समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में अस्मितामूलक विमर्श :: अविनाश भारती
समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में अस्मितामूलक विमर्श
– अविनाश भारती
सामान्यत: विमर्श से तात्पर्य है चर्चा-परिचर्चा, संवाद, तर्क-वितर्क आदि। दूसरे शब्दों में कहें तो किसी विषय विशेष के सन्दर्भ में गंभीरता से चिंतन-मनन, विवेचन, सलाह-मशविरा, विचार -विनिमय करना ही विमर्श है। सर्वविदित है कि अस्मितामूलक विमर्श के अंतर्गत वे सभी विषय आते हैं जिन्हें मनुष्य की अस्मिता से जोड़कर देखा जाता है। भाषा, धर्म, लिंग, वर्ण, जाति इत्यादि विषय अस्मितामूलक विमर्श के आधार हैं।
निःसंदेह 20 वी सदी विमर्शों की सदी है। हिन्दी साहित्य के विभिन्न विमर्शों में समाज के इन वंचित वर्गों ने कहानी, कविता, उपन्यास, आत्मकथा और अन्य विधाओं के माध्यम से साहित्य जगत में मुख्य धारा का ध्यान अपनी ओर खींचा है।
इसी कड़ी में साहित्य की सबसे लोकप्रिय विधा ग़ज़ल ने भी अपने पुराने व पारंपरिक कथ्यों के लिबास को त्याग, यथार्थ रूपी नये लिबास को धारण किया है। अर्थात आज की समकालीन ग़ज़लें आम-अवाम की पीड़ा, बेबसी और मौन की मुखर अभिव्यक्ति बन कर हाज़िर हुई है।
शुरुआती दौर में स्त्री, दलित और आदिवासी विषयक समस्याएं मुख्य रूप से विमर्श के केन्द्र में हुआ करती थीं। लेकिन अब विमर्श का दायरा निरंतर बढ़ता जा रहा है। उदाहरण स्वरुप अल्पसंख्यक, थर्ड जेंडर, किसान, वृद्ध, बाल आदि विषयक समस्याओं ने भी समकालीन ग़ज़लकारों का ध्यान अपनी ओर तेज़ी से आकृष्ट किया है। आइये, सामयिक परिवेश में ग़ज़लों की भूमिका को क्रमबद्ध रूप में अवलोकन करते हैं।
स्त्री विमर्श
सबसे पहले अगर स्त्री विमर्श को सरल भाषा में समझने की कोशिश करें तो स्त्री विमर्श लिंग आधारित प्रमुख विमर्श है। इसके अंतर्गत स्त्री अस्मिता को केंद्र में रखकर संगठित रूप से स्त्री साहित्य की रचना की जाती है। सर्वप्रथम स्त्रियों की दयनीय स्थिति पर सिमोन द बोउआर का कहना था कि- “स्त्री पैदा नहीं होती, उसे बनाया जाता है।” सिमोन का मानना था कि स्त्रियोचित गुण दरअसल समाज व परिवार द्वारा लड़की में भरे जाते हैं, क्योंकि वह भी वैसे ही जन्म लेती है जैसे कि पुरुष और उसमें भी वे सभी क्षमताएं, इच्छाएं, गुण होते हैं जो कि किसी लड़के में।
आज समकालीन दौर में हाशिए पर खड़े व्यक्ति या समुदाय के साथ पूरा साहित्य जगत मुखरता के साथ खड़ा है। इसके परिणाम स्वरुप ही समकालीन साहित्य अस्मिता मूलक विमर्श का पर्याय बन चुका है।
इस संदर्भ में स्त्रियों के प्रति समाज की उदासीनता या उनके साथ हो रहे दोयम दर्ज़े का अमानवीय व्यवहार पर संजीदा ग़ज़लकार के. पी. अनमोल के कुछ शे’र देखें –
माँ की सहेली, बाप की चिन्ता, भाई का छुटपन,
बेटी अपने साथ में कितना कुछ ले जाती है।
वो कर सकेगा अदब औरतों का क्या ‘अनमोल’,
जो आँख ही से बदन नोंचता निकलता है।
जानते वहशी निगाहों से हैं बदन पढ़ना,
सीख पाये ही नहीं हम किसी का मन पढ़ना।
बाग़, रस्ते, मॉल हो या कोतवाली शहर की,
माँ, बहन, बेटी की अस्मत किस जगह महफूज़ है।
हिन्दी ग़ज़ल की बेहद संवेदनशील ग़ज़लकारा डॉ. भावना खुद भी महिला होने के नाते महिलाओं के दर्द को भली-भाँति समझती हैं और अपनी ग़ज़लों में बख़ूबी रेखांकित भी करती हैं । इस संदर्भ में इनके कुछ शे’र उद्धृत हैं –
कभी हँसती, कभी रोती, कभी चुप्पी लगाती है,
ये औरत रोज छल बल की लड़ाई हार जाती है।
बहुत ही खोखली लगती वहाँ सम्मान की बातें,
जहाँ औरत की हर चर्चा बदन पर आके रूकती है।
जबसे नारी अस्मिता के पक्ष में बातें हुईं,
औरत अपने घर की भी अब आदमी-सी हो गई।
सही मायने में स्त्री की परिभाषा क्या हो सकती है, इसे विज्ञान व्रत जी का यह शे’र बयां करता है –
एक नदी की धार है नारी,
किश्ती और पतवार है नारी।
वर्तमान सामाजिक संरचना पर कई प्रश्नचिन्ह खड़े करते हुए सुप्रसिद्ध गज़लकार ज़हीर कुरेशी, लड़कियों की बढ़ती उम्र पर उनके अभिभावक की स्वाभाविक चिंता को बड़े ही सहजता से अपने शे’रों में स्थान दिया है। एक शे’र देखें –
सशंकित माँ की बानी हो रही है,
बड़ी बिटिया सयानी हो रही है।
इस तथाकथित सभ्य समाज को आईना दिखाते हुए दिनेश प्रभात कहते हैं –
वहाँ तुम नारियों को पूजने की बात करते हो,
जहाँ ज़िन्दा जलाने की प्रथाएँ साथ चलती हैं।
कुछ इसी लहज़े का शे’र बी. आर. विप्लवी कहते हैं –
यहाँ शोलों से सीता को परखने की रवायत है,
कहाँ पाक़ीज़गी का रास्ता ले जाएगा हमको।
इस आधुनिक युग में भी कहीं न कहीं पितृ सत्तात्मक समाज का बर्चस्व है। तभी तो आज तक स्त्रियाँ अपने वांछित हक़ से कोसों दूर हैं। आज भी स्त्रियों को उपभोग की वस्तु मात्र ही समझा जाता है। पुरुष समाज कतई अपनी मानसिक बिमारियों से उबरना नहीं चाहता। अब तो आलम ये है कि कौन कहाँ दूसरी दामिनी बन जाए, कब उसके ज़िंदगी और इज़्ज़त दोनों को सज़ा सुना दी जाए, ख़बर ही नहीं। सुप्रसिद्ध ग़ज़लकार ओमप्रकाश यती कहते हैं –
हँसी ख़ामोश हो जाती ख़ुशी ख़तरे में पड़ती है,
यहाँ हर रोज़ कोई दामिनी ख़तरे में पड़ती है।
प्रसिद्ध ग़ज़लकार अशोक अंजुम बलात्कार जैसी घिनौनी वारदात पर कहते हैं –
नोचे हैं पंख किसने हर और सनसनी है,
आए जो होश में तो खोले ज़बान चिड़िया।
कहीं-न-कहीं हर रोज़ बलात्कार और हत्या की शिकार हो रही लड़कियों की किस्मत पर संवेदनशील ग़ज़लकारा ममता किरण कहती हैं –
पूरी तरह से खिल भी न पाई थी जो कली,
कुछ वहशियों के हाथ कुचलकर वह मर गई।
ओमप्रकाश यती का एक और समसामयिक शे’र देखें जो चारदीवारी के अंदर शोषण का शिकार हो रही महिलाओं का दर्द बयां करता है –
हो रही शादियों के बहाने बहुत,
भेड़ियों के हवाले बहन-बेटियाँ।
सदियों से गाँव की भोली-भाली युवतियों के देह शोषण का एक बड़ा तंत्र हमारे देश में चल रहा है। ऐसे लोग जो समाज में मर्यादा के प्रतिमान समझे जाते हैं, अनेक बार बंद किवाड़ों के पीछे वही लोग नारी अस्मिता को तार-तार करते पाए जाते हैं। डी. एम. मिश्र ने समाज में पुरुषों के इस विद्रूप चेहरे को सामने लाते हुए लिखा है-
गाँव की ताज़ी चिड़िया भून के प्लेट में रखी जाती है,
फिर गिद्धों की दावत चलती पुरुषोत्तम के कमरे में।
समकालीन हिन्दी ग़ज़ल के सशक्त हस्ताक्षर रामनाथ बेख़बर समाज की विद्रुपताओं से वाक़िफ़ हैं। और उसी यथार्थ को बेखौफ़ हो कर अपने शे’रों में कहते हैं –
ग़र पकड़ में आई तो पंख नोचे जाएंगे,
बाग़ की हक़ीक़त सब तितलियाँ समझती हैं।
आधुनिक साहित्य में जब से स्त्री विमर्श अस्तित्व में आया है लगभग तभी से समाज-राजनीति-अर्थव्यवस्था सभी क्षेत्रों में स्त्री के अधिकारों की पुरजोर माँग की जा रही है। संसद ने भी गाँव-गाँव में स्थानीय शासन में आरक्षण के नाम पर महिलाओं को अधिक अवसर देकर नारी-सशक्तीकरण की दिशा में क़ानून बनाकर जो खानापूर्ति की है, हिन्दी के ग़ज़लकार डी. एम. मिश्र ने अपनी इन पंक्तियों में उसकी वास्तविकता से कुछ इस तरह रू-ब-रू करवाया है-
लछमिनिया थी चुनी गयी परधान मगर,
उसका पति – प्रधान देखकर आया हूँ।
सुप्रसिद्ध ग़ज़लकार अनिरुद्ध सिन्हा का यह शे’र महिलाओं की गरीबी, लाचारी, बेबसी और शोषण पर कई सारे सवाल खड़ा करता है। शे’र देखें –
रंग मेहंदी के पैरों से छूटे नहीं,
शर्म का आचरण रोटियाँ खा गईं
संजीव प्रभाकर अपनी गंभीर शायरी की वज़ह से पाठकों की पसंद बने रहते हैं। उनके हरेक शे’र बेहद गंभीर अर्थों का बोध कराते हैं। समाज में स्त्रियों के साथ हो रहे अन्याय पर उनकी संवेदना देखें –
बाप बेटे में ठनी है जान पर माँ की बनी है,
खेलने को जो थमायी वो कमाँ मुड़कर तनी है।
ये हुआ था वो हुआ था झूठ है सब झूठ है ये,
चल बसी वो जानकार ये -हाय! फिर बेटी जनी है।
मुद्दआ है ये कि उसका पैरहन ही मसअला था,
लुट गई इज्जत किसी की ये नहीं अब सनसनी है।
जब कभी स्त्री अपने सपनों को पूरा करने और अपने जीवन को आकार देने के लिए घर की देहरी से बाहर कदम रखती है तो पूरी व्यवस्था उसके विरोध में खड़ी हो जाती है। ऐसी स्त्री को विभिन्न घृणास्पद उपमाओं से विभूषित किया जाता है, वहीं परिवार में भी उसे अकेले ही सबकी प्रश्नवाचक निगाहों से जूझना पड़ता है। ग़ज़लकार राजेश रेड्डी ने पौराणिक व मिथकीय चेतना का आश्रय लेते हुए इस समस्या पर विचार किया है-
रावण के ज़ुल्म सहके अदालत में राम की,
सीताखड़ी हुई है गुनहगार की तरह।
स्त्री विमर्श की बात लगभग सभी रचनाकारों ने की है, पर चांद मुंगेरी जब स्त्री विमर्श की बात करते हैं ,तो उनके शेर एक अलग अनुभूति लिए होते हैं। उनका कहना है कि खुद को बिना मजबूत बनाए हुए कोई भी लड़ाई लड़ी नहीं जा सकती ।जैसे एक मैना जब बाज से लड़ती है ,तो वह खुद-ब-खुद सबकी नजर में आ जाती है। शे’र देखें –
ऐसे सिमट के रह नहीं, खुद को बना बुलंद
‘मैंना’ लड़ी जो बाज से सबकी नज़र गई
वृद्ध विमर्श
आधुनिक दौर में हम इतने सीमित हो गए हैं कि हमें खुद के सिवा कुछ भी नहीं दिखता। हम अपने अतीत और संस्कार को भूल बैठे हैं। मैं, मेरी पत्नी, मेरे बच्चे…बस इतनी-सी दुनिया हो गई है अपनी।
मातृ देवो भवः पितृ देवो भवः से अपने जीवन का आरंभ करने वाला मनुष्य आज इतना स्वार्थी हो गया है कि उसे अपने माँ-बाप की भी चिंता नहीं रही। वर्तमान के चक्कर में नई पीढ़ी खुद का भविष्य तक भूल गई है।
समकालीन हिन्दी ग़ज़लकार बुजुर्गों की स्थिति से बेहद आहत नज़र आते हैं। इनकी ग़ज़लों में इसकी चिंता साफ़ दिख जाती है। इस बाबत अनिरुद्ध सिन्हा जी का ये शे’र ग़ौर करें –
बुढ़ापे में हमें यूँ क़ैद कर रक्खा है बच्चों ने,
हमारे घर की चौखट से हमारी चारपाई तक।
वरिष्ठ ग़ज़लकार अशोक रावत का ये शे’र भी बुज़ुर्गों की दयनीय स्थिति की ओर इशारा करता है –
क्यों छोटी-छोटी बातों पर चौपल बिठाई जाती है,
क्यों हमसे अपने घर में ही हर बात छुपाई जाती है।
समकालीन हिन्दी साहित्य जगत के सुप्रसिद्ध ग़ज़लकार डॉ. कुंवर बेचैन ने अपनी रचना धर्मिता का बख़ूबी निर्वहन किया है। दुष्यंत कुमार के बनाए रास्ते को इन्होंने अपनी शायरी से और मजबूती प्रदान की है। घर-घर में बुज़ुर्गों की स्थिति और उनके दर्द को शब्द देता इनका ये शे’र देखें –
उँगलियाँ थाम के ख़ुद चलना सिखाया था जिसे,
राह में छोड़ गया राह पे लाया था जिसे।
प्रसिद्ध शायर ज़हीर कुरेशी का मानना है कि बुज़ुर्गों का होना यानी कि मनुष्य में चिंतन का परिपक्व होना है और यही परिपक्वता हमारे देश का इंजन है जिस पर युवा पीढ़ी सवार है। यानी कि बुज़ुर्गों के आशीर्वाद के बिना विकास की बातें बेईमानी है। शे’र देखें –
उम्र के साथ थकी देह हुआ मन बूढ़ा,
मन के पश्चात हुआ व्यक्ति का चिंतन बूढ़ा।
आज तक तो यही देखा है युवा पीढ़ी ने,
देश को खींच रहा है कोई इंजन बूढ़ा।
अपने जीवन में बुज़ुर्गों की ज़रूरत, नसीहत और दुआ के महत्व को समझते हुए हस्तीमल हस्ती कहते हैं –
भूल मत हस्ती बुज़ुर्गों की दुआ,
काम आती है दवा इक हद तक।
इस संदर्भ में दरवेश भारती कहते हैं कि बुज़ुर्ग हमारे लिए दरख़्त के समान हैं, जिसकी छाया के बगैर हमारे व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास संभव ही नहीं है। शे’र देखें –
बुज़ुर्ग ही न था वह इक घना दरख़्त था,
कि जिसके साये में पलकर हैं हम जवान हुए।
खुद में मग्न रहने वाली युवा पीढ़ी को चेताते हुए अशोक मिजाज बद्र कहते हैं –
बुढ़ापा उन पर भी आख़िर कभी तो आएगा,
जवान होती हुई पीढ़ियाँ ये क्या जाने।
डॉ. कृष्ण कुमार ‘नाज़’ भी बुज़ुर्गों पर अत्याचार करने वाली पीढ़ी को हक़ीक़त से वाक़िफ़ कराते हुए कहते हैं –
भूल मत तेरी भी औलाद बड़ी होगी कभी,
तू बुज़ुर्गों को खरी-खोटी सुनाता क्यों है।
माधव कौशिक ने समय के बदलाव को रेखांकित करते हुए लिखा है-
वक्त के साथ ये बदलाव चलो आ ही गया,
बच्चे माँ-बाप को दीवार समझ लेते हैं।
बुढ़ापे में होने वाली बीमारियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। एक उम्र के बाद शरीर भी साथ देना छोड़ने लगता है। इस परिस्थिति में दर्द से घिरा तथा हाशिए पर बैठा बुज़ुर्ग आख़िर करे भी तो क्या करे। इस सन्दर्भ में सुप्रसिद्ध ग़ज़लकार ज्ञान प्रकाश विवेक का ये शे’र देखें –
जिस्म का घाव हो गया बूढ़ा,
दर्द की ऐनकें बदलता है।
संजीदा ग़ज़लकार डी. एम. मिश्र का ये शे’र रूह को झकझोर देने वाला है। हक़ीक़त बयां करता हुआ ये शे’र ग़ौर करें –
बहुत बहला के, फुसला के जिसे रोटी खिलाता था,
उसी बेटे से रोटी आज हमको माँगनी पड़ती।
हरेराम समीप ने वर्तमान पीढ़ी की इस निर्दयतापूर्ण स्वार्थवृत्ति की भर्त्सना करते हुए कटाक्ष किया है-
तेरहवीं के दिन बेटों के बीच बहस बस इतनी थी,
किसने कितने ख़र्च किए हैं अम्मा की बीमारी में।
वशिष्ठ अनूप का इसी मिजाज का एक शे’र देखें-
हज़ारों दुख सहे हैं उम्र-भर औलाद की ख़ातिर,
बुढ़ापे में वह बच्चों की रुखाई सह नहीं पाती।
रामनाथ बेख़बर जी का ये शे’र भी काबिले ग़ौर है –
बड़े हुए हैं जिन पेड़ों की छाँव तले हम,
काट रहें उनकी ही डाली तौबा-तौबा।
आज के युवा ग़ज़लकारों ने भी बुज़ुर्गों की स्थिति पर ख़ूब शे’र कहे हैं। युवा ग़ज़लकार विकास का ये शे’र देखें –
मेरे बच्चे बड़े हुए जबसे,
ज़िंदगी अब नहीं हँसाती है।
पिता की बेबसी को शब्द देता के. पी. अनमोल का यह शे’र ग़ौर करने वाला है –
बाप नहीं रो पाता बेटों के आगे,
बूढ़ी आँखों में भी कितना पानी है
पिता की लाचारी को प्रमुखता से अपने शे’रों में स्थान देने वाले डॉ. जियाउर रहमान जाफ़री कहते हैं –
बूढ़े पिता की आँख महज़ देखती रही,
बेटे तमाम रस्म उठाने पे आ गये।
हमने कई मर्तबा देखा है कि अच्छे परिवारों में भी बुज़ुर्ग मुट्ठी भर दाने को तरस जाते हैं। घर में उनके लिए कोई जगह नहीं होती। अंततः वे वृद्धाश्रम में रहने को मज़बूर हो जाते हैं। इस पर राहुल शिवाय का ये शे’र देखें –
एक मुट्ठी अन्न की ख़ातिर अब वह जी रहा,
नौजवां बेटों को जो अपनी जवानी दे गया।
वृद्धाश्रम में गुज़रते बुढ़ापे को देख रमेश प्रसून युवा पीढ़ी से क्षुब्ध होकर कहते हैं –
वृद्धाश्रम पहुँचाने आया है जिसको,
बेटे का बेटा वह उनका पोता जी।
इस संदर्भ में मेरा भी एक शे’र ग़ौर करें –
अपना सबकुछ छोड़ रहा है,
घर का राशन जोड़ रहा है।
कहते वालिद अब्बा जिसको,
कितना खुद को तोड़ रहा है।
किसान विमर्श
भारत में शुरू से ही किसान विमर्श एक महत्त्वपूर्ण विषय रहा है। किसानो की समस्याएँ पहले भी मौजूद थी और वर्तमान में भी जस की तस है। हिन्दी साहित्य में किसानो से जुड़े विषयों को अनेक रचनाकारों ने अपने साहित्य में उठाया है। किसान, खेत और मज़दूर को लेकर यह विमर्श साहित्य में आधुनिक काल से चला आ रहा है। भारतीय किसान का जीवन बहुत ही दरिद्रता, ऋणग्रसत्ता एवं कष्टों से भरा पड़ा है। इस पर समकालीन हिन्दी ग़ज़लकारों ने भी किसानो के जीवन के प्रत्येक पक्ष को छूने का प्रयत्न किया है। किसानों की दयनीय स्थिति पर युवा ग़ज़लकार अभिषेक सिंह के कुछ शे’र देखें –
प्यासे खेतों ने फिर से है पूछा,
राशि कितनी किसान तक पहुँची।
सभी हैं एकमत अब हुक्मरानों में,
फ़सल तैयार होगी कारखानों में।
हाँफ रही है भूखी गैया,
चरवाहा सुस्ताने पर है।
धरती के भगवान कहे जाने वाले किसान आज पाई-पाई के मोहताज़ हैं। उन्हें अनाजों के उचित दाम नहीं मिल रहे, इसके अलावे भी वे कभी बारिश, तो कभी सूखा का दंश झेलने को मज़बूर हैं। इस संदर्भ में के. पी. अनमोल के शे’र मुखरता से उनकी पीड़ा को बयां करते हैं। कुछ शे’र देखें –
एक झुलसी-सी दुपहरी और जर्जर-सा बदन,
हाय वो हलधर भी तो क़िस्मत का मारा ख़ूब था।
फ़ाका करते देख धरा के बेटे को,
भीतर-भीतर घुटता इक खलिहान रहा।
डाॅ. भावना का नाम बेहद संवेदनशील ग़ज़लकारों में शुमार है। गाँव में जन्मी डॉ. भावना, आज भी खुद को ग्रामीण संस्कृति से जुड़ा हुआ पाती हैं। उन्होंने किसानों की समस्या को बहुत करीब से देखा और महसूस किया है। इनके कुछ शे’र देखें –
डभकते भात की ख़ुशबू उड़ा कर ले गया कोई,
किसानों की कटोरी में तो पतली दाल आती है।
देर तक माटी के संग सजदा हुआ है धूप में,
खेतिहर से बीज तब रोपा गया है धूप में।
पसीने से जो रोटी बो रहा है,
कृषक वो ही भला क्यों रो रहा है।
धूल भरा खलिहान कटा- सा जंगल है,
सूखे की इस मार से अलगू बेकल है।
उसी को कह रहे हैं अन्नदाता,
उसी को ही सताए जा रहे हैं।
उड़ रहा है नभ में जो उम्मीद का बादल,
दे रहा वो हर कृषक को धैर्य का संबल।
डॉ. पंकज कर्ण भी किसानों की समस्या से भली-भाँति वाक़िफ़ हैं। किसानों की वकालत करते हुए कहते हैं –
धरती की कोख से यही सोना उगाएंगे,
सरकार से किसानों को हिम्मत भी तो मिले।
डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफ़री समकालीन हिन्दी ग़ज़ल के सशक्त हस्ताक्षर हैं। ग़ज़ल आलोचक के रूप में भी इन्हें ख़ूब लोकप्रियता मिल रही है। इनके कुछ शे’र ग़ौर करें –
नई इक फैक्ट्री तामीर कर लेने की चाहत में,
यहाँ के लोग होरी से किसानी छीन लेते हैं।
जड़ें जो काट के बिल्डिंग नई बनाएंगे,
तो हम ज़मीं पे कहां सब्जियां उगाएंगे।
ओमप्रकाश यती, किसानों की अत्यंत दयनीय स्थिति से आहत होकर कहते हैं –
यह देश किसानों का है, कहते हैं सभी लेकिन,
इस देश में कब होगा सम्मान किसानों का।
वहीं वरिष्ठ ग़ज़लकार दिनेश प्रभात की नज़र में भी इनके हालात दयनीय हैं। वे कहते हैं-
देखना जल्दी बनेंगे हम महाराणा प्रताप,
रोटियाँ नज़दीक चलकर आ रही हैं घास की।
रामनाथ बेख़बर भी किसानों के हिमायती हैं। किसानों के साथ हो रहे अत्याचार और दुर्व्यवहार के खिलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद करते हुए कहते हैं-
जहाँ भर का वो पेट भरते हैं लेकिन,
किसानों के हिस्से का दाना कहाँ है।
पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान, जय किसान का नारा दिया था। साठ के दशक में आई हरित क्रान्ति ने कृषि क्षेत्र को बेहतर करने में मदद की। लेकिन वर्तमान में किसानों की स्थिति बद से बदतर है। आय दिनों किसानों की आत्महत्या की ख़बरें आती रहती हैं। इसके पीछे महँगाई, प्रकृति की मार, ऋण आदि कई कारण हो सकते हैं। इस सन्दर्भ में मैं अपना शे’र उद्धृत करना चाहूँगा। शे’र देखें –
जो सूखा और बरखा में सभी का पेट भरते हैं,
उधारी में वही हलधर चिता खुद की सजाते हैं।
किसान को ही केन्द्र में रखकर देवेन्द्र आर्य जैसे प्रयोगधर्मी ग़ज़लकार ने कई शे’र कहे हैं। वे किसान की आत्महत्या को अनुचित मानते हैं। उनके अनुसार किसानों को संघर्ष का रास्ता अपनाना चाहिए। उनके ये शे’र देखें –
किसानों जान देने से न होगा,
उगाओ अपनी इक दमदार भाषा
नहीं करते थे खेतिहर आत्महत्या,
उपज बेशक थी कम सौ साल पहले।
आभावग्रस्त किसानों के त्रासदी भरे जीवन के तकलीफदेह मंजर को देखते हुए विज्ञान व्रत कहते हैं –
होरी सोच रहा है उसका,
नाम यहाँ किस दाने पर है।
दलित विमर्श
भारतीय समाज में दलित जातियों के साथ हुए अत्याचार और अन्याय का एक लंबा इतिहास है, जिसे झुठलाया जाना संभव नहीं है। अब भी यदा-कदा देश के लगभग हर हिस्से से दलित-शोषण की अमानवीय घटनाएँ सामने आती रहती हैं। समकालीन ग़ज़ल में यद्यपि दलित-विमर्श की तरह कोई स्वतन्त्र साहित्यिक धारा तो अस्तित्व में नहीं है लेकिन एक आत्मचेतस ग़ज़लकारों ने समाज के इस विद्रूप यथार्थ को भी अपनी ग़ज़लों में व्यक्त करते हुए हर प्रकार के शोषण और विभेदकारी मानसिकता के प्रति अपना विरोध जताया है। रामनारायण स्वामी ‘अंका’का कथन है- “समकालीन ग़ज़ल लेखन में कोई संकुचित दलित दृष्टिकोण नहीं दिखाई पड़ता, बल्कि ग़ज़लकार दलितों के पक्ष में कलम चलाते हुए उनका शोषण करने वाली शक्तियों को ज़्यादा से ज़्यादा रेखांकित करने की कोशिश करते हैं।” ग़ज़लकार किशन तिवारी ने जाति-मज़हब-रंग आदि सभी आधारों पर किए जाने वाले भेदभाव को नकारते हुए लिखा है-
आपको मुझसे शिकायत है या मेरी जात से,
नाम, मज़हब, रंग से तुमने चुना चेहरा मेरा।
बहुत बड़ी विडंबना है कि जिन लोगों पर ये दायित्व है कि वे समाज में सभी के हितों की समान रूप से रक्षा करें और अवसरों की समानता उपलब्ध कराएँ, ऐसे लोग ही जब जातिवाद के सींखचों में कैद होकर पक्षपातपूर्ण आचरण करते हैं तो संविधान की समतामूलक अवधारणा पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। अपनी क्रांतिकारी ग़ज़लों के लिए प्रख्यात गज़लकार बल्ली सिंह चीमा लिखते हैं-
यहाँ पर सब बराबर हैं ये दावा करने वाला ही,
उसे ऊपर उठाता है मुझे नीचे गिराता है।
जाति के आधार पर जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में किए जाने वाले भेदभाव और शोषण को नकारा नहीं जा सकता। ग़ज़लकार डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफ़री की ग़ज़लों में दलित जातियों की उपेक्षा के प्रति गहरी वितृष्णा का भाव दिखाई देता है, इसलिए हज़ारों-हज़ार शोषित दलितों की पीड़ा को अभिव्यक्त करते हुए, वे लिखते हैं-
सियासत का अलग ही माजरा है,
दलित को ज़िन्दगी का दुःख पता है।
दलितों की समस्या को मुखरता से के.पी. अनमोल अपनी ग़ज़लों में रेखांकित करते हैं। साथ ही साथ उनकी हिम्मत बनकर उनके साथ भी खड़े दिखते हैं। इस सन्दर्भ में इनके कुछ शे’र देखें –
सदियों तक ग़म मन ही मन में पाले हैं,
पर अब हम आवाज़ उठाने वाले हैं।
आप मालिक हैं कहें जो भी हमें कहना है,
आप सुर में हमें सुर भी मिलाने होंगे।
हमें लड़ने की हिम्मत दो, दुआ दो,
तुम अपने पास अपने दान रक्खो।
युवा विमर्श
जवान होते युवकों से पूरा परिवार बड़ी आशा रखता है, लेकिन जब वही युवा रोज़गार के लिए दर-दर की ठोकरें खाता है तो वह पूरे घर के लिए ही समस्या का कारण बन जाता है। ऐसी स्थिति में हमारे देश के युवाओं में अवसादग्रस्तता की समस्या निरन्तर बढ़ती चली जा रही है। ज़हीर कुरेशी ने बेरोज़गार युवाओं और उनके परिवार की मनःस्थिति को आत्मसात करते हुए लिखा है-
खूब पढ़-लिखकर भी जिनको काम मिल पाए नहीं,
सबसे पहले वे युवा, घर में समस्या बन गए।
बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या, कौशल आधारित शिक्षा के अभाव, राजनीतिक-प्रशासनिक इच्छाशक्ति की कमी ने युवाओं में एक नया ‘बेरोज़गार’ वर्ग खड़ा कर दिया है। इस वर्ग के युवा शिक्षा ग्रहण करने के बाद या तो रोज़गार दफ़्तर की लाइनों में खड़े दिखाई देते हैं या सरकारों से अपने लिए रोज़गार की माँग करते हुए आये दिन देश-भर में आन्दोलन करते हुए दिखाई देते हैं। ग़ज़लकार रामकुमार कृषक ने युवाओं के असंतोष को वाणी देते हुए लिखा है-
लाइन में जाम हो जा यह रोज़गार दफ़्तर,
रोज़ी के नाम रोज़ा यह रोज़गार दफ़्तर।
ओमप्रकाश यती युवाओं से हुए वादाख़िलाफ़ी पर आहत हैं, युवाओं की दुर्दशा पर उनका ये शे’र गौरतलब है –
नौजवानों को मिलेगा काम, वादा था मगर,
घूमते मिल जाएँगे हर गांव में बेकार सौ।
आज बेरोजगारी अपने चरम पर है। युवा हर तरह की तालीम हासिल करने के बाद भी डिग्री लेकर दर-दर भटकने को विवश हैं। लेकिन इन सबके बावजूद भी जीवन से नौकरी कोसों दूर है। परिवार पर बोझ बना नौजवान दिन-रात अपनी किस्मत को कोसता है। संजीव प्रभाकर ने इन सारे दृश्यों को नज़दीक से देखा और महसूस किया है। शे’र देखें –
काम है न धंधा है, क्या करे कहाँ जाए,
टकटकी लगा छत से, पूछता बड़ा भाई।
बाल विमर्श
समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में भूख से दम तोड़ते, बाज़ारों में मजदूरी करके अपने परिवार का पेट पालते, दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली का दंश झेलते बच्चों की पीड़ा को प्रभावी स्वर मिले हैं। हिन्दी ग़ज़ल में भौतिकवादी जगत में यथार्थ की चक्की में पिसते हुए मासूम बचपन को विषय बनाकर भी अनेक शे’र लिखे गये हैं। समकालीन हिन्दी ग़ज़लकारों को प्रकाश में लाने की दिशा में महत्वपूर्ण शोधकार्य करने वाले ग़ज़लकार हरेराम समीप ने ढाबे पर काम करने वाले बालश्रमिक की पीड़ा को व्यक्त करते हुए बोनज़ाई का प्रतीक ग्रहण किया है-
बोनज़ाई गमले में है,
ज्यों छोटू ढाबे में है।
सुप्रसिद्ध ग़ज़लकार डॉ. कृष्ण कुमार ‘नाज़’ निचले तबके के गरीब और बेबस बच्चों की क़िस्मत को देख बेहद आहत हो उठते हैं। स्वतः उनकी वेदना ग़ज़ल बन जाती है। शे’र देखें –
कूड़े के अंबार से पन्नी चुनते अधनंगे बच्चे,
पेट से हटकर भी कुछ सोचें, वक़्त कहाँ मिल पाता है।
वो बच्चा सोचने लगता है सच और झूठ में अंतर,
कहानी उसको परियों की कोई जब भी सुनाता है।
गरीब परिवार के अबोध बच्चे भी जहाँ-तहाँ मज़दूरी करते दिखाई देते हैं। एक सभ्य समाज के लिए यह अत्यंत चिंता और शर्मिंदगी का विषय है। जिस उम्र में बच्चों को शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए उस उम्र में अनेक बच्चे अमीरों की हवेलियों पर ईंट-गारा ढोते हुए देखे जा सकते हैं। ग़ज़लकार शिवओम अम्बर को यह दृश्य भीतर तक कचोट जाता है-
फूल जैसे सुबह गये घर से, राख हो शाम आ गये बच्चे,
बन गया एक और शीश महल, नींव में काम आ गये बच्चे
डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफ़री आँगन में बच्चों की मौज़ूदगी को अनिवार्य रूप से महसूस करते हुए कहते हैं –
निकला है फूल जबसे ये गुलशन उदास है,
बच्चे नहीं तो रह के भी आँगन उदास है।
विमर्श की नजरिए से बात करें तो संवेदनशील युवा ग़ज़लकार के. पी. अनमोल अपनी ग़ज़लों में किस्मत के मारे, भूखे-फटेहाल नौनिहालों की पीड़ा को प्रमुखता से स्थान दिया है। कुछ शे’र ग़ौर करें –
सोचा करते हैं ये पीढ़ी हमसे कितनी आगे है,
इन्स्टा पर जब हम बच्चों के फ़ोटो देखा करते हैं।
होड़ तो अपनी जगह ठीक है करेंगे मगर,
क्या ज़रूरी नहीं औलाद की थकन पढ़ना।
चल दिये बच्चे सुनहरी नींद वाले गाँव में,
कान में जब माँ की मीठी लोरियाँ रक्खी गयीं।
रात से मम्मी-पापा में कुछ अनबन,
रात से बच्चे का मन चटका-चटका है।
तुम्हारे साथ घड़ी भर को खेल कर बच्चों,
मेरे बदन ने दिनों की थकन उतारी है।
एक तो शहरों में मम्मी और पापा व्यस्त हैं,
दूर बच्चों से बहुत हैं दादी, नानी सो अलग।
बगल में डालकर थैला ये बच्ची,
नहीं पढ़ने, कमाने जा रही है।
इस सन्दर्भ में ग़ज़लकार रामनाथ बेख़बर का ये शे’र काफ़ी हृदय विदारक है। आप भी देखें –
वो बच्चे जिनके सर से उठ चुका माँ-बाप का साया,
कहाँ हक़ है खिलौने देखकर उनको मचलने का।
आदिवासी विमर्श
आज भारत की अनेक समस्याओं में नक्सलवाद भी एक अत्यंत महत्वपूर्ण समस्या है। नक्सलवाद की समस्या का सम्बन्ध भारत के वन्य क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी समुदाय से जोड़ा जाता है। अपने जल, जंगल और ज़मीन से अटूट लगाव रखने वाला शांतिप्रिय आदिवासी समुदाय ने राजनीतिक-पूंजीवादी कुचक्रों में पड़कर अपने अधिकारों की रक्षा के लिए हथियार उठाकर नक्सलवाद का रास्ता अपना लिया। यह अत्यंत चिंता का विषय है। देवेन्द्र आर्य ने नक्सलवादी समस्या के पीछे संवैधानिक व्यवस्था की अवहेलना के सूत्र खोजे हैं-
आदिवासी नक्सली और संविधान।
यूँ समझ लो इस भँवर से उस भँवर।
कभी-कभी जब शोषण के तंत्र से मुक्ति के लिए आदिवासी समुदाय आवाज़ उठाता है और शहर की सड़कों पर उतरकर आन्दोलन की राह पकड़ता है तो राजनीतिक नेतृत्व उस पर सहानुभूतिपूर्वक चिंतन करने के बजाय उसके पीछे राजनीतिक षड्यंत्र के सूत्र खोजने लगता है। बल्ली सिंह चीमा ने अपने इस शे’र में इस मानसिकता पर गहरा कटाक्ष किया है-
जंगल को साथ लेकर ये घेरेंगे शहर को,
इन आदिवासियों की सियासत तो देखिए।
के. पी. अनमोल आदिवासी जन-जीवन में सुधार लाने और उनके सर्वांगीण विकास हेतु उनकी नई पीढ़ी को शिक्षा से जोड़ना चाहते हैं। इन्हें पता है कि जब तक आदिवासी शिक्षित नहीं होंगे, तब तक अपने हक़ और अधिकारों के लिए अपनी आवाज़ बुलंद नहीं कर पाएँगे।
साँप जंगल की तरफ जाएँ मज़े करते हुए,
और स्कूल सभी नन्हें सपेरे जाएँ।
किन्नर विमर्श
नि:संदेह आज भी किन्नरों की ख़ोज-ख़बर रखने वाले बहुत कम लोग हैं। फलस्वरूप उनकी समस्याओं पर भी कम ही चर्चाएं हो पाती है। किंतु किन्नर जीवन और उससे जुड़ी समस्याओं पर अब साहित्य में विमर्श प्रारम्भ हो चुका है। भविष्य में जब इस समुदाय द्वारा मानव अधिकारों की लड़ाई व्यापक स्तर पर लड़ी जाएगी तो जागरूक समाज उनके साथ उनके पक्ष में खड़ा होगा। इस अभिशप्त समुदाय को बिना लिंग भेद के सामाजिक स्वीकार्यता प्राप्त होगी। इस संदर्भ में समकालीन हिन्दी ग़ज़लकारों की नज़र भी इनकी समस्याओं पर पड़ी है। समाज में इनके साथ हो रहे दोयम दर्ज़े के व्यवहार पर डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफ़री कहते हैं –
मज़ा कुछ लोग उसके ले रहे थे,
मगर किन्नर दुआएँ दे रही थीं।
विकलांग विमर्श
विकलांगों को नव जीवन देने एवं समाज की मुख्यधारा में शामिल कर उन्हें प्रगतिगामी बनाने में विकलांग-विमर्श की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि भारत में विकलांग-विमर्श की एक सुदीर्घ परंपरा रही है। ऋग्वेद के एक सूक्त में अपंगों, अंधों, लूले-लंगड़ों, बहरों आदि के साथ दया एवं सहृदयता पूर्व व्यवहार करने, उन्हें शिक्षित एवं पुरुषार्थी बनाने का परामर्श है।
विकलांगों का हित-चिंतन करने वालों की आज कमी नहीं है। अनेक संस्थाएँ और व्यक्ति इस दिशा में क्रियाशील हैं। रचनाकार भी विकलांगों के कल्याण-महायज्ञ में अपने ढंग से सुविधाएँ देने का कार्य कर रहे हैं। कविता, ग़ज़ल, कहानी, लघुकथा आदि के माध्यम से वे विकलांगों के अभ्युत्थान हेतु सार्थक विमर्श की ओर गतिशील हैं। इसमें केवल सकलांग ही नहीं,अपितु विकलांग भी सक्रिय हैं। इस सन्दर्भ में भी डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफ़री के कुछ शे’र देखें –
ये बूढ़े बाप की खाकर कमाई,
मेरी बैसाखियों को देखते हैं।
नहीं पाँव हैं तो क्या लेना,
हौसले मुझको राहें देना।
संजीव प्रभाकर ने विकलांगों में छुपी उस अदृश्य शक्ति की पहचान की है, जो सकलांगों के पास भी नहीं है। तभी तो उन्होंने एक-दो शे’र नहीं, बल्कि पूरी-की-पूरी ग़ज़ल ही कह डाली है। आप भी ग़ौर करें –
सब की अपनी ख़ासियत है, क्या हुआ दिव्यांग हैं,
अपनी अपनी शख्सियत है, क्या हुआ दिव्यांग हैं?
ख़ास है हर शख्स , सबकी है अहम मौजूदगी,
अस्ल में ये असलियत है, क्या हुआ दिव्यांग हैं?
हर चुनौती से निपट लेंगे यक़ीनन ख़ुद ब ख़ुद,
हाँ, ज़रूरी तर्बियत है, क्या हुआ दिव्यांग हैं?
कौन कितना किस तरह उपयोग करता अंग को,
ये तो उसकी कैफ़ियत है, क्या हुआ दिव्यांग हैं ?
जो विधाता ने बनाया सो बनाया सोचकर,
हर किसी की अहमियत है, क्या हुआ दिव्यांग हैं?
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि समकालीन हिन्दी ग़ज़लकार पूरी ईमानदारी से अपनी रचना धर्मिता का पालन कर रहे हैं। विसंगतियों के विरुद्ध जो मशाल कभी दुष्यंत कुमार ने जलाई थी, अब वही मशाल धधकती ज्वाला बन चुकी है। हिन्दी ग़ज़लकार बहुत पहले ही मोहब्बत की परिधि से बाहर आ चुके है लेकिन अब सामयिक परिवेश में अस्मितामूलक विमर्श को अपनी ग़ज़लों के केन्द्र में रखना इनकी विशेषता बन चुकी है। निःसंदेह ग़ज़लों में कथ्य के स्तर पर क्रांतिकारी परिवर्तन आ चुका है और आज कोई भी विषय अकाव्योचित नहीं माना जाता। हिन्दी ग़ज़लों में भी प्रतिरोध का स्वर बढ़ा है, जनसरोकार की बातें की जा रही हैं। अब समकालीन हिन्दी ग़ज़ल के लिए कोई व्यक्ति या विषय हाशिए का नहीं रहा। ग़ज़ल अब साहित्य की सबसे लोकप्रिय विधा बन चुकी है। और इसे लोकप्रिय बनाने का श्रेय सिर्फ़ और सिर्फ़ सुधी पाठकों और संजीदा ग़ज़लकारों को जाता है।
। गुणा सर्वत्र पूज्यते ।
सन्दर्भ ग्रंथ-सूची
[1] डॉ. भावना : हिन्दी ग़ज़ल के बढ़ते आयाम,श्वेतवर्णा प्रकाशन,नई दिल्ली,2022
[2] वशिष्ठ अनूप : ‘समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में स्त्री विमर्श’ देशबंधु (ई पेपर), 15-07-2012, http://www.deshbandhu.co.in/vichar/
[3] डी. एम. मिश्र : आईना दर आईना, नई दिल्ली, 2016
[4] देवेन्द्र आर्य : मोती मानुष चून, अयन प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2014
[5] डी. एम. मिश्र : आईना दर आईना, नई दिल्ली, 2016
[6] राजेश रेड्डी : आसमान से आगे, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009
[7] किशन तिवारी : धूप का रास्ता, पहले पहल प्रकाशन, भोपाल, 2019
[8] बल्ली सिंह चीमा : उजालों को खबर कर दो, सेतु प्रकाशन, दिल्ली, 2019
[9] बल्ली सिंह चीमा : जमीन से उठती आवाज़, फ़ोनीम पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, दिल्ली, 2012
[10] ज़ियाउर रहमान जाफ़री : ‘हिन्दी के समकालीन ग़ज़लकारों की मूल संवेदना’, अक्षरवार्ता इंटरनेशनल रिसर्च जर्नल, मई 2008, https://aksharwartajournal.page/article/hindee-ke-samakaaleen-gazalakaaron-kee-mool-sanvedana-/Trth8Q.html
[11] देवेन्द्र आर्य : मोती मानुष चून, अयन प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2014
[12] रामकुमार कृषक : अपजस अपने नाम, परमेश्वरी प्रकाशन, दिल्ली, 2012
[13] जहीर कुरेशी : बोलता है बीज भी, प्रतिश्रुति प्रकाशन, कोलकाता, 2014
[14] डॉ. भावना : मेरी माँ में बसी है…श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली, 2022
[15] विकास, अभी दीवार गिरने दो, श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली, 2022
[16] देवेन्द्र आर्य : मोती मानुष चून, अयन प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2014
[17] बल्ली सिंह चीमा : उजालों को ख़बर कर दो, सेतु प्रकाशन, दिल्ली, 2019
[18] रामकुमार कृषक : अपजस अपने नाम, परमेश्वरी प्रकाशन, दिल्ली, 2012
[19] हस्तीमल हस्ती : कुछ और तरह से भी, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2005
[20] हरेराम समीप : इस समय हम, शब्दालोक, दिल्ली, 2011
[21] माधव कौशिक : नयी उम्मीद की दुनिया, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2019
[22] हरेराम समीप : इस समय हम, शब्दालोक, दिल्ली, 2011
[23] रामकुमार कृषक : नीम की पत्तियाँ, शिल्पायन, दिल्ली, 2018
[24] जहीर कुरेशी : बोलता है बीज भी, प्रतिश्रुति प्रकाशन, कोलकाता, 2014, पृ. 74
[25] के. पी. अनमोल : जी भर बतियाने के बाद, श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली,2022
[26] अभिषेक सिंह : वीथियों के बीच,लिटिल बर्ड पब्लिकेशन,नई दिल्ली,2022
[27] ओमप्रकाश यती : रास्ता मिल जाएगा,श्वेतवर्ण प्रकाशन, नई दिल्ली,2022
[28] रमेश प्रसून : सिर्फ़ तू!सिर्फ़ तू!,श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली,2022
[29] हरिशंकर सक्सेना : निर्झरिणी(डॉ. कृष्ण कुमार नाज़ पर केंद्रित अंक-12,2018
[30] के. पी. अनमोल :कुछ निशान काग़ज़ पर, किताबगंज प्रकाशन सवाई माधोपुर राजस्थान, संस्करण प्रथम,2021
[31] डॉ. भावना : इक्कीसवीं सदी की ग़ज़लें,श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली,2022
[32] रामनाथ बेख़बर : ख़्वाहिश, श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली,2022
[33] रामनाथ बेख़बर : भले हूँ बेख़बर लेकिन,श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली,2021
[34] संजीव प्रभाकर : ये और बात है, श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली,2023
[35] चांद मुंगेरी : एक टुकड़ा धूप का,अयन प्रकाशन,नई दिल्ली, 2023
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परिचय : अविनाश भारती युवा ग़ज़लकार हैं. इनकी ग़ज़लें और आलेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं
मो.-9931330923