कर बनावटी गुस्से से बोला, सोने का मतलब भी जानती हो? शायद नहीं! तुम्हें शादी का कोई अनुभव नहीं, न पति के संग सोने का।
कैसे? कच्ची नींद से जागते उसने अचकचा कर पूछा। जैसे, कोई चूक हो गई हो।
भरत अपनी जीत पर हँसता-सा बोला, पत्नी खाली-पीली नहीं सोती अपने पति के साथ, उसको प्यार भी करती है। उसी को पति के साथ सोना कहते हैं!
ओ! ओठ गोल किए उसने, जैसे- थकी-माँदी होने से रस्म निभाना भूल गई हो, मुस्करा कर सीधी हो गई और गर्दन तिरछी कर स्नेह पूर्वक उसे निहारने लगी।
भरत उसकी आँखों की निराली चमक देख हतप्रभ था। उसने महसूस किया कि वह बहुत बुद्धिमान और अनुभवी है। तारीफ के पुल बाँधने लगा, सच में तुम्हारे परफारमेंस का तो जवाब नहीं- कविता, एंकरिंग, फील्डवर्क, आफिस वर्क, घर-गृहस्थी या…
या! तारीफ की कायल वह चहकी।
हमबिस्तरी…
अच्छा, सुनते ही चेहरे पर मदहोशी छा गई और उसने फुर्ती से हाथ बढ़ा, उसकी नाक की टोन अपनी चुटकी में भर जोर से दबा दी, बदमाश! तो भरत को जैसे, शिकार का लायसेंस मिल गया। उसके प्रणयशील ओठ उसने अपने ओठों में भर लिए और आनंद से चूसने लगा।
तब उसे भी ज्वर सा चढ़ बैठा और वह उसके कड़क बालों में अपनी मुलायम उंगलियां फेरते महसूस करने लगी कि- नीलिमा ने सच ही कहा था, उसके बाल सचमुच कड़े हैं। क्या टाइट हेयर सोल्डी डोंग की पहचान होते हैं!
पता नहीं! ऐसे गंदे सोच पर वह खुद पर ही झुंझला गई।
मगर बादल-से उमड़ते-घुमड़ते भरत ने अपनी गिरफ्त में ले देह में बिजली-सी भर दी तो वह बुदबुदाने लगी, ओह…नीलिमा सच कहती थी!
उन्माद थमने के बाद भरत ने उसके रुखसार चूमते हुए पूछाः
क्या कहती थी, नीलिमा!
कुछ नहीं! वह शरमा गई।
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