विद्यापति के गीतों की काव्यगत विशेषताएँ :: डॉ. शान्ति कुमारी

विद्यापति के गीतों की काव्यगत विशेषताएँ

                                   – डॉ. शान्ति कुमारी

विद्यापति हिंदी के अक्षय वट माने जाते हैं । विद्यापति के महान व्यक्तित्व के कारण हिंदी साहित्य के वीरगाथा काल को डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी को आदिकाल कहना पड़ा था।  विद्यापति में संस्कृत  और अपभ्रंश की परंपरा थी और वे  देसिल बयना  के गायक थे। विद्यापति को अभिनव जयदेव  कहा जाता है। अतः कोमलकान्त  पदावली के विद्यापति श्रेष्ठ गायक थे ।उनकी प्रेयसी लखिमा देवी ने विद्यापति को कवि कंठाहार कहा था।

आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अनुसार हिंदी साहित्य का आदिकाल में ही रीतिकाल देखा जा सकता है । विद्यापति के गीतों से सूरदास भी प्रभावित थे। विद्यापति के गीतों को गाकर चैतन्य मूर्छित हो जाते थे । विश्व कवि रविंद्रनाथ टैगोर भी विद्यापति के अनन्य भक्त थे। विद्यापति भक्ति और श्रृंगार के चौराहा पर खड़े थे ।

डॉ रामकुमार वर्मा ने विद्यापति को श्रृंगारिक कवि माना है ।किंतु डॉ जनार्दन मिश्र ने विद्यापति को कृष्ण भक्त कहा है। श्री राम वृक्ष बेनीपुरी ने विद्यापति पदावली का संपादन किया है। श्री बेनीपुरी जी की मान्यता थी कि विद्यापति पंचदेवो उपासक थे ।

विद्यापति विद्वान कवि  थे ।वे गीतकार के रूप में अधिक विख्यात हैं। गीत छंदों की  उपलब्धि है। गीत में वेदना का भाव होता है। विद्यापति ने संयोग , वियोग  और श्रृंगार का सजीव चित्रण किया है। नंदन नंद कदंब तरु तीरे में कवि ने रासलीला का वर्णन किया है। काव्य शास्त्रीय दृष्टि से यहाँ संजोगात्मक भाषा है। हिंदी वियोगात्मक भाषा है ।संस्कृत में रामस्य बांग्ला में  रामेर और मैथिली में राम का नंदक। हिंदी में विभक्ति  अलग होगी जैसे राम के ।”चानन भेल विषम सर रे “नामक  गीत में विरह वर्णन है। विरह की अग्नि में नायिका को चंदन और भूषण भी अच्छा नहीं लगता है। नायिका का हरि स्वप्न में भी नहीं आ रहा है। यह गीत संगीतात्मकता से ओतप्रोत है। ‘सखी  हे हमर दुखक नहीं ओर’ नामक गीत में भी विरह की ज्वाला धधक रही है ।प्रकृति का यह मानवीय करण है। भादव महीना है ।गरज -गरज कर मेघ  बरस रहा है। अतः प्रकृति का चित्रण विद्यापति ने आलंबन रूप में किया है।नायिका कहती है कि  हरि के बिना दिन- रात कैसे काटूँगी?  सूर ने भी कहा निशि दिन बरसत नैन हमारे ।

अतः इन तीनों  गीतों के परिवेश में मैं  इस निष्कर्ष पर पहुंचती  हूँ कि यहाँ श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति है।अनुप्रास एवं अलंकारों की छटा निराली है। ‘माधव हम परिणाम निराशा’ गीत में शांत रस की अभिव्यक्ति है ।तुलसीदास ने भी  विनय पत्रिका में कहा ‘अब लौ नसानी अब न नसइहों ”  विद्यापति का कहना है जीवन का अंतिम प्रहर निराशा जनक रहा। उनका कहना है कि आधा जन्म मैंने नींद में गंवाया। यहां शब्द शक्ति का प्रयोग है। आधा जन्म मैंने सोकर अर्थात अज्ञानता में व्यतीत कर दिया। यहाँ दार्शनिक अभिव्यक्ति है। मनुष्य तुमसे ही जन्म लेता है और मृत्यु के उपरांत तुम में  ही विलीन हो जाता है । तातल  हैरत वारि विन्दुसम  नामक गीत में भी ऐसा ही विचार विद्यापति ने प्रस्तुत किया है। विद्यापति ने दुर्गा और गंगा की भी स्तुति की है।

जब मैं विद्यापति की काव्यगत विशेषताओं पर विचार करती हूँ तो पाती हूं कि वे संगीत सम्राट थे । भाषा पर उनका अधिकार था ।उनकी भाषा तत्सम शब्दों से युक्त थी। उनके गीतों को रागों में आबद्ध किया जा सकता है। ‘चानन भेल विषम सर रे’ गीत में विरोधाभास अलंकार है। नंदकनंद में अनुप्रासों की छटा है।

अतः भाव पक्ष और कला पक्ष की दृष्टि से  विद्यापति रस सिद्ध कवीश्वर हैं।

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Previous post  समकालीन हिन्दी ग़ज़ल में अस्मितामूलक विमर्श :: अविनाश भारती
Next post छंदबद्ध रचनाओं का दस्तावेज आये हैं तो काटेंगे :: डॉ.भावना